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रविवार, 8 मार्च 2015

लप्रेक 1

देखो न !  2 मिनट वाले फ़ास्ट फ़ूड की तरह दौर-ए-लप्रेक (लघु प्रेम कथा) चल पड़ा है। दौर बदलता चला जाए और मैं कहीं पीछे न छूट जाऊँ.....सोचकर मैं भी लिखने बैठ गई। सालों में पनपी और गहराई किसी की प्रेम कहानी को लेकिन चंद पंक्तियों में कैसे बयां कर दूँ ? हाँ! अपने दिल का हाल कहना हो तो तुम्हारा नाम लिख देती हूँ! लप्रेक की तरह तीन अक्षरों के तुम्हारे नाम में तो प्रेम का पूरा समंदर भरा है। या फिर तुम्हें ऐतराज़ न हो तो प्रेम की तरह, तुम्हारे pet name के ढाई अक्षर लिख कर हीं लोगों को लप्रेक सुना दूँ शोना !?!





आlokita

शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

मेरे जीवनसाथी

मेरे जीवनसाथी, ओ प्राणप्रिय, चलो मिलकर प्रेम रचें
स्वामित्व-दासत्व की कथा नहीं, विशुद्ध प्रेम लिखें
न तुम प्राणों के स्वामी, न हीं मैं तेरे चरणों की दासी
तुम ह्रदय सम्राट मेरे, और मैं तुम्हारी ह्रदय-साम्रागी

तुम्हारी खामियों सहित पूर्ण रूप से तुम्हें अपनाऊं
तुम भी मुझे मेरी अपूर्णताओं के संग स्वीकारो
तुम्हारे स्वजनों को पुरे ह्रदय से मैं अपना बना लूँ
मेरे भी कुछ आत्मीय हैं, यह बात तुम भी न बिसारो

ओ हमसफ़र मेरे हर कदम पर हम-कदम बन जाओ
न बाँधो व्रतों के फंदों में मुझे या तो स्वयं भी बंध जाओ
साथ मिलकर चलो साझी खुशियों की माँगे दुआएँ
साह्चर्य्ता का रिश्ता है चलो हर कदम साथ बढायें


सोमवार, 30 दिसंबर 2013

जी करता है . . .

तेरे प्यार पर जां निशार करने को जी करता है
तेरी हर बात पर ऐतबार करने को जी करता है

बेपनाह हों दूरियाँ , भले तेरे-मेरे दरमियाँ
क़यामत तक तेरा इंतज़ार करने को जी करता है

हाथों में हाथ हो, तू मेरे अगर जो साथ हो
दुनिया के हर डर से इनकार करने को जी करता है

तेरे दामन की खुशियाँ भले हमें मिले न मिले
तेरा हर अश्क़ खुद स्वीकार करने को जी करता है 

खामोश हो जाते हैं लब तेरे सामने जाने क्यूँ 
हर रोज़ मगर प्यार का इज़हार करने को जी करता है 


शनिवार, 14 दिसंबर 2013

अच्छा लगता है


ख़ामोश तन्हाइयों से निकल, किसी भीड़ में खो जाना
अच्छा लगता है कभी-कभी भीड़ का हिस्सा हो जाना

भूल कर अपने आज को, बीती गलियों में मंडराना
अच्छा लगता है कभी-कभी पुरानी यादों में खो जाना

शब्दों में बयां किए बगैर, दिल के एहसासों को जताना
अच्छा लगता है कभी-कभी मुस्कुरा के खामोश हो जाना

बेमतलब बेईरादतन बार-बार यूँ हीं मुस्कुराना
अच्छा लगता है कभी-कभी अंजाने ख्यालों में खो जाना

दुनिया के कायदों, अपने उसूलों को तार-तार करना
अच्छा लगता है कभी-कभी बन्धनों से आज़ाद हो जाना


                                                      






........आलोकिता 

शनिवार, 7 दिसंबर 2013

तुम . . .


बेधड़क गूँजता अट्टहास नहीं
हया से बंधी अधरों की अधूरी मुस्कान हो तुम

जिस्म की बेशर्म नुमाइश नहीं
घूँघट की आड़ से झांकते चेहरे की कशिश हो तुम

उठी हुयी पलकों का सादापन नहीं
झुकी झुकी सी पलकों का स्नेहिल आकर्षण हो तुम

भूली-बिसरी कोई गीत नहीं
हर वक्त ज़ेहन में मचलती अधूरी कविता हो तुम

साधारण सी कोई बात नहीं
इक अलग सा कुछ खास हीं एहसास हो तुम


लब पे आ सके वो नाम नहीं

दिल के कोने में बसा अंजाना जज़्बात हो तुम



                                         






...आलोकिता

गुरुवार, 17 अक्टूबर 2013

तेरी हर याद ........

Drawn by me

हो प्यार का सुर जिसमें, वो गीत सुनाती है 
तेरी हर याद मुझे, तेरी ओर बुलाती है

जिसकी धुन सुन कर, दिल रोज़ धड़कता है.
मुझे प्यार की मीठी सी, संगीत सुनाती है

तेरी हर याद मुझे, तेरी ओर बुलाती है.

