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मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

मेरी वो चीज ढूंढ के ला दो

सुनिए ज़रा .....

अरे हाँ भई आप ही से बात कर रही हूँ, एक छोटी सी मदद चाहिए थी. कुछ खो गया है मेरा ढूंढने में मेरी मदद कर देंगे? हाँ हाँ बहुत ज़रुरी चीज़ है, कोई अहम चीज़ न होती तो नाहक हीं क्यूँ परेशान करती आपको? उसकी अहमियत? मेरे दिल से पूछिए तो मेरी आज़ादी, मेरा स्वावलंबन, मेरा स्वाभिमान सब कुछ तो है वो और आपके समझने वाली किताबी भाषा में बोलूँ तो मेरा “मौलिक अधिकार”. क्या कहा आपने, मुझे पहले खुद प्रयास करनी चाहिए थी? मैंने बहुत प्रयास किया, कसम से हर जगह ढूंढा पर कहीं नहीं मिला.

हाँ सच कहती हूँ मैं स्कूल गयी मैं कॉलेज भी गयी अपने बराबरी का अधिकार, अपनी शिक्षा का अधिकार ढूंढने पर . . . क्या बताऊँ मुख्य द्वार पर हीं रोक दिया गया. नहीं नहीं किसी ने खुद आकर नहीं रोका पर वहाँ केवल सीढियाँ हीं सीढियाँ थीं कोई रैम्प नहीं जिससे मैं या मेरे जैसे और भी व्हील्चेयर इस्तेमाल करने वाले लोग, कैलिपर, बैसाखियों वाले या फिर दृष्टि बाधित लोग जा सकें. हाँ एक कॉलेज में रैम्प जैसा कुछ देख के आशा जगी कि शायद यहाँ मिल जाए मेरे अधिकार लेकिन वह भी ऐसा रैम्प था कि चढ़ने का प्रयास करते हीं व्हीलचेयर के साथ लुढक कर सड़क पर गीर गयी. फिर भी मैं वापस नहीं लौटी, एक राहगीर से मदद ले कर अंदर गयी . . . क्या आप विश्वाश करेंगे अंदर एक भी कमरा जी हाँ एक भी कमरा ऐसा नहीं था जिसमें मेरे जैसे विकलांग छात्र-छात्राएं जा सकें और जब हमारे पढ़ने के लिए कक्षाएं हीं नहीं तो शौचालय ढूँढना तो बेवकूफी हीं है. मन में एक बात आई ‘क्या ये शिक्षण संस्थान ये मान कर बनाये जाते हैं कि हमारे देश में विकलांग छात्र है हीं नहीं? क्या ऐसा सोच कर वो हमारे मौलिक अधिकारों का हनन नहीं कर रहे?’
 

क्या? पत्राचार से घर बैठे डिग्री ले लेने के बाद मेरी लाइफ सेट है? सरकारी नौकरी की बात कर रहे हैं? हा हा हा हा ... माफ कीजियेगा, आप पर नहीं हँस रही, बस हँसी आ गयी वो कहते हैं न ‘ज़न्नत की हकीकत हमें भी मालुम है ग़ालिब, दिल बहलाने को ये ख़याल अच्छा है’. पहले सबकी बातें सुन सुन कर मैं भी कुछ ऐसा हीं सोचती थी और मैंने तो एक नौकरी के लिए फॉर्म भरा भी था. सचमुच विकलांगो के लिए एक अलग सेंटर दिया था उन लोगों ने, और पता है उस सेंटर की खासियत क्या थी? खासियत ये थी कि एक भी कमरा निचली मंजिल पर नहीं था, सभी को सीढियाँ से उपरी मंजिलों तक जाना था. कोई गोद से जा रहा था तो कोई ज़मीन पर घिसटते हुए. जब आगाज़ ये था तो अंजाम की कल्पना तो की हीं जा सकती है. विश्वाश नहीं हो रहा? अरे कोई बात नहीं मेरा विश्वाश ना कीजिये सरकारी दफ्तरों के एक चक्कर लगा के देख लीजिए खुद नज़र आ जायेगा कि उन दफ्तरों की संरचना कितनी सुगम है. कोई भी बैंक, ए०टी०एम, पोस्ट ऑफिस कहीं भी जा कर देख लीजिए कि विकलांगो चाहे वो कर्मचारी हो या कोई और किसी के लिए भी आने जाने का रास्ता बना है कहीं? अगर बराबरी का अधिकार है तो कहाँ है? नज़र क्यूँ नहीं आता?

जी क्या बोला आपने? मेरा दिमाग गरम हो गया है? थोड़ी ठंढी हवा खा लूँ? हाँ ठीक है पँखा चला लेती हूँ पर ठंढी हवा से याद आया सभी कहते हैं प्राकृतिक हवा स्वास्थ के लिए बहुत लाभकारी होती है और यही सोच कर मैं भी और लोगों की तरह पार्क गयी थी लेकिन देखिये ना इतने सारे पार्क सब के लिए 3-3, 4-4 गेट बने हुए हैं पर उसमें से एक भी गेट विकलांगो की सुगमता के लिए नहीं.

विकलांगो को और लोगों से बढ़ कर सुविधा दी जाती है? करोड़ों रूपए खर्च होतें है? आप भी न, नेताओं वाली भाषा बोलने लगे. हाँ बाबा जानती हूँ निशक्तता पेंशन अलग अलग राज्यों में अलग अलग योजनाओं के तहत बांटे जाते हैं. पिछले साल मुझे भी मिले थे (इस बार वाले का कुछ पता नहीं) पर तीन सौ रूपए महीने में कौन कौन सा खर्च निकल जाएगा? मैं ये बिलकुल नहीं कह रही कि इस राशि को बढ़ाया जाय मैं क्या कोई भी नहीं कहता. कहना तो ये है कि बंद हो जाए ये पैसे लेकिन बदले में हमें हमारे मौलिक अधिकार मिले. स्कूल, कॉलेज, दफ्तर सभी सार्वजनिक स्थल ऐसे हों कि हम अपनी मर्ज़ी से स्वाभिमान के साथ कहीं भी जाएँ, अपनी प्रतिभा, अपने हुनर से अपनी जीविका के लिए खुद कमा सकें. किसी एक अंग के कमज़ोर या न होने के कारण हम ‘निशक्त’ हैं यह एक ग़लतफ़हमी है.

कहने के लिए तो ट्रेन में सफर करने के लिए किराए में छूट दी जाती है पर इस छूट का क्या फायेदा जब ट्रेन के डब्बे ऐसे हों जिनमें हम खुद जा हीं न सके, जिसका शौचालय हमारे उपयोग के लायक हो हीं नहीं? ट्रेन में सफर करने के लिए भी बाकी लोगों के टिकट तो घर बैठे ऑनलाइन बनाये जा सकते हैं पर विकलांगो का टिकट तो काउंटर पर जा कर ही बनेगा. मेधा छात्रवृति की बात हो तो भी बाकी छात्र तो अपने अपने कॉलेज में हीं फॉर्म भर लेते हैं लेकिन विकलांग छात्रों को एक दूसरी जगह से फॉर्म मिलता है वो भी जमा करने खुद जाना होता है. क्या इसी को बराबरी का अधिकार कहते हैं? कहने को तो अभी बहुत कुछ है पर कहूँगी सिर्फ इतना कि मेरे सारे मौलिक अधिकार ढूंढ के ला दीजिए. हर जगह देख लिया नहीं मिला लेकिन अब रहा नहीं जाता कहीं से भी मुझे मेरे अधिकार चाहिए.   

