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सोमवार, 10 सितंबर 2012

हकीकत से आँखें मूंद के जीना नासमझी नहीं





ना पूछ जिन्दगी में तेरी जरुरत क्या है 
जो तू नहीं तो फिर जिन्दगी की जरुरत क्या है 

हकीकत से आँखें मूंद के जीना नासमझी नहीं 
गर टूट भी जाए तो सपनो से खुबसूरत क्या है 

इश्क में डुबके जिसने खुद को भुलाया नहीं
क्या जाने वो की लज्ज़त-ए-मोहब्बत क्या है 

ख्वाब था इश्क, इबादत भी तू हो गया है 
कह दे जिन्दगी में तेरी मेरी अहमियत क्या है 

ना चाह के भी हर बार तुझे हीं लिख बैठती हूँ 
पूछ हीं देते हैं सब बेदर्द की शक्ल-ओ-सूरत क्या है  

गुरुवार, 11 अगस्त 2011

वह हादसा फिर सरे-आम हो गया















वह हादसा   फिर सरे-आम हो गया 

बेगुनाह था वह जो बदनाम हो गया
हौसलों की उसे कुछ कमी तो न थी 
कायर वो घोषित सरे-आम हो गया 

आगाज़ कभी  इतना बुरा भी न था 
न जाने कैसे ऐसा अंजाम हो गया ?

इक नाम था अब तक ध्रुव सा अटल  
लाखों की भीड़  में गुमनाम हो गया 

बना तो रहे थे वो गैरों की फेहरिस्त 
शुमार उसमे मेरा भी नाम हो गया 

वह हादसा   फिर सरे-आम हो गया 
बेगुनाह था वह जो बदनाम हो गया

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

ग़ज़ल (भोजपुरी )


कहीं भूख से केहू............ बच्चा रो रहल बा
कहीं रोजे अन्न............. बर्बाद हो रहल बा

पापियन के अब स्वर्ग नरक के चिंता नइखे
नोटवा के गंगा में.... पाप कुल्हे धो रहल बा

खड़ा बा जौन बनके नेता......, सबके मसीहा
धरम के नाम पे. फसाद के बिया बो रहल बा

बेईमनिये के त अब......... सगरो सासन बा
इमान्दारे के मुँह............ काला हो रहल बा

अब आपन अजदियो त..... बूढ़ा गइल बिया
संसद के गलिआरा में लोकतंत्र खो रहल बा
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हिंदी अनुवाद
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कहीं भूख से......... कोई बच्चा रो रहा है
तो कहीं रोज़....... अन्न बर्बाद हो रहा है

पापी को स्वर्ग नर्क की...... चिंता न रही
नोटों की गंगा में...... पाप सारे धो रहा है

खड़ा है जो बनके नेता..... सबका मसीहा
धर्म के नाम पर फसाद के बीज बो रहा है

बेईमानी का हीं........ हर तरफ शासन है
इमानदारों का हीं..... मुँह काला हो रहा है

बूढी हो चुकी है अब... आज़ादी भी अपनी
लोकतंत्र संसद की गलिओं में खो रहा है

केहू - कोई 

रहल बा - रहा है
रोजे - रोज
नइखे - नहीं है
कुल्हे (कुले भी कहा जाता है ) - सब, सारे
जौन - जो
बिया - बीज,(बिया स्त्रीलिंग के लिए 'है' के रूप में भी प्रयोग होता है इस रचना में दोनों 'बिया' का प्रयोग है )
बेईमनिये - बेईमानी का हीं
सगरो - सब ओर, हर जगह
सासन - शासन
आपन - अपनी या अपना
अजदियो - आज़ादी भी
बूढ़ा गइल बिया - बूढी हो चुकी है
गलिआरा - किसी बिल्डिंग के अन्दर बना हुआ संकरा रास्ता

