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गुरुवार, 17 अगस्त 2017

सोचता हूँ...



जब-जब किसी की चिता की लपटों को देखता हूँ...
होगा कैसा मेरे जीवन का अंत तब-तब ये सोचता हूँ !

पंच तत्वों में विलीन तो यह नश्वर शरीर होगा हीं...
सोचता हूँ आत्मा उसके अंजाम तक पहुंचेगी या नहीं?
 
वेद-विदित है ये परंपरा हमारी सब ऐसा  कहते हैं
मुखाग्नि देते बेटे, और तर्पण भी वही करते हैं

सुना है तब जाकर कहीं आत्मा को शान्ति मिलती है...
वर्ना सदियों तक वह बैतरनी में भटकती रहती है!

अरमानों से प्यारी बिटिया को ऐसे में जब देखता हूँ ...
बड़ी बेचैनी से उस हालात में मैं यह सोचता हूँ... 

जिसकी मासूम मुस्कान जीवन का हर दुःख हर लेती है
हाथों के कोमल स्पर्श से जो बेचैनी में भी सुकून देती है

वह मुखाग्नि दे  तो क्या चिता जलने से इनकार कर देगी?
उसके हाथों का तर्पण क्या आत्मा अस्वीकार कर देगी??

शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

मेरे जीवनसाथी

मेरे जीवनसाथी, ओ प्राणप्रिय, चलो मिलकर प्रेम रचें
स्वामित्व-दासत्व की कथा नहीं, विशुद्ध प्रेम लिखें
न तुम प्राणों के स्वामी, न हीं मैं तेरे चरणों की दासी
तुम ह्रदय सम्राट मेरे, और मैं तुम्हारी ह्रदय-साम्रागी

तुम्हारी खामियों सहित पूर्ण रूप से तुम्हें अपनाऊं
तुम भी मुझे मेरी अपूर्णताओं के संग स्वीकारो
तुम्हारे स्वजनों को पुरे ह्रदय से मैं अपना बना लूँ
मेरे भी कुछ आत्मीय हैं, यह बात तुम भी न बिसारो

ओ हमसफ़र मेरे हर कदम पर हम-कदम बन जाओ
न बाँधो व्रतों के फंदों में मुझे या तो स्वयं भी बंध जाओ
साथ मिलकर चलो साझी खुशियों की माँगे दुआएँ
साह्चर्य्ता का रिश्ता है चलो हर कदम साथ बढायें


शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

फ़र्ज़ का अधिकार




इस पुरुष प्रधान समाज में
सदा सर्वोपरि रही
बेटों की चाह
उपेक्षा, ज़िल्लत, अपमान से
भरी रही
बेटियों की राह
सदियों से संघर्षरत रहीं
हम बेटियाँ
कई अधिकार सहर्ष तुम दे गए
कई कानून ने दिलवाए
बहुत हद तक मिल गया हमें
हमारी बराबरी का अधिकार
जन्म लेने का अधिकार
पढने का,
आगे बढ़ने का अधिकार
जीवन साथी चुनने का अधिकार
यहाँ तक कि
कानून ने दे दिया हमें
तुम्हारी संपत्ति में अधिकार
लेकिन .....
हमारे फर्जों का क्या?
आज भी बेटियाँ बस एक दायित्व हैं
आज भी हैं केवल पराया धन
हर फ़र्ज़ केवल ससुराल की खातिर
माँ-बाप के प्रति कुछ नहीं?
बुढ़ापे का सहारा केवल बेटे,
बेटियाँ क्यूँ नहीं?
क्यूँ बेटी के घर का
पानी भी स्वीकार नहीं?
क्यों बुढ़ापे का सहारा बनने का
बेटियों को अधिकार नहीं?
सामाजिक अधिकार मिल गए बहुत
आज अपनेपन का आशीर्वाद दो
कहती है जो बेटियों को परायी
उस परंपरा को बिसार दो
हो सके तो मुझको, मेरे
फ़र्ज़ का अधिकार दो
मुझको मेरे फ़र्ज़ का अधिकार दो

........................................अलोकिता(Alokita)

सोमवार, 13 जनवरी 2014

गुब्बारे वाला


दायीं हथेली में मम्मी और बायीं हथेली में पापा की ऊँगली थामे, अपने नन्हे-नन्हे कदमो से चलती हुई सर्जना क्लास रूम तक पहुँची| शिक्षिका ने उसे अपने सामने देखते हीं गुस्से में कहा ‘फेल हुई हो तुम, दुबारा पढ़ना इसी क्लास में’ और कुछ बच्चे हँस पड़े| शिक्षिका का वह वाक्य और अपने सहपाठियों की हँसी उसके कोमल ह्रदय पर कठोर प्रहार से थे| अपने चारों ओर उसे खुद के लिए केवल तिरस्कार और उपेक्षा हीं नज़र आ रही थी, वह सहम गयी| वह चाहती थी कि पापा उसे गोद में उठा लें या मम्मी अपने आँचल में छुपा ले| वह सुरक्षित महसूस करना चाहती थी| उसने आशा भरी दृष्टी से अपने पिता को देखा, उन्होंने गुस्से में नज़रें फेर लीं, माँ के आँचल में लिपट जाना चाहा तो उन्होंने उसके कोमल से गाल पर एक ज़ोरदार तमाचा जड़ दिया| दोनों हीं आज सर्जना की वजह से शर्मिंदा थे, उनके सहकर्मियों के बच्चे अच्छे नंबरों से पास हुए थे और उनकी बेटी ने फेल होकर उनका सर शर्म से झुका दिया था (टिउसन में खर्च किये पैसे भी तो बर्बाद हुए)| उसकी हथेली से माँ-बाप की उँगलियाँ फिसल गयीं या उन्होंने खुद हाथ छुड़ा लिया उसे नहीं मालुम, पर क्या फर्क पड़ता है...| ठीक उसी तरह जैसे किसी को क्या फर्क पड़ता है कि सर्जना ने पास होने के लिए पूरी मेहनत की थी, क्या फर्क पड़ता है कि उसे भी फेल होना पसंद नहीं वह भी अपने सहपाठियों की तरह नयी कक्षा में जाना चाहती थी.......दुनिया परिणाम देखती है| परिणाम यह था कि सर्जना फेल हुई थी और वापस लौटते वक्त मम्मी-पापा के साथ तो थी पर उनकी उँगलियों का सहारा न था| वह अकेली हीं लौट रही थी....