है मीलों की दूरी, पर हर पल साथ ही हो
साँसे बन कर यादें, मेरा दिल धड़काती हैं

तेरी हर याद मुझे, तेरी ओर बुलाती है

सपनो में रोज़ मेरे, एक तू ही तो आता है
मेरी सुनी आँखों में , नये ख्वाब सजाता है

गुज़री कितनी रातें , गुज़रे कितने ही दिन
एक पल भी लेकिन, यादें छूट ना पाती हैं

तेरी हर याद मुझे, तेरी ओर बुलाती है

मंगलवार, 3 सितंबर 2013

ख़ामोशी की दीवार ढह जाती तो अच्छा था


कड़वी यादें बीते पलों संग हीं रह जाती तो अच्छा था 
वो यादें या फिर अश्कों के संग बह  जाती तो अच्छा था

 कुछ ख़ास नहीं हैं दूरियाँ ,  तेरे-मेरे दरमियाँ 
बस ख़ामोशी की दीवार ये ढह जाती तो अच्छा था 

नाकाम कोशिशें ख़ामोशी के सन्नाटे को और गहराती है 
इन खामोशियों से बेपरवाह हीं रह जाती तो अच्छा था 

मुश्किल है एहसासों को दिल में छिपाए रखना 
गिले-शिकवे तुम्ही से सब कह जाती तो अच्छा था 

महफ़िलों में मिले तन्हाई तो और भी खलती है 
बंद अपने कमरे में अकेली हीं रह जाती तो अच्छा था  

                                                                                                            … … … आलोकिता                                                                                       

सोमवार, 10 सितंबर 2012

हकीकत से आँखें मूंद के जीना नासमझी नहीं





ना पूछ जिन्दगी में तेरी जरुरत क्या है 
जो तू नहीं तो फिर जिन्दगी की जरुरत क्या है 

हकीकत से आँखें मूंद के जीना नासमझी नहीं 
गर टूट भी जाए तो सपनो से खुबसूरत क्या है 

इश्क में डुबके जिसने खुद को भुलाया नहीं
क्या जाने वो की लज्ज़त-ए-मोहब्बत क्या है 

ख्वाब था इश्क, इबादत भी तू हो गया है 
कह दे जिन्दगी में तेरी मेरी अहमियत क्या है 

ना चाह के भी हर बार तुझे हीं लिख बैठती हूँ 
पूछ हीं देते हैं सब बेदर्द की शक्ल-ओ-सूरत क्या है  

गुरुवार, 3 मई 2012

क्या यही प्रेम परिभाषा है ?


तुझसे लिपट  के........... तुझी में सिमट जाऊं 
भुला  के खुद को.......... तुझपे हीं मिट जाऊं 
ये कैसी तेरी चाहत ? ये कैसा है प्यार सखे ?
मिट जाए पहचान भी नहीं मुझे स्वीकार सखे 

है प्यार मुझे भी, प्रीत की हर रीत निभाउँगी
तुझसे जुडा हर रिश्ता सहर्ष हीं अपनाउंगी
पर  भुला दूँ अपने रिश्तों को मुझसे ना होगा 
एक तेरे लिए बिसरा दूँ सब मुझसे ना होगा 

बेड़ियों सा जकड़ता जा रहा हर पल मुझको 
ये कैसा प्यार जो तोड़ रहा पल पल मुझको ?
खो दूँ अपना अस्तित्व ये कैसी प्रीत कि आशा है ?
पाके तुझको खुद को खो दूँ यही प्रेम परिभाषा है ?

                                                    .......................आलोकिता 

गुरुवार, 8 सितंबर 2011

मैं वहीँ मिलूंगी



परछाईं नहीं जो अँधेरे में खो जाऊं 
उमंग नहीं जो उदासी में सो जाऊं

रक्त की धारा सी  ह्रदय में रहती हूँ 
मैं अनवरत तुझमें हीं तो बहती हूँ

हूँ तुझमें हर पल भले स्वीकार न कर 
रहूंगी भी सदा भले अंगीकार न कर

अन्तःसलिला फल्गु सी बहती रहूंगी
ह्रदय से रेत हटाना मैं वहीँ मिलूंगी 

.......................................आलोकिता 

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011





तुम्हे..... मेरी याद कभी आती तो  होगी 
ये जज्बाती हवा वहाँ भी जाती तो  होगी 

घबराते न हों  भले हीअंधेरों में अब तुम 
उजाले में अपनी परछाई डराती तो होगी

तन्हाई मैं गुमसुम तुम होते होगे जब भी 
मेरी अल्हड़ बातें तब याद आती तो होगी 

कितना बोलती होतुम  कहा करते थे न 
और अब मेरी ख़ामोशी  सताती तो होगी 

छूकर मेरी गजलों को.गुजरती हैं जो हवा  
तुम्हारे कानों में कुछ गुनगुनाती तो होगी 

अश्कों के मेघ बन आँखों में छा से जाते हो 
ये बारिश तुम्हारे मन को भिगाती तो होगी 

तुम्हारी शर्मीली मुस्कान पर मेरा हँस देना 
वो यादें शायद  तुम्हे भी.. चिढाती तो होगी 