...आलोकिता  

बुधवार, 9 अक्टूबर 2013

एक खुशख़बरी है

कभी कविता तो कभी लेख, कभी ग़ज़ल तो कभी कहानी अलग अलग रूपों में अक्सर ही इस ब्लॉग पर 
आपसे अपने विचार, अपनी भावनाएँ, अपने जज़्बात सब साझा करती आई हूँ | आज एक खुशख़बरी साझा करनी है, कहते है ना बाँटने से खुशियाँ बढ़ती हैं| वैसे तो इस खुशख़बरी से मैं सीधे तौर पर जुड़ी हूँ लेकिन यह केवल मेरी निज़ी खुशी नही है, ये तो हमारे पूरे देश के लिए एक खुशी की खबर है| तो दोस्तों वो खुशी की खबर ये है कि हमारे देश में सकारात्मक बदलाव की एक ठंढी बयार बह रही है| हमारा देश, हमारा समाज बदल रहा है, बदल रहे हैं लोगो के सोच और उनका नज़रिया| पूर्णता और अपूर्णता के बीच की दीवार में पड़ने लगी है दरार और खुलने लगे हैं कुछ दरवाज़े सबके लिए जो कल तक समाज के एक ख़ास वर्ग के लिए बंद थे| पता है आपको इस साल से पहली बार हमारे देश में मिस इंडिया सौंदर्य प्रतियोगिता आयोजित की जा रही है शारीरिक रूप से अक्षम लड़कियों के लिए | पूरे देश की अक्षम लड़कियों को दिया जा रहा है ये मौका खुद को साबित करने का, ये एहसास करने का मौका क़ि वे भी खूबसूरत है | खूबसूरती केवल शारीरिक आकर्षण का नही, खूबसूरती जो छुपी है उनके अंदर- जज़्बातों की खूबसूरती, खयालतों की खूबसूरती | यह प्रतियोगिता केवल खूबसूरती नही बौद्धिक क्षमता का भी आंकलन करेगी | चौबीस नवंबर को मुंबई में होगा इस प्रतियोगिता का अंतिम चरण जिसके बाद चुन ली जाएगी हमारे देश की पहली मिस व्हीलचेयर इंडिया |

जैसा कि मैने पहले कहा कि इस खुशख़बरी से मैं भी सीधे तौर पर जुड़ी हूँ, तो चलिए वो निज़ी खुशी भी आपसे साझा कर लूँ| मेरे एक दो पुराने पोस्ट्स से शायद कुछ लोगो को ये मालूम होगा कि मैं भी व्हीलचेयर के बगैर खड़ी नही हो सकती| बचपन से कभी ये सोचा नही था की मैं 'आलोकिता' कभी किसी सौंदर्य प्रतियोगिता का हिस्सा भी बन सकती है, पर आज मैं उन छत्तिस लड़कियों में से एक हूँ जिनके लिए अभी जनता के मतदान लिए जा रहे हैं| मुंबई जाने के लिए अभी मुझे आप लोगो के सहयोग की आवश्यकता है| मेरा मानना है कि मेरी रचनाएँ हीं मेरी पहचान हैं और ये ब्लॉग जगत मेरी पहचान से भली-भाँति वाकिफ़ है | ना सिर्फ़ मेरी तस्वीर देख कर बल्कि मेरी रचनाओं के आधार पर आप ये सोच कर बताएँ की क्या मैं उस काबिल हूँ की भारत की पहली मिस व्हीलचेयर इंडिया बन सकूँ? अगर हाँ तो अपनी सहमति जताने के लिए voting.misswheelchair@gmail.com  इस आई डी पर एक छोटा सा मेल भेजें, जिसमें लिखना है आपका नाम(भेजने वाले का), जगह और Contestant no.12 जो की मेरा कोड है|
 

















आप अगर चाहें तो इस Link पर जा कर इस प्रतियोगिता की पूरी जानकारी ले सकते हैं ।

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

बहन-रक्षा का प्रण लेने की जरुरत नहीं


अभी पिछले हीं दिन अखबार में छपी एक खबर में पढ़ा था बारहवीं की एक छात्रा के साथ हुए सामूहिक बलात्कार के मुख्य नामजद अपराधी प्रशांत कुमार झा तीन बहनों का भाई है, उसकी बहन के बयान से शर्मिंदगी साफ़ झलक रही थी और छोटी बहन तो समझ भी नहीं पा रही उसके भाई ने किया क्या है | बस यही सोच रही थी की आज राखी के दिन क्या मनः  स्थिति होगी ऐसी बहन की जिसका भाई बलात्कार के जुर्म में जेल गया हो ...............

तेरे हिस्से की राखी आज जला दी मैंने 
इस बंधन से तुझको मुक्ति दिला दी मैंने 
अफ़सोस तेरी बहन होने के अभिशाप से छुट ना पाउंगी 
अपनी राखी की दुर्बलता पर जीवन भर पछ्ताउंगी 
मुझ पर उठी एक ऊँगली, एक फब्ती भी बर्दास्त ना थी 
सोचती हूँ कैसे उस लड़की का शील तुमने हरा होगा ?
वर्षों का मेरा स्नेह क्यूँ उस वक़्त तुम्हे रोक सका नहीं? 
क्यूँ एक बार भी उसकी तड़प में तुम्हे मेरा चेहरा दिखा नहीं?
इतनी दुर्बल थी मेरी राखी तुझको मर्यादा में बाँध ना सकी 
शर्मशार हूँ भाई, कभी तेरा असली चेहरा पहचान ना सकी
उधर घर पर माँ अपनी कोख  को कोस कोस कर हारी है
तेरे कारण हँसना भूल पिता हुए मौन व्रत धारी हैं 
सुन ! तेरी छुटकी का हुआ सबसे बुरा हाल है 
अनायास क्यूँ बदला सब, ये सोच सोच बेहाल है
छोटी है अभी 'बलात्कार' का अर्थ भी समझती नहीं 
हिम्मत नहीं मुझमे, उसे कुछ भी समझा सकती नहीं 
पर भाई मेरे, तु तो बड़ा बहादुर है, मर्द है तु 
उसको यहीं बुलवाती हूँ , तु खुद हीं उसको समझा दे 
बता दे उसे कैसे तुने अपनी मर्दानगी को प्रमाणित किया है 
और हाँ ये भी समझा देना प्यारी बहना को, वो भी एक लड़की है 
किसी की मर्दानगी साबित करने का वो भी जरिया बन सकती है 
अरे ये क्या, क्यूँ लज्जा से सर झुक गया, नसें क्यूँ फड़कने लगीं ?
यूँ दाँत पिसने , मुठ्ठियाँ  भींचने से क्या होगा ?
कब-कब, कहाँ-कहाँ, किस-किस से रक्षा कर पाओगे?
किसी भाई को बहन-रक्षा का प्रण लेने की जरुरत नहीं 
खुद की कुपथ से रक्षा कर ले बस इतना हीं काफी है 
जो मर्यादित होने का प्रण ले ले हर भाई खुद हीं 
किसी बहन को तब किसी रक्षक की जरुरत हीं क्या है?  

   

बुधवार, 21 मार्च 2012

बिहार अपनी नज़रों से . . . . .