घर पहुँचते हीं उसे उसकी सजा सुना दी गयी| उसके कमरे में उसे अकेले बंद कर दिया गया क्यूंकि उसे अकेले रहना पसंद नहीं था और नाहीं बंद कमरे में (अक्सर अपने लोग जानते हैं चोट कहाँ दी जाए)| कमरे में अकेले बैठी वह रोती रही, वह जानती थी कि उसने पूरी मेहनत की थी लेकिन याद किया हुआ वह कुछ भी तो याद नहीं रख पाती| वह दुखी थी, आत्मग्लानी से भरी हुई, उसके माता-पिता दुखी थे, गुस्से से भरे हुए, सबकी नज़रों में गुनहगार सिर्फ ‘सर्जना’ थी| उस छोटे से कमरे में बंद उस छोटी सी लड़की को क्या मालुम था कि बाहर बड़े-बड़े सम्मेलनों, अखबारों, व्याख्यानों में बड़े-बड़े लोग अक्सर ‘हर बच्चा खास है’ जैसी पंक्तियाँ बोल कर कितनी तालियाँ, कितनी वाह-वाहियाँ बटोर ले जाते हैं| उसे तो बस इतना पता था कि वह खास नहीं है और वह खास हो भी नहीं सकती| वह तो केवल साधारण से अंक लेकर पास होने वाले सभी आम बच्चों की तरह आम होना चाहती थी पर वह तो आम भी नहीं थी|

घंटो रोती-रोती सर्जना चुप हुई और उसी वक्त उसकी माँ उसके लिए खाना लेकर आई और उसे चुपचाप बैठा देख कर बोली ‘कुछ शर्म बाकी है तो अब भी तो पढ़ ले’ और उसके सामने खाना रख कर चली गयी| आत्मग्लानी और बेबसी से वह फिर सिसकने लगी| माँ ने तो अपनी खीझ उसपर निकाल ली (और शायद पापा ने माँ पर) लेकिन वह किसको कुछ कह सकती थी...

कुछ देर बाद कमरे में फिर सन्नाटा पसर गया और बाहर सड़कों पर हलचल बढ़ गयी| खिडकी बंद थी, शायद शाम ढलने को थी क्यूंकि शाम को हीं तो इतनी चहल पहल और शोर बढ़ जाता है...हर रोज़| टन-टन टन-टन घंटी बजाता हुआ कोई गुज़रा, वह पहचानती थी उस आवाज़ को समझ गयी ‘हवा मिठाई’ बेचने वाला था| ‘मुन्नी बदनाम हुई’ गाना बजाता हुआ ‘कुल्फी’ वाला गुज़रा, फिर थोड़ी देर बाद ढब-ढब की आवाज़ करता आइस-क्रीम वाला, गोल्डेन होगा या फिर रौलिक वाला भी हो सकता है| हर बच्चे की तरह उसका मन भी इन चीजों के लिए ललचाता था लेकिन वह मूर्तिवत बैठी रही| थोड़ी देर बाद एक और आवाज़ आई जिसे वह पहचान नहीं पायी| हर क्षण वह आवाज़ पास आ रही थी फिर शायद वह जो भी था उसकी खिडकी के पास हीं ठहर गया| मन में उत्सुकता तो थी लेकिन वह कुछ भी ऐसा नहीं करना चाहती थी जिससे मम्मी-पापा को और बुरा लगे इसलिए उसने खिडकी खोल कर बाहर नहीं देखा| कुछ देर बाद वह आवाज़ फिर दूर जाने लगी और धीरे-धीरे खत्म हो गयी|