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011





तुम्हे..... मेरी याद कभी आती तो  होगी 
ये जज्बाती हवा वहाँ भी जाती तो  होगी 

घबराते न हों  भले हीअंधेरों में अब तुम 
उजाले में अपनी परछाई डराती तो होगी

तन्हाई मैं गुमसुम तुम होते होगे जब भी 
मेरी अल्हड़ बातें तब याद आती तो होगी 

कितना बोलती होतुम  कहा करते थे न 
और अब मेरी ख़ामोशी  सताती तो होगी 

छूकर मेरी गजलों को.गुजरती हैं जो हवा  
तुम्हारे कानों में कुछ गुनगुनाती तो होगी 

अश्कों के मेघ बन आँखों में छा से जाते हो 
ये बारिश तुम्हारे मन को भिगाती तो होगी 

तुम्हारी शर्मीली मुस्कान पर मेरा हँस देना 
वो यादें शायद  तुम्हे भी.. चिढाती तो होगी 

तुम चाहे मानो या न मानो पर यकीं हैं मुझे 
यूंही मेरी याद अक्सर तुम्हे आती तो होगी 

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

हर शख्श..... बेगाना यहाँ

हर शख्श..... बेगाना यहाँ 
हर चेहरा..... अंजाना यहाँ 

बरसो में... पहचाना जिसे 
वो भी है... अफसाना यहाँ

रास न आई.. दोस्ती मुझे 
दोस्त कोई... रहा ना यहाँ  

क्यूँ न गई.... चुपचाप वो 
छोड़  गई....  बहाना यहाँ  

न पूछना की हुआ क्या है 
आम  है बदल जाना यहाँ 

हर शख्श..... बेगाना यहाँ 
हर चेहरा..... अंजाना यहाँ 

सोमवार, 21 मार्च 2011


अपनी हीं हालात पे रोने लगी हूँ
दुनिया की भीड़ में खोने लगी हूँ

मधुता....... न रही अब जीवन में
कुछ कडवी........ सी होने लगी हूँ


ज़हन में.......बस गयी हैं जो यादें 

अश्कों से..... उनको धोने लगी हूँ

यूं तो खुश थी.... ख्वाबों में पहले
अब तो .....उनमे भी रोने लगी हूँ


थी  बहुतों से..अपनी 
 बाबस्तगी  
अब अजनबी सी.... होने लगी हूँ

दर्द-ए-दिल..... जब्त कर रही थी 
चुप्पी में खुद हीं कैद होने लगी हूँ 

अपनी हीं हालात पे रोने लगी हूँ 
दुनिया की भीड़ में खोने लगी हूँ

रविवार, 13 मार्च 2011



जीस्त का मज़ा ,कभी हम भी लिया करते थे 
एक ज़माना था की हँस हँस के जिया करते थे

खुशी की एक आहट को....भी तरसते हैं अब   
वक़्त था औरों को भी खुशियाँ दिया करते थे

चलते चलते अब गाम ... लरजते  हैं  मगर 
बज़्म में रक्स मुसलसल भी किया करते थे

ख़ुशी के चिथड़ों पर.... पैबंद लगाते हैं हरदम 
यूं भी था कभी गैरों के जख्म सिया करते थे

इस कदर टूट कर बिखरे हैं आज हम खुद ही 
कभी औरों को भी  .... हौंसला दिया करते थे

जीस्त का मज़ा कभी हम भी लिया करते थे 
एक ज़माना था की हँस हँस के जिया करते थे


रविवार, 6 मार्च 2011



























तड़प से जाते हैं हम, रूठ कर यूँ जाया न करो 
ऐ सितमगर रोते हुओं को और रुलाया न करो

जाना हीं  हो तुम्हे,  तो जाओ  कुछ  इस  तरह 
ले जाओ निशानियाँ, यादों में भी आया न करो


हमे  सुनाकर  बेवफाइयों  के किस्से  बार बार 
हमारे सब्र की  इन्तेहाँ  को आजमाया न करो

 
न आता  हो तुम्हे  निभाना, तो रिश्ते बनाकर
कसमों  वादों में  किसी को  उलझाया  न करो


 हँसा कर एक बार यूँ  बार बार रुला देते हों हमें 
अब रहने दो तन्हा, महफ़िलों में बुलाया न करो