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सोमवार, 28 मार्च 2011


ओ शीतल शीतल पवन के झोकों
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ओ शीतल शीतल पवन के झोकों 
बहने दो संग में..... आज न रोको 
शीतलता मुझे खुद में भर लेने दो 
कुछ  पल, मन शीतल हो लेने दो
अपनी मोहकता में मुझे खोने दो 
आज.... बाँहों के झूलों में सोने दो
जी करता है , मैं बदली बन जाऊं
ले जाये जहाँ ,  तेरे संग उड़ जाऊं 
छू आऊं मैं चाँद को...... कुछ पल  
अनंत में खो जाऊं ....... कुछ पल 
ओ शीतल शीतल पवन के झोकों 
बहने दो संग में..... आज न रोको 
जी करता, मैं भी पवन बन जाऊं 
हर  दामन को, शीतल कर जाऊं
कहो तो रज  कण सी उड़ चलूँ मैं 
जिस ठौर ले जाओ, वहीँ चलूँ  मैं 
या की.. पुष्प पराग सी झर जाऊं
वातावरण ,   सुवासित कर जाऊं
तरु पात सी डोलूँ मैं तेरे छुवन से 
या उनिग्ध हो जाऊं तेरे छुवन से
ओ शीतल शीतल पवन के झोकों 
बहने दो संग में..... आज न रोको 
 ....................................................आलोकिता 
    

शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

वर्षा



जाने किस पनघट से 

भर अमृत कलश 
चली जा रही थी 
किसने मारा कंकड़ ?
फूटे मेघ घट 
बही रसधार 
धरा पी पी सुधा 
तृप्त हुई जाती है 
भीगने को व्याकुल 
सकल नर नारी 
नन्हों की खिल उठी 
किलकारी 
नदियाँ बाँहें फैलाये 
मांग रही दो बूंद 
पाकर सुधांश 
दे आई सागर को 
आई जो सूर्यकिरण 
उपहार मिले कुछ 
जल  कण
फिर से भर आई वह 
पनघट 
फिर से भर गए 
मेघों के जल घट
 

मंगलवार, 25 जनवरी 2011


















चिड़िया रानी चिडिया रानी
क्यूँ तेरी आँखों में पानी ?
बतलाओ न अपनी कहानी
                क्या बतलाऊ  मछली बहना
                दुश्वार किया इंसानों ने जीना
                 पहले आश्रय स्थल पेड़ को छिना
                 अब जाल में फंसाते डाल कर दाना
कभी न सुनते हमारा कहना
हमे न इन  पिंजड़ों में रहना
उनकी कटोरी का दाना नहीं खाना
न हीं उनका मिनरल वाटर है पीना
                   हमे नहीं बनना है उनके घर का गहना
                    नील गगन में स्वछंद विचरण है करना
                   हमे तो बस प्रभु की इस दुनिया में है उड़ना
                   आकाश की हर ऊंचाई को है चूमना
हमे तो क्षितिज से हैं बाते करनी
इसी तरह खुशी से है जीना
और खुशी से हीं है मरना








मंगलवार, 4 जनवरी 2011

बगिया आज खिल उठी





कलियों के चटखने से 
बगिया आज महक उठी 
फूलों के मुस्कुराने से 
प्रकृति भी खिलखिला उठी



और भी रंगीन होती जा रहीं 
तितलियाँ रस पीकर 
दीवाने होकर देखो गा रहे 
सांवले सलोने भ्रमर 






गुजरा पवन इन्हें छूकर 
उसका रोम रोम महक उठा 
सहलाया बादलों को जाकर 
तो वह भी आज बहक उठा 


सारा स्नेह एकत्रित कर 
सर्वस्व अपना बरसा दिया 
कली को बूंदों से स्पर्श कर 
खुश हुआ औरों को हरसा दिया 


भीगी भीगी सी कलियाँ भी 
शर्मा कर झुक गईं 
जा रही थी जो हवा वह 
मंत्रमुग्ध होकर रुक गई 


मंद पवन का झोंका आया 
मुझको सारा हाल बताया 
शीतल सुवासित सुन्दरता से 
मेरा परिचय करवाया  