अगले दिन से उसे ज्यादा से ज्यादा देर तक पढ़ने की हिदायत मिली और शाम को खेलना बंद कर दिया गया| वह पढ़ रही थी, काफी देर से पढ़ रही थी यहाँ तक शाम को जब सभी बच्चे खेल रहे थे वह तब भी किताब के साथ हीं बैठी थी| बाहर सबकुछ रोज़ जैसा हीं था, उसके होने या न होने से बाहर की दुनिया को कोई फर्क नहीं पड़ा था| अचानक फिर वही जादुई सी आवाज़ जो कल उसने पहली बार सुनी थी, फिर कहीं दूर से पास आ रही थी| आज वह खुद को रोक नहीं पायी, पलंग के सिरहाने के पास वाली खिडकी पर चढ़ कर इधर-उधर देखने लगी(मम्मी तो ऐसे भी टी. वि देखने में व्यस्त थी अपने कमरे में)| आज उसे मालुम हुआ वह तो एक गुब्बारे वाला था जो कुछ बजाता हुआ आ रहा था, वह ‘कुछ’ क्या था उसका नाम तो सर्जना को भी नहीं मालुम पर शायद कहीं ऐसी तस्वीर देखि थी उसने| वह गुब्बारे वाला, गुब्बारे बेचता हुआ आकर उसकी खिडकी के बाहर पड़े पत्थरों के ढेर पर बैठ गया, शायद थक गया था आराम करना चाहता था| लेकिन छिः उन्ही पत्थरों के ढेर पर तो रात को कुत्ते सोते हैं और एक दिन तो सर्जना की चप्पल में वहीं खेलते वक्त डॉगी की पौटी लग गयी थी| अचानक उसने बोला ‘गुब्बारे वाले वहाँ मत बैठो, वहाँ तो डॉगी सोता है’(पौटी करता है बोलने वाली थी पर कुछ सोच कर चुप रह गयी)| उसकी तरफ प्यार से देखते हुए गुब्बारे वाला हँस कर बोला बड़ी प्यारी बच्ची है और वहीं बैठ गया| खैर वह कहीं बैठे गुब्बारे तो उसके पास बहुत तरह-तरह के थे, इतने रंग-बिरंगे कि शायद टीचर को भी इन रंगों के नाम मालुम न हो (यह ख्याल मन में आते हीं उसके होठों पर एक मासूम हँसी तैर गयी)| वह देख रही थी कुछ बच्चे आ-आ कर गुब्बारे वाले से अपनी-अपनी पसंद के गुब्बारे खरीद रहे थे| उसने सोचा अगर मम्मी उसे गुब्बारे खरीद दे तो वह कौन सा लेगी? उसे तो सभी पसंद हैं| थोड़ी देर बाद जब गुब्बारे वाला उठ कर जाने लगा तो सर्जना ने हाथ बढ़ा कर गुब्बारे छूने की कोशिश की और वह कामयाब रही| उसकी नन्ही हथेलियों को सहलाते हुए एक गुब्बारा गुज़रा......बिलकुल आसमान के रंग का...उसकी ड्राविंग बुक के आसमान के रंग का|


उस दिन से तो रोज़ का नियम हो गया....गुब्बारे वाले का इंतज़ार...| वह आता भी रोज़ था और वहीं बैठता था, सर्जना को देख कर मुस्कुराता और रोज़ उसे एक गुब्बारा देता, जिसे वह कभी भी खिडकी की सलाखों के बीच से अंदर नहीं ला पाती थी बस थोड़ी देर हाथ में ले कर लौटा देने में ही उसे अपार खुशी होती थी| गुब्बारा लेने या उससे खेलने से ज्यादा बड़ी खुशी इस बात की थी कि उसके सिवा गुब्बारे वाला किसी और बच्चे को बिना पैसे लिए गुब्बारे छूने भी नहीं देता था| एक दिन कारण पूछने पर उसने कहा था कि वह उसे उन सारे बच्चों से ज्यादा अच्छी लगती है, सबसे अलग| सर्जना को भी तो वह गुब्बारे वाला बहुत अच्छा लगता था, यूँही नहीं वह अपनी हर कॉपी के पीछे गुब्बारे वाले की चित्र बनाती रहती थी| सर्जना की  खुशी और गुब्बारे वाले के खास होने का कारण वो गुब्बारे नहीं बल्कि वह एहसास था जो उसे उस गुब्बारे वाले ने उसे दिया था.....’खास होने का एहसास’                   

सोमवार, 30 दिसंबर 2013

जी करता है . . .

तेरे प्यार पर जां निशार करने को जी करता है
तेरी हर बात पर ऐतबार करने को जी करता है

बेपनाह हों दूरियाँ , भले तेरे-मेरे दरमियाँ
क़यामत तक तेरा इंतज़ार करने को जी करता है

हाथों में हाथ हो, तू मेरे अगर जो साथ हो
दुनिया के हर डर से इनकार करने को जी करता है

तेरे दामन की खुशियाँ भले हमें मिले न मिले
तेरा हर अश्क़ खुद स्वीकार करने को जी करता है 

खामोश हो जाते हैं लब तेरे सामने जाने क्यूँ 
हर रोज़ मगर प्यार का इज़हार करने को जी करता है 


शनिवार, 14 दिसंबर 2013

अच्छा लगता है


ख़ामोश तन्हाइयों से निकल, किसी भीड़ में खो जाना
अच्छा लगता है कभी-कभी भीड़ का हिस्सा हो जाना

भूल कर अपने आज को, बीती गलियों में मंडराना
अच्छा लगता है कभी-कभी पुरानी यादों में खो जाना

शब्दों में बयां किए बगैर, दिल के एहसासों को जताना
अच्छा लगता है कभी-कभी मुस्कुरा के खामोश हो जाना

बेमतलब बेईरादतन बार-बार यूँ हीं मुस्कुराना
अच्छा लगता है कभी-कभी अंजाने ख्यालों में खो जाना

दुनिया के कायदों, अपने उसूलों को तार-तार करना
अच्छा लगता है कभी-कभी बन्धनों से आज़ाद हो जाना


                                                      






........आलोकिता 

मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

मेरी वो चीज ढूंढ के ला दो

सुनिए ज़रा .....