 छलछलाई हुई आँखों के साथ जब आज अपने मन की बातें आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ तो मुझे शब्द हीं नहीं मिल रहे उनको व्यक्त करने के लिए . . . । कहाँ से शुरू करूँ और कहाँ विराम दूँ अपने शब्दों को ? कैसे समेट लूँ अपने सारे जज्बातों को चंद शब्दों में ? अपने सौवें वर्षगाँठ पर अपने बच्चों का उत्साह देखकर जो हर्ष की अनुभूति  हो रही है उस को व्यक्त कर पाना बहुत मुश्किल है । अपने सौ वर्ष की जिन्दगी में बहुत से उत्थान पतन देखे हैं मैंने , कई अनुभवों से गुज़रा हूँ । एक बात दिल में कई दिनों से दफ्न है जो आज व्यक्त कर देना चाहता हूँ । भले हीं मेरे नाम के साथ 'पिछड़ा और गरीब राज्य' का तमगा हो लेकिन गर्व है मुझे इस बात का की अभावों में जीने के बावजूद भी मेरे बच्चे किसी से कम नहीं और इस बात को सिद्ध करके उन्होंने हमेशा मुझे गौरवान्वित किया है । हर्ष होता है ये कहते हुए की पूरे देश को अगर कोई राज्य सबसे अधिक आई.ए.एस और आई.पी.एस देता है तो वो हूँ मैं "बिहार"। मेरे इन सपूतों से तो सभी वाकिफ हैं पर इनके अलावा और भी मेरी गोदी के लाल हैं जो खुद अंधेरों में होने के बावजूद औरों की जिंदगियों को आलोकित करते हैं । कई ऐसे हैं जिनके हाथ स्वयं खाली हैं पर फिर भी उनका रोम रोम समाज को समर्पित है । हर किसी से मिलवा पाना संभव नहीं पर आइये मिलवाता हूँ आपको मेरी अनंत गहराइयों के कुछ अनमोल मोतियों से . . . . .

आज पुरे विश्व में एक दुसरे से आगे बढ़ने के लिए गलाकाट प्रतिस्पर्धा मची हुई है , लेकिन ऐसे भी लाल हैं मेरी माटी के जो खुद आगे बढ़ तो सकते हैं पर मानवता उनके स्वार्थ पर हावी होती है और वो पीछे मुड़ कर दूसरों को आगे बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं । उदाहरण के तौर पर बनियापुर, सारण का छबीस वर्षीय शशांक और चकदरिया, वैशाली का सत्ताईस वर्षीय मनीष दोनों मित्र आई.आई.टी (क्रमशः दिल्ली और खड़गपुर )से पास होने के बाद मोटे वेतन को ठुकराकर लौट आये गाँव की राह पर और फ़ार्म एंड फार्म्स नाम से संस्था खोली जो न  सिर्फ गरीब किसानो को वैज्ञानिक खेती के गुर बताती हैं बल्कि उनकी उपज को बाज़ार भी मुहैया कराती हैं । सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, बांका, पूर्णिया और रोहतास जिला के सत्तर गावों के किसानो का एक सशक्त नेटवर्क तैयार किया है उन्होंने और आज उनके पास आई.आई.टी और एन.आई.टी के छात्र इंटर्नशिप के लिए आते हैं । ऐसा हीं एक उदाहरण है दरभंगा का चालीस वर्षीय यतीन के सुमन जो विदेश में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने के बाद लन्दन की नब्बे हज़ार पौंड और फाइव स्टार होटल में रहने का प्रस्ताव ठुकरा कर अपने प्रदेश के विकास और समृधि के लिए लौट आया और पूरी कर्मठता से इस काम में जुटा है । ऐसे हीं एक डॉक्टर दंपत्ति प्रभात दास एवं सौम्या दास हैं जिन्होंने विदेश में रह कर पढ़ाई की लेकिन फिर भी बड़े शहरों और देशों के सुख सुविधाओं को त्याग कर दरभंगा जैसी छोटी जगह पर आकर न सिर्फ लोगों को स्वास्थ सुविधाएं उपलब्ध करायी बल्कि अपनी कमाई का दो बटे सात हिस्से को सामजिक कार्यों में लगाते हैं ।आरा के साठ वर्षीय डॉक्टर एस के केडिया गरीब जन्मांध बच्चों का न सिर्फ खुद मुफ्त इलाज करते हैं बल्कि विदेश से अपने खर्चे पर विशेषज्ञ डॉक्टर को बुलाकर भी बच्चों की मदद करते हैं ।  
  