सोमवार, 3 जनवरी 2011

मेरी गली के आवारा कुत्ते



मेरी गली में रहते 
कुछ आवारा कुत्ते 
इंसानों के बीच रहते रहते 
अपना पराया सीख चुके 
गली में कोई उनका 
गैर नहीं 
बाहरी कुत्ते आये तो फिर 
उनकी खैर नहीं 
ये गली उनकी है 
पर इस गली में 
उनका कोई घर नहीं 
तभी कडकडाती सर्दी में 
कूँ..कूँ करते ठिठुरते 
ये आवारा कुत्ते 
कुछ सरकारी 
अलाव भी जलतें हैं 
पर इनसे पहले 
कुछ अधनंगे से 
दरिद्र उसे घेर लेते हैं 
बेबस खड़े देखते 
ये आवारा कुते 
ऊनी कपडे,बिस्कुट 
पालतू कुत्ते कि ठाट 
देख दंग रह जाते हैं 
गले में पट्टा देख 
खुशी से दौड़ लगाते 
या फिर शायद 
आजादी अपनी दिखाते हैं 
आकाश को देख, जाने 
अपना दुर्भाग्य गाते हैं 
या उस पालतू का 
दर्द सुनाते हैं 
ये आवारा कुत्ते 

रविवार, 19 दिसंबर 2010

पिंजरबद्ध जिंदगानी

पिजड़े में बंद एक तोता हूँ मैं ,
हार वक़्त भाग्य पर रोता हूँ मैं |

पर होते हुए भी अपर रहना मेरी मज़बूरी,
मीठू-मीठू की रट लगाना भी जरुरी |

ये घर वाले जताते हैं मुझसे कितना प्यार ,
क्या इतना भयंकर और क्रूर होता है प्यार?

एक दिन मन में एक ख्याल आया ,
मैंने मुन्नी को बहुत बहलाया |

बोला, खोल दो यह पिंजड़ा अगर,
दो मिनट उड़ कर आ जाऊंगा अन्दर |

पर वह भी थी बड़ी सायानी ,
उसने मेरी एक न मानी|

बोली खोल दूँ पिंजड़ा तो उड़ जाओगे ,
वापस ना फिर यहाँ  तुम आओगे |

तुरंत एक ताला पिंजड़े में जड़ दिया ,
उड़ान को सपनो से भी दूर कर दिया |

शायद हर पिंजरबद्ध की है यही कहानी ,
हाय ! यह पिंजरबद्ध जिंदगानी |
    

सोमवार, 13 दिसंबर 2010

आँसु की कहानी

कल मैंने देखा एक सपना ,
सपने में रो रहा था कोई अपना |

वह थी हमारी धरती माता ,
हमसे है उनका गहरा नाता |

बहुत पूछने पर सुनाई आँसु की कहानी,
जिसे सुनने पर हुई मुझे हैरानी |

उन्हें नहीं था अपने बुरे हाल का  दुःख ,
नहीं चाहिए उनको हमसे कोई सुख |

उनकी गम का कारण थे हम ,
फिर भी हमारे लिए थी उनकी आँखे नम|

उन्होंने ने कहा मनुष्य बन रहे अपनी मृत्यु का कारण,
मेरे पास नहीं है इसका निवारण |

कभी मुझ पर हुआ करती थी हरियाली ,
मनुष्यों के कारण छा गयी है विपदा काली|

                                                                                अपनी सुन्दरता से मुझे क्या है करना ?
                                                             मनुष्यों के लिए हीं मैंने पहना था हरियाली का गहना |

                                  
                                   यह जानते हुए भी मनुष्य कर रहे पेड़ो की कटाई,
                                   अपनी बर्बादी को मनुष्यों ने खुद है बुलाई |

कहीं यह सपना बन ना जाए सच्चाई ,
इसीलिए प्लीज़ रोको पेड़ो की यह कटाई |

रविवार, 12 दिसंबर 2010

बीज से पेड़

मैं नन्हा सा बीज, इस स्थुल जगत से घबराया
तब धरती माँ ने अपने प्यार भरे गोद में सुलाया
एक दिन हवा के झोंके ने मुझे पुकारा
पर उस ममतामई गोद को छोड़ने में मैं हिचकिचाया
फिर बारिश की की बूंद ने छींटे मार कर मुझे जगाया
पर फिर भी मैं वहीँ पड़ा रहा अलसाया
सुरज की किरणों ने मुझे ललकारा
गुस्से से आवाज़ देकर पुकारा
धीरे धीरे तब मैं ऊपर आया
अपनी जड़ों को धरती में हीं जमाया
बीज से अब मैं पौधे के रूप में आया
अपना नवीन रूप देख कर इतराया
सुरज ने दी गर्मी बारिश ने प्यास बुझाया
चंदा ने अपनी चांदनी से मुझे नहलाया
मस्त हवा के झोंकों ने झुला झुलाया
प्रकृति ने सुन्दर फूलों से मुझे सजाया
तितलियों ने फूलों से रस चुराया
भंवरों ने अपना मधुर गुंजन सुनाया
इसी तरह फूलता फलता मैं बड़ा हुआ
बीज से पौधा, और अब पेड़ बन खड़ा हुआ 