अरे हाँ भई आप ही से बात कर रही हूँ, एक छोटी सी मदद चाहिए थी. कुछ खो गया है मेरा ढूंढने में मेरी मदद कर देंगे? हाँ हाँ बहुत ज़रुरी चीज़ है, कोई अहम चीज़ न होती तो नाहक हीं क्यूँ परेशान करती आपको? उसकी अहमियत? मेरे दिल से पूछिए तो मेरी आज़ादी, मेरा स्वावलंबन, मेरा स्वाभिमान सब कुछ तो है वो और आपके समझने वाली किताबी भाषा में बोलूँ तो मेरा “मौलिक अधिकार”. क्या कहा आपने, मुझे पहले खुद प्रयास करनी चाहिए थी? मैंने बहुत प्रयास किया, कसम से हर जगह ढूंढा पर कहीं नहीं मिला.

हाँ सच कहती हूँ मैं स्कूल गयी मैं कॉलेज भी गयी अपने बराबरी का अधिकार, अपनी शिक्षा का अधिकार ढूंढने पर . . . क्या बताऊँ मुख्य द्वार पर हीं रोक दिया गया. नहीं नहीं किसी ने खुद आकर नहीं रोका पर वहाँ केवल सीढियाँ हीं सीढियाँ थीं कोई रैम्प नहीं जिससे मैं या मेरे जैसे और भी व्हील्चेयर इस्तेमाल करने वाले लोग, कैलिपर, बैसाखियों वाले या फिर दृष्टि बाधित लोग जा सकें. हाँ एक कॉलेज में रैम्प जैसा कुछ देख के आशा जगी कि शायद यहाँ मिल जाए मेरे अधिकार लेकिन वह भी ऐसा रैम्प था कि चढ़ने का प्रयास करते हीं व्हीलचेयर के साथ लुढक कर सड़क पर गीर गयी. फिर भी मैं वापस नहीं लौटी, एक राहगीर से मदद ले कर अंदर गयी . . . क्या आप विश्वाश करेंगे अंदर एक भी कमरा जी हाँ एक भी कमरा ऐसा नहीं था जिसमें मेरे जैसे विकलांग छात्र-छात्राएं जा सकें और जब हमारे पढ़ने के लिए कक्षाएं हीं नहीं तो शौचालय ढूँढना तो बेवकूफी हीं है. मन में एक बात आई ‘क्या ये शिक्षण संस्थान ये मान कर बनाये जाते हैं कि हमारे देश में विकलांग छात्र है हीं नहीं? क्या ऐसा सोच कर वो हमारे मौलिक अधिकारों का हनन नहीं कर रहे?’
 

क्या? पत्राचार से घर बैठे डिग्री ले लेने के बाद मेरी लाइफ सेट है? सरकारी नौकरी की बात कर रहे हैं? हा हा हा हा ... माफ कीजियेगा, आप पर नहीं हँस रही, बस हँसी आ गयी वो कहते हैं न ‘ज़न्नत की हकीकत हमें भी मालुम है ग़ालिब, दिल बहलाने को ये ख़याल अच्छा है’. पहले सबकी बातें सुन सुन कर मैं भी कुछ ऐसा हीं सोचती थी और मैंने तो एक नौकरी के लिए फॉर्म भरा भी था. सचमुच विकलांगो के लिए एक अलग सेंटर दिया था उन लोगों ने, और पता है उस सेंटर की खासियत क्या थी? खासियत ये थी कि एक भी कमरा निचली मंजिल पर नहीं था, सभी को सीढियाँ से उपरी मंजिलों तक जाना था. कोई गोद से जा रहा था तो कोई ज़मीन पर घिसटते हुए. जब आगाज़ ये था तो अंजाम की कल्पना तो की हीं जा सकती है. विश्वाश नहीं हो रहा? अरे कोई बात नहीं मेरा विश्वाश ना कीजिये सरकारी दफ्तरों के एक चक्कर लगा के देख लीजिए खुद नज़र आ जायेगा कि उन दफ्तरों की संरचना कितनी सुगम है. कोई भी बैंक, ए०टी०एम, पोस्ट ऑफिस कहीं भी जा कर देख लीजिए कि विकलांगो चाहे वो कर्मचारी हो या कोई और किसी के लिए भी आने जाने का रास्ता बना है कहीं? अगर बराबरी का अधिकार है तो कहाँ है? नज़र क्यूँ नहीं आता?

जी क्या बोला आपने? मेरा दिमाग गरम हो गया है? थोड़ी ठंढी हवा खा लूँ? हाँ ठीक है पँखा चला लेती हूँ पर ठंढी हवा से याद आया सभी कहते हैं प्राकृतिक हवा स्वास्थ के लिए बहुत लाभकारी होती है और यही सोच कर मैं भी और लोगों की तरह पार्क गयी थी लेकिन देखिये ना इतने सारे पार्क सब के लिए 3-3, 4-4 गेट बने हुए हैं पर उसमें से एक भी गेट विकलांगो की सुगमता के लिए नहीं.

विकलांगो को और लोगों से बढ़ कर सुविधा दी जाती है? करोड़ों रूपए खर्च होतें है? आप भी न, नेताओं वाली भाषा बोलने लगे. हाँ बाबा जानती हूँ निशक्तता पेंशन अलग अलग राज्यों में अलग अलग योजनाओं के तहत बांटे जाते हैं. पिछले साल मुझे भी मिले थे (इस बार वाले का कुछ पता नहीं) पर तीन सौ रूपए महीने में कौन कौन सा खर्च निकल जाएगा? मैं ये बिलकुल नहीं कह रही कि इस राशि को बढ़ाया जाय मैं क्या कोई भी नहीं कहता. कहना तो ये है कि बंद हो जाए ये पैसे लेकिन बदले में हमें हमारे मौलिक अधिकार मिले. स्कूल, कॉलेज, दफ्तर सभी सार्वजनिक स्थल ऐसे हों कि हम अपनी मर्ज़ी से स्वाभिमान के साथ कहीं भी जाएँ, अपनी प्रतिभा, अपने हुनर से अपनी जीविका के लिए खुद कमा सकें. किसी एक अंग के कमज़ोर या न होने के कारण हम ‘निशक्त’ हैं यह एक ग़लतफ़हमी है.