इन सब के पास तो कुछ था समाज को देने के लिए लेकिन ऐसे भी अनगिनत नामों की सूचि है जिनकी झोली खाली है फिर भी इतना कुछ दिया और दे रहे हैं समाज को जिन्हें शायद उनका समाज कभी भी लौटा न पाए । भागलपुर के पचपन वर्षीय वशिष्ठ मल्लाह जिनका काम मछली पकड़ना है और एक मात्र कला जो उन्हें आती है वो है तैराकी और उसी के दम पर कई घरों के मसीहा बन चुके हैं । सुबह चार बजे से देर रात तक गंगा में डूबने वालों की जिन्दगी बचाते हैं और जरुरत पड़ने पर उन्हें अस्पताल तक अपने खर्चे से पहुंचाते हैं ।रिंग बाँध, सीतामढ़ी के सडसठ वर्षीय बद्रीनारायण कुंवर कुष्ठ रोग की वजह से इनकी आँखे चली गयी, गाँव से निष्कासित कर दिए गए, दोनों बच्चे असमय चल बसे लेकिन इन्होने कुष्ठ कॉलोनी के हर बच्चे को अपना मान कर वहाँ ज्ञान की ज्योति जलाई । डुमरा, समस्तीपुर के पैंतालिस वर्षीय राजकिशोर गोसाईं जिनके पास मात्र दस डिसमिल जमीन थी जिसे उन्होंने गाँव के बच्चो की खातिर स्कुल बनवाने के लिए दान कर दिया । दोनों पैरों से विकलांग राजकिशोर जी डोरी-धागा बेच कर बड़ी मुस्किल से अपना जीवन यापन करते हैं पर उन्हें  अपनी ज़मीन का कोई अफ़सोस नहीं । जमालपुर, मुंगेर के पैंतालिस वर्षीय रेलवे तकनीशियन सहदेव पासवान ने हजारों बच्चे जिनकी पढाई अधूरी छुट गयी उनको मुफ्त पुस्तकालय दे कर आगे बढ़ने का राह दिखाया और इस पुस्तकालय की वजह से साढ़े तीन सौ से अधिक बच्चे सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं के अच्छे पदों पर आसीन हैं । समस्तीपुर के बयासी वर्षीय राम गक्खर पच्चीस वर्षों से लगातार हर रोज़ गरीब बच्चों को खिला रहे हैं ताकि वो भीख मांगने को विवश न हो, पापी पेट के लिए चोरी करना न सीखें । अगरवा मोतिहारी की पैंतीस वर्षीय सुगंधी देवी के जीविकोपार्जन का एक मात्र साधन है सदर अस्पताल के पास की उसकी छोटी सी चाय दूकान लेकिन खुद आर्थिक तंगी के बावजूद वो अस्पताल के बेसहारा मरीजों को हर संभव मदद देती हैं भले उसके लिए उन्हें उधार लेकर खुद क्यूँ न चुकाना पड़े । पुपरी, सीतामढ़ी के क्रमशः सैंतीस और चौंतीस वार्स के दिलीप कुमार तेम्हुआवला और अरुण कुमार तेम्हुआवला ने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया है कालाजार पीड़ितों के लिए । डुमरी गया के चौंतीस वर्षीय सच्चिदानंद सिंह उर्फ़ नंदा जी ने नक्सल बस्ती में मुफ्त स्कुल खोल कर हथियारों वाले हाथों में शिक्षा की मशाल थमा दी, महिलाओं के लिए ट्रेनिंग कैम्प चलाते हैं और जल्द हीं पटना के यारपुर डोमखाना में भी स्कुल खोलने वाले हैं । मो. निशांत, मो.शमशाद और मो. सुहैल जैसे भी लोग हैं जो बिना किसी अपेक्षा के मृत व्यक्तियों का साथ निभाते हैं , जी हाँ मृत व्यक्तियों का ऐसे मृत लोग जिनका दुनिया में कोई नहीं हर उस लावारिश लाश का अंतिम संस्कार  करते हैं ये लोग अपने खर्चे पर । मुसलमानों को सुपुर्द-ए-ख़ाक और हिन्दुओं का उनकी रीती रिवाज के अनुसार अंतिम संस्कार किया जाता है जिसमें इनकी मदद इनके कुछ हिन्दू मित्र करते हैं । बीवी मुहम्मदी जो खुद तो खड़ी भी नहीं हो सकती, ज़मीन पर घिसटती हुई गुज़ार रही है अपनी जिन्दगी पर अपनी अपंगता और गरीबी की वजह से जब वह स्कुल नहीं जा पायी उसी दिन उसने सोच लिया था की ऐसा किसी और के साथ नहीं होने देगी । अपनी मेहनत और लगन से घर पर हीं पढ़ कर आज सैंकड़ो गरीब बच्चों को शिक्षा प्रदान कर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होना सिखा रही है । उसके जज्बे को सम्मानित करने के लिए मुख्यमंत्री खुद स्टेज से उतर कर उसके पास आये  और लाखों लोग एक अक्षम कि सक्षमता के साक्षी बने । मधुबनी की बेटी तथा कटिहार की बहु अडतालीस वर्षीय शैलजा मिश्रा ने हुस्न के बाज़ार की उन बदनाम गलियों से जहाँ रात के अंधेरों में तो जाने से कुछ मर्दों को कोई गुरेज़ नहीं पर दिन के उजाले में हवा भी जहाँ से कतरा के गुजरती है, उस रेड लाईट एरिया से पैसठ महिलाओं को निकाल कर सम्मान से जीना सिखाया । आज वो महिलायें इज्जत से कमा भी रही हैं और अपनी बेटियों को शिक्षित करके एक सभ्य समाज का हिस्सा भी बना रही हैं । इससे पहले शैलजा ने कदवा प्रखंड के महली टोला के गरीब आदिवासियों के जीवन में उजाला फैलाया, ईंट भट्ठों पर काम करने वाले बच्चों को स्कुल से जोड़ा महिलाओं को बांस के उत्पादों से आत्मनिर्भर बनाया । बरारी प्रखंड के सुजापुर स्थित टेराकोटा गाँव को आत्मनिर्भर बनाया और कुम्हारों को उनके पुस्तैनी काम पर वापस ला कर अपनी संस्कृति को भी सम्मान दिया है ।

अभी तो बहुत लम्बी सूचि बाकी है मेरी मिट्टी के सपूतों की । ऐसे ऐसे लाल हों जिस गोदी में कोई उस गोदी को कंगाल कैसे कह सकता है ? अक्सर लोगों से सुना है और कहना चाहूँगा की गलत सोचते हैं वो लोग जो कहते हैं बिहार के पास सिर्फ उसका इतिहास है । आज गर्व से कह सकता हूँ मैं कि बिहार के पास सुनहरा इतिहास , सशक्त वर्तमान और उज्जवल भविष्य है ।

सोमवार, 19 मार्च 2012

प्रेम की निशानी,एक जादुई शहर..............

