सोमवार, 21 मार्च 2011


अपनी हीं हालात पे रोने लगी हूँ
दुनिया की भीड़ में खोने लगी हूँ

मधुता....... न रही अब जीवन में
कुछ कडवी........ सी होने लगी हूँ


ज़हन में.......बस गयी हैं जो यादें 

अश्कों से..... उनको धोने लगी हूँ

यूं तो खुश थी.... ख्वाबों में पहले
अब तो .....उनमे भी रोने लगी हूँ


थी  बहुतों से..अपनी 
 बाबस्तगी  
अब अजनबी सी.... होने लगी हूँ

दर्द-ए-दिल..... जब्त कर रही थी 
चुप्पी में खुद हीं कैद होने लगी हूँ 

अपनी हीं हालात पे रोने लगी हूँ 
दुनिया की भीड़ में खोने लगी हूँ

11 टिप्‍पणियां:

  1. मुझे अपने दोस्तों की महफ़िल याद आ रही हैं.....
    जिंदा रहने के लिए ख्वाब ज़रूरी हैं ......

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  2. दर्द के एहसास को बखूबी शब्द दिए हैं ..

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  3. बहुत उम्दा शेर
    सचमुच आनंद आ गया
    भविष्य में भी ऐसे लिखते रहे

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  4. "अब तो सपनों में भी रोने लगी हूँ."
    को यदि "अब तो उनमें भी रोने लगी हूँ." करेंगे
    तो शब्द की दोहरावट का दोष नहीं लगेगा.
    शब्द 'ख़्वाबों' और 'सपनों' का एक साथ प्रयोग ...... बहुत मामूली तौर पर अखरता है.

    ...........शेष बढिया है.

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  5. आलोकि्ता बहुत ही भावप्रवण रचना लिखी है दिल को छू गयी।

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  6. जहन....... में बस गयी हैं यादें
    अश्कों...... को धोने लगी हूँ
    क्या शब्द दिए हैं आपने यादों को ..बहुत सुंदर

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