शनिवार, 4 दिसंबर 2010

एक दास्ताँ


 उन भुली बिसरी बातों में
खोई हूँ तुम्हारी यादों में
बीते थे वो सावन मेरे
बैठ के डाली पर तेरे
तुम्ही पर तो था प्यारा घोंसला मेरा
तुम्हारे हीं दम से था बुलंद हौंसला मेरा
तुम्ही पर रह मैंने चींचीं  कर उड़ना सीखा
जीवन की हर मुश्किल से लड़ना सीखा
काट कर कँहा ले गए तुम्हे इंसान ?
बन गए हैं ये क्यूँ हैवान ?
मुझे रहना पड़ता है इनके छज्जों पर
जीना पड़ता है हर पल डर डर कर 
मैंने तो खैर तुम पर कुछ साल हैं गुजारे
पर कैसे अभागे हैं मेरे बच्चे बेचारे
कुछ दिन भी वृक्ष पर रहना उन्हें नसीब न हुआ
कुदरती जीवन शैली कभी उनके करीब न हुआ
काश! वो दिन फिर लौट आये
हरे पेड़ पौधे हर जगह लहराए

गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

श्रेष्ठ किसे कहें ?

हे मनुष्य ! तुम धरती के श्रेष्ठ जीव क्यूँ कहलाते हो ?
क्या तुम किसी को खुशी दे पाते हो ? 
जीवों की हत्या और साथ में पेड़ भी कटवाते हो !
औरों को छोड़ो अपनी माता धरती को भी बदहाल बनाते हो |
किस हक से तुम श्रेष्ठ जीव कहलाते हो ?
यूँ तो तुम संवेदनशील , चिंतनशील 
और न जाने कौन कौन शील प्राणी कहलाते हो |
प्रियजनों की मृत्यु को तुम अप्रिय बताते हो |
फिर क्यूँ औरों को मृत्यु बांटते जाते हो ?
तुम धरती के श्रेष्ठ जीव क्यूँ कहलाते हो ? 

शनिवार, 20 नवंबर 2010

गंगा की धारा

मैं हूँ बहती निर्मल धारा गंगा की 
 यात्रा करती हिमालय से बंगाल कि खाड़ी तक कि
                    हुआ था हिमालय के गोमुख में 
                     पावन निर्मल जन्म मेरा 
                     बीता था हरिद्वार तक में 
                     चंचल विह्वल बचपन मेरा
फिर मैं आगे बढती हीं गयी 
कठिनाई बाधाओं को तोड़ती गयी  
                      पथरीले इलाके को छोड़कर 
                      आई मैं समतल जमीन पर 
                      फिर क्या था बरस पड़ा मुझपर 
                      मनुष्यों का भारी कहर 
उद्योगों के कचडे, मल, मूत्र इन सभी को 
मुझमे समाहित कर डाला 
मुझको तथा मेरी जवानी को 
इन्होने मलिन कर डाला 
                      मैं सहनशीलता की मूरत बन 
                      बस आगे बढती हीं गयी 
                      फिर दया की पात्र बन 
                      बंगाल कि खाड़ी में शरण ली 
मैं बन गयी बेबश मलीन धारा गंगा की
यात्रा पूरी हुई हिमालय से बंगाल कि खाड़ी तक कि 

सोमवार, 15 नवंबर 2010

'''''''''''''वसंत से पतझड़'''''''''''''''

देखो बागों का या यौवन आज खिल रहा
तभी तो मधुमास उसका आलिंगन कर रहा
नव पुष्पों से बागों का श्रृंगार हो रहा
तभी तो बसंत का दिल धड़क रहा
सुन्दर सुन्दर पुष्प आज खिल रहे
भँवरे आकर मधुर गुंजन कर रहे
पुष्प सुगंध चहु दिशा में फैला रहे
तभी तो तितलियों के झुण्ड दौड़े आ रहे
रूप रंग गंध सब का मज़ा  लेने को
मनोरम दृश्य को स्मृति में भर लेने को
मानव भी दौड़ा चला आया
बागों का रूप देखकर ललचाया
कल बागों में जब यौवन न होगा
मधुमास का तब आलिंगन न होगा
पुष्पों का श्रृंगार जब टूट जायेगा
वसंत बागों से तब रूठ जायेगा
सारे पुष्प जब मुरझा जायेंगे
भौंरे कहीं न नजर आयेंगे
पुष्पों में जब सुगंध न होगा
आसपास तब तितलियों का झुण्ड न होगा
मानव भी फूलों को रौंद चला जायेगा
उन बेचारों की तरफ उसका ध्यान न जायेगा
बागों में भयानक सूनापन तब छाएगा
पतझड़ का मौसम उसके समीप जब आएगा
                                               आलोकिता .....