कहने के लिए तो ट्रेन में सफर करने के लिए किराए में छूट दी जाती है पर इस छूट का क्या फायेदा जब ट्रेन के डब्बे ऐसे हों जिनमें हम खुद जा हीं न सके, जिसका शौचालय हमारे उपयोग के लायक हो हीं नहीं? ट्रेन में सफर करने के लिए भी बाकी लोगों के टिकट तो घर बैठे ऑनलाइन बनाये जा सकते हैं पर विकलांगो का टिकट तो काउंटर पर जा कर ही बनेगा. मेधा छात्रवृति की बात हो तो भी बाकी छात्र तो अपने अपने कॉलेज में हीं फॉर्म भर लेते हैं लेकिन विकलांग छात्रों को एक दूसरी जगह से फॉर्म मिलता है वो भी जमा करने खुद जाना होता है. क्या इसी को बराबरी का अधिकार कहते हैं? कहने को तो अभी बहुत कुछ है पर कहूँगी सिर्फ इतना कि मेरे सारे मौलिक अधिकार ढूंढ के ला दीजिए. हर जगह देख लिया नहीं मिला लेकिन अब रहा नहीं जाता कहीं से भी मुझे मेरे अधिकार चाहिए.   

...आलोकिता  

गुरुवार, 17 अक्तूबर 2013

तेरी हर याद ........

Drawn by me

हो प्यार का सुर जिसमें, वो गीत सुनाती है 
तेरी हर याद मुझे, तेरी ओर बुलाती है

जिसकी धुन सुन कर, दिल रोज़ धड़कता है.
मुझे प्यार की मीठी सी, संगीत सुनाती है

तेरी हर याद मुझे, तेरी ओर बुलाती है.

है मीलों की दूरी, पर हर पल साथ ही हो
साँसे बन कर यादें, मेरा दिल धड़काती हैं

तेरी हर याद मुझे, तेरी ओर बुलाती है

सपनो में रोज़ मेरे, एक तू ही तो आता है
मेरी सुनी आँखों में , नये ख्वाब सजाता है

गुज़री कितनी रातें , गुज़रे कितने ही दिन
एक पल भी लेकिन, यादें छूट ना पाती हैं

तेरी हर याद मुझे, तेरी ओर बुलाती है

मंगलवार, 3 सितंबर 2013

ख़ामोशी की दीवार ढह जाती तो अच्छा था


कड़वी यादें बीते पलों संग हीं रह जाती तो अच्छा था 
वो यादें या फिर अश्कों के संग बह  जाती तो अच्छा था

 कुछ ख़ास नहीं हैं दूरियाँ ,  तेरे-मेरे दरमियाँ 
बस ख़ामोशी की दीवार ये ढह जाती तो अच्छा था 

नाकाम कोशिशें ख़ामोशी के सन्नाटे को और गहराती है 
इन खामोशियों से बेपरवाह हीं रह जाती तो अच्छा था 

मुश्किल है एहसासों को दिल में छिपाए रखना 
गिले-शिकवे तुम्ही से सब कह जाती तो अच्छा था 

महफ़िलों में मिले तन्हाई तो और भी खलती है 
बंद अपने कमरे में अकेली हीं रह जाती तो अच्छा था  

                                                                                                            … … … आलोकिता                                                                                       

गुरुवार, 1 अगस्त 2013

जीवन भर का साथी ....मेरा जीवन साथी


आज से करीब डेढ़ साल पहले मेरी जिन्दगी में एक बहुत अहम मोड़ आया।  एक मोड़ जिसने मेरी जिन्दगी में बहुत कुछ बदल दिया, जिन्दगी जीने का मेरा तरीका, अपने वर्तमान और भविष्य को देखने का मेरा नज़रिया। एक मोड़ जिसने मुझमें आत्मविश्वाश भर दिया, बेशक मैं कह सकती हूँ अबतक की मेरी ज़िन्दगी का सबसे हसीन मोड़, वह मोड़ जहाँ मिला मुझे मेरे जीवन भर का साथी ...…मेरा जीवन साथी।


हालाँकि अपनी जिन्दगी में उसे जगह देने से पहले एक अजीब सी झिझक थी मन में (शायद समाज के नज़रिये की वजह से) लेकिन आज मैं पूरे विश्वास के साथ और सच्चे दिल से कह सकती हूँ की पापा की रज़ामंदी के बगैर लिया हुआ मेरा वो फैसला गलत नहीं था क्यूंकि एक अच्छे जीवन साथी के सारे गुण मौजूद हैं उसमें और मैं उसके मेरे जीवन में होने से काफी खुश हूँ। गलत नहीं थी मैं, जब अपनी लगभग पूरी जमा पूँजी लगा दी व्हीलचेयर खरीदने में।


