जिन्दगी है ये मेरी या कोई पहेली हैं
बहारों में खिलती हैं कलियाँ सुना है
हाथों कि लकीरें ये क्यूँ ऐसी उलझी
अंधेरों ने मुझको... कुछ ऐसे है घेरा
मगर ये सूरज फिर से होगा जवाँ जब
उलझी लकीरों में... कुछ तो लिखा हैं
दरारों में किरणे कभी.. जाती हीं होंगी
तनहाइयों कि महफ़िलें सजती हीं होंगी
हजारों में बैठी, क्यूँ तन्हा अकेली हैं
बहारों में खिलती हैं कलियाँ सुना है
काँटों नेही जाने क्यूँ मुझको चुना है
हाथों कि लकीरें ये क्यूँ ऐसी उलझी
समझने में इसको.. हूँ मैं भी उलझी
अंधेरों ने मुझको... कुछ ऐसे है घेरा
छूटा है मुझसे वो... साया भी मेरा
मगर ये सूरज फिर से होगा जवाँ जब
फिर होगा दर पे यारों का कारवां तब
उलझी लकीरों में... कुछ तो लिखा हैं
ये हम ना समझे पर.. समझा खुदा हैं
दरारों में किरणे कभी.. जाती हीं होंगी
शैल शिखरों पे बहारे भी आती हीं होंगी
तनहाइयों कि महफ़िलें सजती हीं होंगी
पहेलियाँ जिन्दगी की सुलझती हीं होंगी