  
चलो दोस्तों आज आपको एक कहानी सुनाती हूँ | ये कहानी ना किसी राजा की है ना रानी की, नाहीं किसी जादुई दुनिया की बल्की ये कहानी है एक ऐसे शहर की जिसने अपनी गलिओं में ऐसी हजारों हज़ार कहानिओं को संगृहीत कर रखा है | ये कहानी है उस शहर की  जिसने कई प्राकृतिक, अप्राकृतिक आपदाओं को झेला पर आज भी हँसता हुआ खड़ा है कर्तव्य पथ पर अडिग एक सैनिक की भांति | भारत के गौरवशाली इतिहास में अति प्राचीन शहरों में गिना जाता है इस शहर को | पुरातात्विक विशेषज्ञों की माने तो आज से लगभग ढाई हज़ार वर्ष पूर्व जन्मा था यह शहर जिसे आज हम 'पटना' के नाम से जानते हैं | जी हाँ बिहार कि राजधानी 'पटना' हीं है वो शहर जिसका प्रमाणित इतिहास  शुरू होता है चार सौ नब्बे ईसा पूर्व यानि हर्यक वंश के शासक राजा अजातशत्रु के शासन काल से, जब उन्होंने रणनीतिक दृष्टिकोण से राजगृह (वर्तमान में राजगीर) से बदलकर अपनी राजधानी बनाया इस शहर को, लेकिन  इस शहर का वास्विक इतिहास तो और भी पुराना और रोचक है | 
दन्त कथाओं में पटना को जादू से उत्पन्न एक शहर के रूप में दर्शाया गया है जिसके जनक राजा पत्रक ने इसका निर्माण किया अपनी प्यारी रानी पाटली के लिए और इसी कारण इसे पाटलिपुत्र या पाटलिग्राम के नाम से जाना जाता था | इतिहास के पन्नो पर कई जगह इसका उल्लेख पुष्पपुर या कुसुमपुर के रूप में भी मिलता है क्यूंकि यहाँ दवा और इत्र के लिए गुलाब की खेती बहुतायत मात्रा में हुआ करती थी | सत्रह सौ चार ई० में मुग़ल बादशाह औरंगजेब ने अपने प्रिय पौत्र मुहम्मद अज़ीम जो कि उस वक़्त पटना का सूबेदार हुआ करता था के अनुरोध पर इसका नाम अजीमाबाद रखा |
इसके विभिन्न नामों से परिचित हो जाने के बाद आइये अब चलते हैं इतिहास कि गलिओं में और भी नज़दीक से जानने इस प्रेम की निशानी जादुई शहर को जो बसा है गंगा के किनारे सोन आर पुनपुन नदिओं के संगम पर | कहते हैं बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध ने अपने आखिरी समय में यहाँ से गुज़रते हुए कहा था कि इस शहर का भविष्य उज्जवल तो है पर कभी बाढ़, आग या आपसी संघर्ष की वजह से यह बर्बाद भी हो जायेगा | मौर्य साम्राज्य के उत्कर्ष के बाद से ही पाटलिपुत्र लगातार सत्ता का केंद्र बना रहा | मौर्य के बाद कई राजवंशों के राजाओ ने यहीं से पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर शासन किया | गुप्तवंश के शासनकाल को प्राचीन भारत का स्वर्णयुग कहा जाता है पर इसके बाद पाटलिपुत्र को वह गौरव प्राप्त नहीं हुआ जो मौर्य काल में प्राप्त था |गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद बख्तियार खिलजी ने यहाँ अपना आधिपत्य जमा लिया और कई आध्यात्मिक प्रतिष्ठानों को ध्वस्त कर दिया फलस्वरूप पटना अपने देश का राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्र ना रहा लेकिन फिर भी मुग़ल काल के सत्ताधारियों ने इस पर अपना नियंत्रण बनाये रखा | शेरसाह सूरी ने जीर्ण पड़े शहर का पुनर्निर्माण करने कि सोची, गंगा तीर उन्होंने किला बनवाया | उनका बनवाया एक भी दुर्ग तो अब नहीं है पर अफगान शैली में निर्मित एक मस्जिद अब भी है | अफगान सरगना दाउद से युद्ध के  दौरान मुग़ल बादशाह अकबर भी यहाँ आयें थे |
पाटलिपुत्र का प्रथम लिखित विवरण यूनानी इतिहासकार मेगास्थनीज़ ने दिया | कहते हैं शुरुआती दौर में पाटलिपुत्र पुर्णतः लकड़ियों का बना हुआ शहर था फिर सम्राट अशोक ने बाद में इसे शिलाओं कि संरचना में तब्दील किया | इन संरचनाओं का जिवंत विवरण चीन के फाहियान द्वारा लिखे भारत के उनके यात्रा वृतांत में मिलता है | कौटिल्य ने अर्थशास्त्र और विष्णु शर्मा ने पंचतंत्र कि रचना यहीं पर कि थी | अकबर के राज्य सचिव तथा आइन-ए-अकबरी के लेखक अबुल फज़ल ने पटना को कागज़, पत्थर तथा शीशे का संपन्न औद्योगिक केंद्र के रूप में वर्णित किया है | इन्ही विवरणों में यूरोप में प्रचलित पटना राईस नाम से चावल कि कुछ नस्लों कि  गुणवत्ता का भी वर्णन मिलता है | अंग्रेजों के शासनकाल के दौरान यहाँ रेशम तथा कैलिको के व्यापर के लिए फैक्ट्री खोली गई और जल्द हीं यह सौल्ट पीटर(पोटैसियम नाइट्रेट) के व्यापर का एक अहम् केंद्र बन गया | ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधीन जाने के बाद यह व्यापर का महत्वपूर्ण केंद्र बना रहा | उन्नीस सौ बारह में बंगाल विभाजन के बाद यह बिहार तथा उड़ीसा कि राजधानी बना | फिर उन्नीस सौ पैंतीस में जब उड़ीसा को भी विभाजित कर एक अलग राज्य बनाया गया तब भी पटना बिहार कि राजधानी बना रहा और आखिरकार दो हज़ार में जब बिहार पुनः बिहार और झारखण्ड दो राज्यों में बटा तब भी पटना ने अबतक राजधानी के रूप में अपना स्थान बरक़रार रखा है | 
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी नगर ने अहम् भूमिका निभाई है | नील कि खेती के विरोध में चंपारण आन्दोलन और उन्नीस सौ बयालीस का भारत छोडो आन्दोलन उलेखनीय है | इसी उन्नीस सौ बयालीस के भारत छोडो आन्दोलन के दौरान विधान सभा भवन के ऊपर तिरंगा फहराने की कोशिश में सात बहादुर स्कूली बच्चे भी शहीद हुए जिनकी स्मृति में पंद्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालिस को शहीद स्मारक कि नीव रखी गई और आज भी आदम कद कि ये मूर्ति इतिहास कि गवाह के रूप में विधान सभा के मुख्य द्वार पर खड़ी है |
इस शहर के वास्तु को ऐतिहासिक क्रम में तीन खंडो में बांटा जा सकता है :- मध्य पूर्व भाग अर्थात कुम्हरार के आसपास मौर्य तथा गुप्त सम्राटों का महल, पूर्वी भाग अर्थात पटना सिटी के आसपास शेरशाह तथा मुगलों के काल का नगर क्षेत्र तथा बांकीपुर और उसके पश्चिम में बतानी हुकूमत के दौरान बसाई गई नई राजधानी |
भारतीय पर्यटन मानचित्र पर भी पटना का प्रमुख स्थान है, आधुनिक के साथ साथ कई ऐतिहासिक दर्शनीय पर्यटन स्थल भी हैं यहाँ जो कि इतिहास कि कई घटनाओं के साक्षी हैं | अभी और भी बहुत कुछ है कई हज़ार कहानिओं के ताने बाने से जुडा है यह शहर जिन्हें एक बार में बता पाना बहुत मुश्किल है | सिर्फ पटना नहीं पुरे बिहार को नज़दीक से जानने के लिए पढ़ते रहिये लेखों की एक ख़ास श्रृखला जो बिहार शताब्दी वर्ष के ख़ास मौके पर समर्पित है मेरे बिहार को ........................
जय हिंद ! जय बिहार !! 
शहीद स्मारक 


रविवार, 30 जनवरी 2011

ए गाँधी बाबा


बहुत दिन क्या कई सालों से कविता लिख रही हूँ कुछ लोगों की सलाह थी अपनी भोजपुरी में भी लिखा करो यह पहली कोशिश है |

देखअ ए गाँधी बाबा देशवा बेहाल भ गइल
सबके ईमान के भ्रष्टाचार खा गइल
अहिंसा के सभे हथियार बदनाम भ गइल
हिंसा के नाया तरीका अब त हड़ताल भ गइल

चिंता रहे राउर की देशवा लुटाता
अभियो त पइसा ले के स्विस बैंक भराता
गरीबी लाचारी त अभियो बा देश में
गुलामी बहुते बा अभियो  इ  देश में

गोली तू खइले रहअ का इहे देश खातिर ?
अहिंसा सीखअवले रहअ इहे दिन खातिर ?
बैरिस्टर होके चरखा चलवले रहअ इहे देश खातिर ?
सबकुछ त्याग के धोती अपनवले रहअ इहे दिन खातिर ?

साल के दू दिन बाबा बहुते पूजा ल
पेपर आ टी.भी का सगरो छा जा ल
अउर दिनअ त नम्बरी दस नम्बरी सुझाला
नकली की असली खाली इहे बुझाला

............................... हिंदी अनुवाद  .................................

देखिये गाँधी जी देश की बदहाली को
भ्रष्टाचार ने सबके ईमान को निगल लिया है
अहिंसा के सभी हथियार बदनाम हो चुके हैं
हड़ताल भी अब हिंसा का हीं एक नया रूप है

आपकी चिंता थी की देश को लुटा जा रहा है
देश का पैसा तो अब भी स्विस बैंक में जा रहा है
गरीबी अउर लाचारी तो अब भी है यँहा
आजाद देश के नागरिक अब भी गुलाम हैं

क्या इसी देश के लिए आपने गोली खाई थी
अहिंसा का पथ इसी दिन के लिए पढाया था ?
बैरिस्टर हो कर भी आपने चरखा चलाया इसी देश के लिए ?
सबकुछ त्याग कर धोती को अपनाया क्या इसी दिन के लिए ?