आज मैं साफ़ तौर पर बहुत बड़ा अंतर देख सकती हूँ उसके आने से पहले और उसके आने के बाद के अपने जीवन में।  मुझे याद है उसके मेरे जीवन में आने से पहले चार दीवारों से घिरा एक कमरा बस इतना ही तो था मेरा संसार लेकिन उसने ना सिर्फ उन दीवारों के बाहर की दुनिया खोल दी मेरे लिए बल्कि भविष्य के सुनहरे सपने देखने का भी अधिकार दिला दिया। पैरों की अक्षमता की वजह से जिन्दगी जो ठहर सी गयी थी, उसके आने से बेफिक्र सी नदी की तरह बहने लगी, रास्ते में आने वाले हर चट्टान को लाँघ जाने के जज्बे के साथ।

मुझे याद है वो वक़्त खड़े हो सकने की असमर्थता की वजह से जब ज़मीन पर घिसटती हुयी जिन्दगी काट रही थी हर वक़्त किसी के जूतों तले हाथ या पैर पड़ जाने का डर होता था जहन में, कोई परीक्षा या न टाले जा सकने वाले मौकों पर सार्वजनिक जगहों पर घिसटते हुए हाथों का छिल जाना, पान की पिक या और भी गंदगियों पर हाथ रखने की मज़बूरी या कई बार ना चाहते हुए भी किसी अजनबी(या पापा भी) के द्वारा गोद में उठाये जाने की ज़िल्लत(मदद के लिए) कितना बुरा लगता था ये सब, लेकिन उसके आने के बाद अब सब बदल गया। उसकी बाहों में इतनी सुरक्षित महसूस करती हूँ जितना और कहीं नहीं। भीड़ भरी जगहों पर भी अब बिना किसी के जूतों के डर या गोद में उठा लेने के प्रस्तावों की चिंता के बगैर आत्म विश्वाश और स्वाभिमान के साथ आज मैं जा सकती हूँ तो सिर्फ इसलिए की वो मेरे साथ है हमेशा। मेरा जीवन साथी, मेरा आत्म विश्वाश, मेरे स्वाभिमान का रक्षक, जिसके बगैर मैं अधूरी हूँ और जिसका होना मुझे पूर्णता का एहसास कराता है। वही तो है जिससे मैं प्यार भरी मुस्कान के साथ कह सकती हूँ "तेरा साथ है तो मुझे क्या कमी है,
अंधेरो से भी मिल रही रौशनी है।"



एक बार यु ट्यूब पर एक कविता सुनी थी(शायद प्रसून जोशी की) जिसमें एक लड़की की इच्छा दर्शायी गयी थी उसके जीवन साथी के बारे में, लड़की अपने पिता से मिन्नत करती हुयी कहती है मुझे न राजा के घर ब्याहना न सुनार के घर, मेरा हाथ लोहार के हाथों में दे देना जो मेरी बेड़ियों को काट सके, सुन कर लगा बिल्कुल ऐसा ही तो है न वो भी, उसने भी तो मेरी बेड़ियाँ काट कर सतरंगी सपनो की दुनिया में उड़ने के लिए आज़ाद कर दिया। जिन्दगी की राहों पर हर कदम मेरे साथ रहने वाला मेरे हिस्से के कंकड़, काँटे सब खुद झेल कर मुझे सुरक्षित रखने वाला। सुबह आँखे खोलते हीं पलँग के पास खड़ा नज़र आता है बाहें फैलाए सिर्फ मेरे लिए, मेरे साथ पूरा दिन गुज़ार देने के लिए, वो बना भी तो है सिर्फ और सिर्फ मेरे लिए। अब उसके बगैर जीने के बारे में सोचना भी मुझे गँवारा नहीं क्यूंकि मैं जानती हूँ भले ही पूरी दुनिया मेरा साथ छोड़ दे या मैं हीं खुद लोगों को छोड़ दूँ पर वो एक चीज़ जो जीवन भर मेरा साथ निभाएगी जिसके साथ पूरी जिन्दगी मेरी गुज़र जाएगी वो है मेरा 'व्हीलचेयर।' जानती हूँ मेरे और उसके रिश्ते का अंत अगर कहीं होगा तो वो इस जिन्दगी के बाद मौत के आगोश में। तभी तो कहती हूँ उसे जीवन भर का साथी ... मेरा जीवन साथी 











…आलोकिता 










शनिवार, 23 मार्च 2013

तो क्या करें???






झूठी हो हाथों की हर लकीर तो क्या करें 
बेवफ़ा हो अपनी हीं तकदीर तो क्या करें 

मंजिलें भले मालुम हों रास्ते भी हों खुले 
अपने हीं पैरो में हो ज़ंजीर तो क्या करें 

ज़ख्म की गहराई हमने दिखा तो दी 
उन्हें मालूम नहीं दर्द की तासीर तो क्या करें 

हँसते रहने की आदत यूँ तो बना ली है 
कलम से उतर हीं आये दिल का पीर तो क्या करें 

...................................................................आलोकिता 

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

बहन-रक्षा का प्रण लेने की जरुरत नहीं


अभी पिछले हीं दिन अखबार में छपी एक खबर में पढ़ा था बारहवीं की एक छात्रा के साथ हुए सामूहिक बलात्कार के मुख्य नामजद अपराधी प्रशांत कुमार झा तीन बहनों का भाई है, उसकी बहन के बयान से शर्मिंदगी साफ़ झलक रही थी और छोटी बहन तो समझ भी नहीं पा रही उसके भाई ने किया क्या है | बस यही सोच रही थी की आज राखी के दिन क्या मनः  स्थिति होगी ऐसी बहन की जिसका भाई बलात्कार के जुर्म में जेल गया हो ...............