साल के दो दिन तो आप काफी पूजे जाते हैं
पेपर टी वी हीं क्या हर जगह छाये रहते हैं
बाकी दिन तो नोट पर भी सौ या हज़ार हीं नज़र आता है
आपके फोटो पर भी ध्यान सिर्फ असली नकली की पहचान के लिए हीं जाता है 

शनिवार, 1 जनवरी 2011

नए साल में कुछ नया करें


चलो नए साल में कुछ नया करें ,
सबके जीवन में नए रंग भरें |


किसी के आँसु पोंछें,
किसी को मुस्कान दे दें |


धूप में किसी को साया ,
किसी गिरते को सहारा दे दें |


मानवता के उत्थान  हित,
कुछ और नहीं तो दुआ दे दें |


उपेक्षित जनों को ,
चाहत का दरिया दे दें |


लोभ, द्वेष को छोड़ ,
घृणा को तिलांजलि दे दें |


दुखी किसी जान को ,
खुशियों कि होली दे दें |


गुमनाम अंधेरों को ,
जगमगाती दिवाली दे दें |












दबे कुचलों को ,
बुलंद आवाज़ दे दें |


किसी मायूस जीवन को ,
मधुर सुरों का साज दे दें |





शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

ढलते सूर्य को मेरा नमन


पुराना साल जाने को है और नए साल का पदार्पण होने हीं वाला है | साल का आखिरी सूर्य अस्त होगा और नयी आशाओं को लिए बालारुण पूर्वी क्षितिज से उदीत होगा | क्या जा रहा है और क्या आएगा ? कुछ भी तो नहीं | अपनी सहूलियत के लिए बनाये गए इन सालों का आवागमन बस दर्शाता है गतिमान समय को, जो बढ़ता हीं जायेगा, बढ़ता हीं जायेगा |
उगते सूर्य को तो हम हमेशा सलाम करते हैं , अर्ध्य चढाते हैं | ऐ अस्त होते सूर्य जरा ठहर जा आज तुझे भी अर्ध्य चढ़ा लूँ | मुझे पता है तू न ठहरा है और न ठहरेगा पर अपनी मानव प्रवृति से लाचार मैंने तुझे ठहरने को कह दिया बस अपनी संतुष्टि  के लिए | इससे पहले कि तू पश्चिमी क्षितिज में जाकर विलीन हो जाए, मैं पूरे साल को संजो लेना चाहती हूँ अपनी यादों कि डायरी में | तू हीं जब साल का पहला सूर्य बन कर आया था तो हमने भव्य स्वागत किया था,और कल फिर जब तू नए साल का सूर्य बन कर आएगा तो तेरा स्वागत किया जायेगा | जब नए साल का आगमन हुआ तभी से पता था कि यह चला भी जायेगा | जाने फिर क्यूँ मान बेचैन हुआ जाता है | लगता है जैसे कुछ पीछे छुटा जा रहा है | सोचती हूँ कि मैं आगे बढ़ गयी, तू पीछे छुट गया या तू समय कि चाल से आगे बढ़ गया और मैं पीछे रह गयी ?
बहुत सी नयी खुशियाँ दी है तुने मुझे जिसे मैं कभी भूल नहीं सकती जाते हुए कुछ आँसु भी दिए उन्हें भी नहीं भुलाया जा सकता | तू पूरी तरह से बस गया है मेरी यादों में | ऐ जाते हुए साल, ढलते हुए सूर्य मेरा नमन स्वीकार कर | 

शनिवार, 25 दिसंबर 2010

MERRY CHRISTMAS

WISH U ALL A MERRY CHRISTMAS. आज के दिन हर साल मुझे अपने बचपन का स्कूल और वो प्यारी प्यारी सिस्टर्स बहुत अधिक याद आती है | समाज सेवा में लगी उन साध्वी स्त्रियों का नाम जेहन में आते हीं श्रद्धा से नतमस्तक हो जाती हूँ | आज लगता है कि जिन्दगी का वह बहुत बुरा दिन था जब चौथी कक्षा में मैंने वो स्कूल छोड़ा था | आज तो मुझे उस स्कूल कि बहुत याद आ रही है और उन्ही यादों को मैं आपके साथ साझा करना चाहती हूँ |
हर साल क्रिसमस के दिन हमलोग अपने हाथ से ग्रीटिंग कार्ड बनाते थे | ख़रीदा हुआ कार्ड सिस्टर लेती नहीं थी | छुट्टी  के बावजूद इस दिन हमलोग कार्ड लेकर स्कूल जाते थे, वहाँ सिस्टर्स टॉफी देती थी चर्च में ले जाती थी और बाईबल पढ़कर सुनाती थीं| समझ में तो नहीं आता था पर बहुत ध्यान से सुनते थे हम सभी | उसके बाद हमलोग मौली मिस के घर जाते थे कार्ड देने | वहाँ केक मिलता था और बहुत तरह का केरेलियन व्यंजन (एक का नाम उत्पम या अच्पम कुछ ऐसा ही नाम था ) 
मौली  मिस, रूबी सिस्टर, नीलिमा सिस्टर, सेव्रिन सिस्टर, संध्या सिस्टर और सबसे प्यारी जोश्लिन सिस्टर I MISS YOU ALL A LOT.
रूबी सिस्टर जब भी किसी बच्चे को मारती थी तो अगले दिन टेंशन से उनकी तबियेत ख़राब हो जाती थी | जोश्लिन सिस्टर ....... उनकी बातें तो हमारे लिए तो उनकी बातें तो हमारे लिए पत्थर का लकीर हुआ करती थी | वे कभी डांटती नहीं थीं पर उनकी बातों में वो जादू था कि कभी भी उनकी बातों कि अवहेलना नहीं करते थे हमलोग | हँसी हँसी में ही वे अक्सर ऐसी छोटी छोटी बातें कह जाती थीं जो जिन्दगी के लिए काफी बड़ी बातें हैं | आज भी उनकी बातें याद हैं मुझे और जीवन के कई मोड़ पर ये बातें मार्गदर्शन भी करती हैं |
सिस्टर्स कहती थीं कि सच्चे दिल से इश्वर से किसी और के लिए (निस्वार्थ भाव ) कुछ मांगो तो जरुर  मिलता है | आज मैं उस इश्वर से यह प्रार्थना करती हूँ कि वे लोग जहां कहीं भी हो , जहां भी उनका स्थानांतरण  हुआ हो वे हमेशा हंसती मुस्कुराती रहें |
सिस्टर्स का सबसे प्रिये गाना जो हमे बचपन में सिखाया था उन्होंने :-
GOD'S LOVE IS SO WONDERFUL
OOOO WONDERFUL LOVEEEEE
IT'S SOOO HIGH, SO HIGH
WE CANT GET OVER IT
OOOO WONDERFUL LOVE
IT'S SO DEEP , SO DEEP 
WE CANT GET UNDER IT
OOOO WONDERFUL LOVE
IT'S SO WIDE, SO WIDE
WE CANT GET AROUND IT 
OOOO WONDERFUL LOVE
ये सोंग तो आज भी याद है और इसके सहारे याद आती है सिस्टर्स कि wonderful लव.................. 

रविवार, 12 दिसंबर 2010

SAY NO 2 CASTEISM

प्रणाम!!! क्या हुआ ?शीर्षक अंग्रेजी में देख कर असमंजस में पड़ गए का ?आज आलोकिता का स्टाइल इतना बदला बदला क्यूँ है ?दरअसल बात ये है न कि कल मेरे ब्लॉग का एक महीना पूरा हो गया इसीलिए आज हम सोचे कि कुछ स्पेशल लिखा जाए | कुछ रियल लाइफ का बात भी बताया जाय |अब जो बात जैसे हुआ है उसी भाषा में बताने में अच लगेगा न इसीलिए हम ग्रामर शुद्धता इ  सब छोड़ के बस जैसे बोलते हैं रियल लाइफ में वैसे हीं लिख दे रहे हैं |
हम एक ठोबात सोच रहे थे कि हम लोग के पूरा समाज का कथनी और करनी में केतना फर्क है न | किताब में हम लोग को का पढाया जाता है ?यही न कि जात-पात नहीं मानना चाहिए लेकिन जो टीचर चाहे मम्मी पापा हमलोग को no castism   वाला चैप्टर पढ़ाते हैं वही लोग न फिर castism भी सिखाते हैं | का गलत कहें ? अईसे तो कहा जाता है कि जात धरम नहीं मानना चाहिए सबको मिलजुल कर रहना चाहिए | हम इ पूछते हैं कि जब जात पात कुछ होइबे नहीं करता है सब इंसान एके है तो हम लोग को जात धरम के नाम पर बाँट काहे दिया जाता है?
कोई फॉर्म भरने चलो तो कोस्चन जरुर रहता है Candidate appearing for the exam belongs to 1.General  2.O.B.C  3.Sc/St.
बचपन से सिखाया जाता है कि जात पात मत मानो लेकिन 8th 9th तक पहुँचते पहुँचते स्कूल में cast certificate माँगा जाने लगता है | 10th के लिए 9th registration होता है न |अब शिक्षित बनना है तो बिना अपना जात जाने हुए बच्चा शिक्षित कईसे हो सकता है ?
जब हम छोटे बच्चे थे न तो इस मामले में बहुत बेवकूफ थे (इ मत समझिएगा कि अब ढेर तेज़ हो गए हैं ) इसके लिए बहुत मजाक भी उड़ा है |कभी कोई दोस्त की मम्मी पुच देती की कौन जात हो बाबु मेरा तो मुँह बन जाता था | हँस के कह देते थे पता नहीं आंटी | अईसे देखती थी लगता था सोच रही है च्च्च बेचारी जात तक नहीं पता इसको |और फिर लगाती थी अपना जासूसी दिमाग 'अच्छा पापा का पूरा नाम क्या है '? धीरे धीरे जब बड़े होने लगे तो कोई कोई दोस्त लोग भी पूछने लगी | हमको इ सब से कुछ फर्क नै पड़ता था | लेकिन फर्क पड़ा जब teacher लोग भी पूछने लगे ? एकदम G.K.कोस्चन टाइप हो गया था ' कौन जात हो'?
संस्कृत में सबसे अच नंबर आया अचानक क्लास में श्लोक बोलवाए हम सब सही सही बोल दिए तो सर बहुत खुश हुए | शाबाशी देने के लिए बुलाये और पूछते हैं की श्लोक तो बहुत शुद्धता से बोली मिश्रा जी हो की झा जी (मेरे नाम में कोई सर नेम नहीं है न )वो खुद मिश्रा जी थे |हिंदी वाले झा सर लंच में बुला कर पूछते थे 'पापा सरकारी नौकरी में हैं न रे लालाजी हो क्या ?हम पूछे लालाजी को हीं सरकारी नौकरी मिलता है क्या सर ?बोले नहीं रे एदम पागले हो इधर लालाजी लोग जादे है नौकरी में न गेस कर रहे थे | लेकिन गजब पागल हो तुम १२ साल की लड़की इतना भी नहीं पता की कौन जात के हो |बहुत बुरा लगा था सर के बोलने का तरीका हमको | घर आते आते मम्मी से पूछे थे उस दिन की क्लिअर  क्लिअर  बताइए हमलोग किस कास्ट के हैं ?कौन सा कास्ट बड़ा होता है कौन सा छोटा सब बताइए | सर के कारण पूछ रहे हैं इ बात नहीं बताये मम्मी को काहे कि सर का बुराई करना हमको अच्छा नहीं लगता था | एक बार रविदास जयंती के दिन मेरी दो दोस्त (जुडुवा थी ) नहीं आई बोल के कि
कंही जाना है | गुप्ता सर G.K. वाले पूछे ये सीता गीता का जोड़ी कँहा गायब है ? जब हमलोग बोले कि कंही घुमने गयी है तो सर बोले आज तो रविदास जयंती है| जोशी टाइटिल से से हमको पते नहीं चला इ लोग के बारे में | इंग्लिश सर किसी से पूछते नहीं थे खली अपना बताते रहते थे कि हम श्रीवास्तव जी हैं | शिवपूजन सहाय रिश्ते में मेरे दादा लगते थे (कैसे कैसे वो हमको याद नहीं है )खैर क्लास ८ में मेरा कास्ट क्या है ?जबतक नहीं पता था तब तक तो ठीक था, अब पता चल गया और कोई कास्ट पर कमेन्ट करे तो बुरा तो लगता है न |मेरी एक दोस्त फॉरवर्ड कास्ट की थी क्लास में नीचे से फर्स्ट करती थी | बेचारी को पता नहीं था कि हम O.B.C.में आते हैं बोली पता है यार हमलोग को बहुत घाटा हो जाता है सब जो इ सब छोटा जात वाला सब होता है कम नंबर लाके भी आगे हो जाता है रेजेर्वेसन के चलते | हम लोग मेहनत कर करके मर जायेंगे तो भी पीछे हीं रह जायेंगे | चूँकि मन में इ बात आ चुका था कि हम O.B.C. हैं बुरा तो लगना निश्चित था न | हम बोले हाँ यार तेरे को तो बना बनाया बहाना मिल गया, छोड़ वो तो बहुत दूर की बात है क्लास में तो reservation नहीं है मेरे नंबर के आसपास आके दिखा दे | पर ये कटाक्ष उसके दिमाग से ऊपर था समझी नहीं | लड़ने का मूड नहीं था सो हम भी बात पलट दिए |
कहने के लिए तो जाती प्रथा ख़तम हो चुका है पर सच्चे दिल से सोचिये की का सही में ख़तम हुआ है ?कोई भी गुण-अवगुण आदमी का अपना होता है जाती से नहीं मिलता |
नेट में कंही भी साईन इन करने क लिए फर्स्ट नेम लास्ट नेम लिखना पड़ता है , हम तो लास्ट नेम कुछो रखे ही नहीं खाली आलोकिता |पर अपना नाम क साथ गुप्ता बोलने में अच्छा लगा तो लिख लिए लो रे भाई फिर कास्ट में बांध दिया गया | ३-४ गो फ्रेंड रिक्वेस्ट आया Hii! Alokita ji I'm a gupta 2 so add me....| अरे भाई मेरे इ मेरा फ्रेंड लिस्ट है गुप्ता कम्युनिटी थोड़े है |
आखिर कब तक मानवता के बीच में इ जातीयता का दीवाल खड़ा रहेगा ? कब तक ? जब तक हम सही तरीका से जातीयता से ऊपर नहीं उठेंगे धरम निरपेक्ष नहीं बन सकते और मानवता हा हा हा हा सोचना भी पागलपना है | है की नहीं ? है न |

रविवार, 14 नवंबर 2010

बालदिवस की वो यादें..........................