तेरे हिस्से की राखी आज जला दी मैंने 
इस बंधन से तुझको मुक्ति दिला दी मैंने 
अफ़सोस तेरी बहन होने के अभिशाप से छुट ना पाउंगी 
अपनी राखी की दुर्बलता पर जीवन भर पछ्ताउंगी 
मुझ पर उठी एक ऊँगली, एक फब्ती भी बर्दास्त ना थी 
सोचती हूँ कैसे उस लड़की का शील तुमने हरा होगा ?
वर्षों का मेरा स्नेह क्यूँ उस वक़्त तुम्हे रोक सका नहीं? 
क्यूँ एक बार भी उसकी तड़प में तुम्हे मेरा चेहरा दिखा नहीं?
इतनी दुर्बल थी मेरी राखी तुझको मर्यादा में बाँध ना सकी 
शर्मशार हूँ भाई, कभी तेरा असली चेहरा पहचान ना सकी
उधर घर पर माँ अपनी कोख  को कोस कोस कर हारी है
तेरे कारण हँसना भूल पिता हुए मौन व्रत धारी हैं 
सुन ! तेरी छुटकी का हुआ सबसे बुरा हाल है 
अनायास क्यूँ बदला सब, ये सोच सोच बेहाल है
छोटी है अभी 'बलात्कार' का अर्थ भी समझती नहीं 
हिम्मत नहीं मुझमे, उसे कुछ भी समझा सकती नहीं 
पर भाई मेरे, तु तो बड़ा बहादुर है, मर्द है तु 
उसको यहीं बुलवाती हूँ , तु खुद हीं उसको समझा दे 
बता दे उसे कैसे तुने अपनी मर्दानगी को प्रमाणित किया है 
और हाँ ये भी समझा देना प्यारी बहना को, वो भी एक लड़की है 
किसी की मर्दानगी साबित करने का वो भी जरिया बन सकती है 
अरे ये क्या, क्यूँ लज्जा से सर झुक गया, नसें क्यूँ फड़कने लगीं ?
यूँ दाँत पिसने , मुठ्ठियाँ  भींचने से क्या होगा ?
कब-कब, कहाँ-कहाँ, किस-किस से रक्षा कर पाओगे?
किसी भाई को बहन-रक्षा का प्रण लेने की जरुरत नहीं 
खुद की कुपथ से रक्षा कर ले बस इतना हीं काफी है 
जो मर्यादित होने का प्रण ले ले हर भाई खुद हीं 
किसी बहन को तब किसी रक्षक की जरुरत हीं क्या है?  

   

गुरुवार, 3 मई 2012

क्या यही प्रेम परिभाषा है ?


तुझसे लिपट  के........... तुझी में सिमट जाऊं 
भुला  के खुद को.......... तुझपे हीं मिट जाऊं 
ये कैसी तेरी चाहत ? ये कैसा है प्यार सखे ?
मिट जाए पहचान भी नहीं मुझे स्वीकार सखे 

है प्यार मुझे भी, प्रीत की हर रीत निभाउँगी
तुझसे जुडा हर रिश्ता सहर्ष हीं अपनाउंगी
पर  भुला दूँ अपने रिश्तों को मुझसे ना होगा 
एक तेरे लिए बिसरा दूँ सब मुझसे ना होगा 

बेड़ियों सा जकड़ता जा रहा हर पल मुझको 
ये कैसा प्यार जो तोड़ रहा पल पल मुझको ?
खो दूँ अपना अस्तित्व ये कैसी प्रीत कि आशा है ?
पाके तुझको खुद को खो दूँ यही प्रेम परिभाषा है ?

                                                    .......................आलोकिता 

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

आखिर कब तक ?

हमारे देश में हमेशा से असमानता को हटाये जाने का प्रयास होता रहा है लेकिन यह 'असमानता' जाने कबतक हमारे देश के अस्तित्व से चिपकी रहेगी ? कब तक भेद भाव का सामना करना पड़ेगा समाज के विभिन्न वर्गों को ? कभी जातियता , कहीं लिंग तो कभी अमीरी और गरीबी का भेद भाव, खैर इन विषयों पर तो अक्सर विचार विमर्श होते हीं रहते हैं पर अक्षमता और सक्षमता के आधार पर भी भेद भाव होते रहते हैं लेकिन इस विषय पर चर्चाएँ भी काफी कम होती हैं |


 अभी हाल हीं का एक उदाहरण ले लीजिये जब जीजा घोष को हवाई जहाज में चढ़ के बैठ जाने के बाद सिर्फ इसलिए उतार दिया गया क्यूंकि वो एक अक्षम महिला हैं और उस जहाज का चालक उत्प्रभ तिवारी चाहता था कि उन्हें उतार दिया जाए | ये तो वही रंग भेद वाली जैसी बात हो गयी ना, या कहें उससे भी बढ़ कर, क्यूंकि गांधी जी को जब गोरों के डब्बे से उतारा गया था उस वक़्त अश्वेत लोगों के लिए अलग डब्बे होते थे रेल गाडी में, और इस बात की खबर भी होती थी उन्हें, कि उनके लिए अलग डब्बे निर्धारित किये गए हैं यहाँ तो वो भी नहीं है | यह दुर्व्यवहार की घटना महज जीजा घोष के साथ हीं नहीं हुई अपितु आये दिन अक्षम व्यक्तियों को ऐसे भेद भावों का सामना करना पड़ता है | 