आज १४ नवम्बर है ना, चाचा नेहरु का जन्मदिन यानि की बालदिवस | आज मुझे अपने स्कूल की बहुत याद आ रही है, बहुत अधिक |यही तो वह दिन था जिस दिन बच्चा होना बुरा नहीं लगता था| बाकी साल के ३६४ दिन तो यही सोचा करते थे की हम बच्चे क्यूँ हैं ? काश की हम बड़े होते कितना अच्छा  होता | अरे यार अब तो हमारी हालत और ख़राब हो गयी है| ना बच्चों की तरह हमारी गलतियां ही माफ़ होती हैं ना बड़ो की तरह हम आज़ाद हीं हैं | खैर बचपन की बात करते हैं | कितना अच्छा लगता था वह बाल दिवस समारोह वो नाच गाना, भाषण बाजी, टॉफी चॉकलेट, वो चन्दन का टीका, वो गुलाब का फूल और सबसे अच्छा तो लगता था सालभर अपने इशारों पर नाचने वाले टीचर्स को ठुमका लगाते देखना | कई कारणों से मैं बहुत से स्कूलों में पढ़ी हूँ इसलिए मेरे पास तरह तरह की यादें हैं इस दिन की | हर जगह अलग अलग तरह से मनाया जाता था बालदिवस |बचपन में बच्चा होना तो बुरा लगता हीं था पर उससे भी बुरा लगता था बड़ों का ये मानना की बच्चों की जिन्दगी में कोई टेंशन नहीं होता | अजी हमारे पास भी तरह तरह के टेंशन हुआ करते थे | जब मैं ६ क्लास में पढ़ती थी मम्मी की इसी बात से मुझे गुस्सा आया था की बच्चों को टेंशन हीं नहीं होता | अब मैं कैसे कहती की हमारे सबसे बड़े टेंशन तो आप बड़े लोग हीं हो | मैं बड़े शालीन बच्चे की तरह चुपचाप वहाँ से चली गयी पर मैंने सोच लिया था की मुझे बच्चों को इन्साफ दिलाना है और इन लोगो की ग़लतफ़हमी को दूर करना है मैंने एक कविता लिखी और सचमुच उस दिन माँ मानगयी की बच्चों के पास भी टेंशन होता है| हाँ मैंने बड़ों के टेंशन होने वाली बात का जिक्र नहीं किया इतनी बेवकूफ थोड़े न थी मैं | दोस्तों का रूठना, पेंसिल का टूटना, गेम में हारना, क्लास में मार खाना ये सब तो मम्मी की नजर में टेंशन था नहीं सो मैंने सिर्फ पढाई की टेंशन के बारे में
लिखा | बताऊँ वह कौन सी कविता थी
बस्ते के बोझ से दबा बचपन 
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उफ़ यह इतना भारी भरकम बस्ता 
बचों की हालत को किया इसने पस्ता
हालत पस्त हुआ इसे उठाते उठाते 
घर से स्कूल, स्कूल से घर लाते लाते 
इसे लेकर थके हुए से जब बच्चे स्कूल पहुचे 
आप ही बताएँ पढाई में भला उनका जी कैसे लगे ?
शाम को थके हरे बच्चे जब घर आते 
जल्दी से होमवर्क करने  में जुट जाते 
रात को सोते हैं इसी टेंशन में 
उठनाहै जल्दी हीं कल सुबह में 
अरे हाय! यह क्या हो गया 
बस्ते के बोझ में बचपन कहीं खो गया 
दूरस्थ शिक्षा लेने के कारण अब मेरे पास बस्ते का बोझ तो नहीं रहा ( ई- बुक्स से ही काम चल जाता है ) ना हीं होमवर्क का टेंशन पर बचपन तो खो ही गया न | वक्त को बढ़ने से कौन रोक सकता है ??? पर इसमें एक सकारात्मक बात भी है की मेरे बचपन का सपना जो अभी अधुरा है वह पूरा जरूर होगा | कौन सा सपना ? अरे वही बड़ा होने वाला सपना |
एक दिन हम बड़े बनेंगे एक दिन
मन में है विश्वास पूरा है विश्वास
 हम बड़े बनेंगे एक दिन

गुरुवार, 11 नवंबर 2010


नमस्कार दोस्तों
हार्दिक स्वागत है आपका मेरे ब्लॉग पर | बहुत दिनों से सोचते सोचते आज मैंने ब्लॉग लिखना प्रारंभ किया है | ऐसा नहीं है कि क्या लिखुँ मैं समझ नहीं पाती दिक्कत यह है कि क्या क्या लिखुँ सोचकर उलझ जाती हूँ| आपने उस गाने को तो सुना हीं होगा
"मैं कहाँ जाऊं होता नहीं फैसला
एक तरफ उसका घर एक तरफ मयकदा "
शायर कि परेशानी यह है कि वह निर्णय नहीं कर पा रहा कि अपनी माशूका के घर जाए या फिर मयखाने ? ठीक वही हालत मेरी है कभी कोई बात अपनी तरफ मेरा ध्यान आकृष्ट करता है तो तो उसी छण किसी दूसरी बात का नशा मुझे अपनी तरफ खींचता है | चूँकि आज मैं पहली बार यंहा लिख रही हूँ तो सोचती हूँ अपने संछिप्त परिचय से ही शुरू करूँ | नाम तो आप जानते ही होंगे 'आलोकिता ' जिसका अर्थ है अँधेरे पथ को रौशन करने वाली |मेरी जिन्दगी सदा से एक खुली किताब रही है और दोस्तों कि इसमें  विशेष जगह रही है | कहते हैं वक्त के आगे बड़े बड़े नहीं टिक पाते| उसी वक्त कि आंधी ने एक तिनके की तरह उड़ा कर मुझे दोस्तों से दूर एक वीराने में फेंक दिया | आज जब अपने  अब तक के जीवन का सारांश लिखना चाहती हूँ तो मेरे जेहन में बस ये आठ पंक्तियाँ ही उभरतीं हैं |
"सपनों को हकीकत के खाक में मिलते देखा है |
चाहत को अपनी तड़प कर मरते देखा है |
अरमानों की चिता जली है हमारी |
ग़मों को खुशीकी झीनी चादर में लिपटे देखा है |
अश्क पीकर हमने मुस्कुराना सीखा है |
ग़मों के दलदल में हमने जीना सीखा है |
जीने क लिए हर पल मरते हैं हम |
खुशी की आहट से भी अब डरते हैं हम |"
उपरोक्त पंक्तिओं का एक- एक लफ्ज मेरे दिल से निकला है |सचमुच खुशी से डरती हूँ कि जाने ये छोटी सी खुशी अपने पीछे ग़मों का कितना बड़ा पहाड़ लेकर आ रहा है अपने पीछे मेरी खातिर |पर इसका मतलब यह कतई नहीं कि खुशियों कि तलाश हीं बंद कर दूँ |अपने अनुभव के आधार पर ही आपसे एक बात कहना चाहूंगी जिन्दगी में कितने भी गम आये सदा हंसते-मुस्कुराते रहिये इससे आपका दुःख ख़त्म तो नहीं होगा पर हाँ दुःख को सहने कि क्षमता जरूर मिलती है | रोने से उदास होने से शक्तियां क्षीण पड़ जाती है |बस आज इतना ही कहना चाहूंगी आगे अब अगली बार अपनी कवितायें लिखूंगी |