महिला सशक्तिकरण, समाज में महिलाओं की हिस्सेदारी और भागीदारी की बात तो आज कल चर्चा-ए-आम है और उन्ही चर्चाओं में अक्सर कुछ वाक्यांशों का प्रयोग किया जाता है जैसे 'औरत कोई वस्तु नहीं' या 'औरत सिर्फ एक शरीर नहीं' ये बातें महज औरत नहीं बल्की हर इंसान पर लागू होती हैं | किसी भी इंसान के लिए वस्तु या बेजान शरीर मान कर किया गया व्यवहार उतना हीं कष्टकारी होता हैं | बेशक इंसान का मतलब केवल सक्षम व्यक्ति नहीं होता | विकलांगता प्रमाण पत्र धारी व्यक्ति भी कोई वस्तु नहीं जिसे किसी की भी मर्ज़ी से कहीं से भी हटा दिया जाए | विकलांग व्यक्ति मात्र एक विकृत शरीर नहीं वो भी एक इंसान है जिसमे सोचने की समझने की सुख दुःख महसूस करने की क्षमता है | जीवन के कदम कदम पर जब किसी विकलांग व्यक्ति को ऐसे भेद भावों का सामना करना पड़ता है तो एक आम इंसान की तरह उसका भी दिल दुखता है उसकी भी भावनाएं जख्मी होती हैं क्यूंकि उसके भी दिल में आम इंसान के जैसे हीं जज्बात होते हैं | 


जीजा घोष जैसी घटनाएं ना सिर्फ उस पीड़ित व्यक्ति के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाती हैं बल्की हज़ारों अक्षम लोगों के आत्मबल को तोड़ देती हैं | अपनी शारीरिक अक्षमता के बावजूद खुद को सामाजिक  मानदंडो पर सक्षम साबित कर देने के बावजूद भी जब किसी को आत्मसम्मान के साथ जीने का हक नहीं मिलता तो इसे मानवीय अधिकारों का हनन नहीं तो और क्या कहेंगे? ऐसी घटनाएं मात्र मानवीय नहीं अपितु कानूनी अधिकारों का भी हनन है | जीजा घोष इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ सेरेब्रल पाल्सी  की विकलांगता अध्ययन की अध्यक्षा हैं और उनके साथ हुआ यह दुर्व्यवहार साफ़ तौर पर हमारे समाज की पिछड़ी हुई मानसिकता को दर्शाता है | जब हमारे देश के इतने पढ़े लिखे और तथाकथित समझदार लोगों के बीच ऐसी घटनाएं होती हैं तो एक बार ध्यान अपनी शिक्षा प्रणाली पर जरुर जाता है क्यूंकि कहते हैं 'विद्या ददाति विनयम' , उत्प्रभ तिवारी जैसे लोगों को कैसी विद्या दी गयी है जिसमे विनय है हीं नहीं ? ऐसी शिक्षा का क्या फायेदा जो एक मानव के भीतर मानवीयता को हीं ना जगा पाए? 


ऐसी परिस्थितियों में कई सवाल मन में दस्तक देते हैं | आखिर कब तक शारीरिक रूप से अक्षम लोगों को अपना स्वाभिमान खोकर जीना पड़ेगा?कब आएगी वो संवेदनशीलता हमारे समाज में जब इंसान को इंसान के रूप में देखा जाएगा? कब आएगा वो दिन जब हर किसीको उसका अधिकार मिल पायेगा ? आखिर कब?  
       

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

बेटी हूँ


















सुन लो हे श्रेष्ठ जनों 
एक विनती लेकर आई हूँ 
बेटी हूँ इस समाज की 
बेटी सी हीं जिद्द करने आई हूँ 
बंधी हुई संस्कारों में थी 
संकोचों ने मुझे घेरा था 
तोड़ के संकोचों को आज 
तुम्हे जगाने आई हूँ 
बेटी हूँ 
और अपना हक जताने आई हूँ 
नवरात्रि में देवी के पूजन होंगे 
हमेशा की तरह 
फिर से कुवांरी कन्याओं के 
पद वंदन होंगे 
सदियों से प्रथा चली आई 
तुम भी यही करते आये हो 
पर क्या कभी भी 
मुझसे पूछा ?
बेटी तू क्या चाहती है ?
चाहत नहीं 
शैलपुत्री, चंद्रघंटा बनूँ 
ब्रम्ह्चारिणी या दुर्गा हीं कहलाऊं 
चाहत नहीं कि देवी सी पूजी जाऊं 
कुछ हवन पूजन, कुछ जगराते 
और फिर .....
उसी हवन के आग से 
दहेज़ की भट्टी में जल जाऊं 
उन्ही फल मेवों कि तरह 
किसी के भोग विलास  को अर्पित हो जाऊं
चार दिनों की चांदनी सी चमकूँ
और फिर विसर्जीत  कर दी जाऊं
नहीं चाहती
पूजा घर के इक कोने में  सजा दी जाऊं 
असल जिन्दगी कि राहों पर 
मुझको कदम रखने दो 
क्षमताएं हैं मुझमें 
मुझे भी आगे बढ़ने दो 
मत बनाओ इतना सहनशील की 
हर जुल्म चूप करके सह जाऊं 
मत भरो ऐसे संस्कार की 
अहिल्या सी जड़ हो जाऊं 
देवी को पूजो बेशक तुम 
मुझको बेटी रहने दो 
तुम्हारी थाली का 
नेह  निवाला कहीं बेहतर है
आडम्बर के उन फल मेवों से 
कहीं श्रेयष्कर है 
तुम्हारा प्यार, आशीर्वाद 
झूठ मुठ के उस पद वंदन से