तुम चाहे मानो या न मानो पर यकीं हैं मुझे 
यूंही मेरी याद अक्सर तुम्हे आती तो होगी 

शनिवार, 12 मार्च 2011

हर बार नया एक रूप है तुझमे



हर बार नया एक रूप है तुझमे 
हर बार नयी एक चंचलता 
हर सुबह प्रेम की धूप है तुझमे 
हर साँझ  पवन सी शीतलता

हर शब्द निकलकर मुख से तेरे 
मन वीणा झंकृत कर देते 
मुस्कान बिखर कर लब पे तेरे
ह्रदय  को हर्षित कर देते 

सात सुरों  का साज़ है तुझमे 
जल तरंग सी  है मधुता 
गीतों का  हर राग है  तुझमे  
कविता सी है  मोहकता 

हर बार नया एक रूप है तुझमे 
हर बार नयी एक चंचलता 
हर सुबह प्रेम की धूप है तुझमे 
हर साँझ  पवन सी शीतलता

रविवार, 27 फ़रवरी 2011

कह तो दो






पलक पावढ़े ...बिछा दूंगी 
तुम आने का.. वादा तो दो 
धरा सा  धीर... मैं धारुंगी 
गगन बनोगे... कह तो दो 
पपीहे सी प्यासी. रह लूँगी 
बूंद बन बरसोगे कह तो दो 
रात रानी सी ..महक  लूँगी 
चाँदनी लाओगे कह तो दो 
धरा सा  धीर... मैं धारुंगी
गगन होने का वादा तो दो 

जीवन कागज सा कर लूँगी 
हर्फ बन लिखोगे.कह तो दो 
बूंद बन कर... बरस जाउंगी 
सीप सा धारोगे.. कह तो दो 
हर मुश्किल से ...लड़ लूँगी 
हिम्मत बनोगे.. कह तो दो 
पलक पावढ़े..... बिछा दूंगी 
तुम आने का... वादा तो दो 

चिड़ियों सी मैं... चहकुंगी 
भोर से खिलोगे. कह तो दो 
गहन निद्रा में ..सो जाउंगी 
स्वप्न बनोगे... कह तो दो 
फूलों सी काँटों में हँस लूँगी 
ओस बनोगे .....कह तो दो 
धरा सा धीर ....मैं धारुंगी 
गगन बनोगे.... कह तो दो


गुरुवार, 25 नवंबर 2010

शायरियाँ

सब कहते हैं, तू उसे याद न कर
पाने को उसे रब से फ़रियाद न कर 
तू हीं बता धड़कन में बसी यादों को मिटायें तो कैसे ?
जिन्दगी को अपनी हम भुलाएँ तो भुलाएँ कैसे ?
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आप मेरे लिए कोई फ़रिश्ता तो नहीं 
आप से हमारा कोई रिश्ता तो नहीं 
फिर भी पता नहीं क्या अपनापन झलकता है 
आपके सामने तो हमे सारा जग बेगाना लगता है 
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हम रो न सके तो ये न समझना, जुदाई का हमे गम नहीं 
रो कर प्रियतम की यादों को बहा देने वालों में से हम नहीं 
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आपकी बाँहों में मर जाना चाहते थे हम 
दो पल में पूरी जिन्दगी जी जाना चाहते थे हम 
शायद खुदा को वो भी गँवारा न हुआ 
क्योंकि वो दो पल भी हमारा न हुआ 
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इस दुनिया के लिए तो बस एक इंसान हो तुम 
मेरे लिए तो मेरा पूरा जहाँ हो तुम 
करोडो में एक तारा टूट गया तो क्या 
इस दूनिया से एक इंसान रूठ गया तो क्या 
कर सको तो इतना एहसान करो तुम 
रूठ कर यूँ न हमारी दूनिया वीरान करो तुम 
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हमने सोचा न था कभी किश्मत ऐसा रंग लायेगा/ लाएगी 
हमे मझधार में छोड़ तू परायों का हो जायेगा/ जाएगी 
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अजीब किस्मत है हमारी 
अजीब फितरत है हमारी 
जिसने दिल को तोड़ा 
दिल में उसे बसाये रहते हैं 
ख्वाबों को जिसने तोड़ा 
सपनों में उसे सजाये रहते हैं 
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सागर पर चलना चाहा 
हमसे किनारे भी छुट गए 
परायों को अपनाना चाहा 
वो न मिले कुछ अपने भी रूठ गए 
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तुझे याद हम करते नहीं 
तेरी याद हमे आ जाती हैं 
आती भी है तो कुछ ऐसे 
की भीड़ में हमे तन्हा कर जाती है 
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सोचा था तुझपे प्यार लुटाकर 
तेरे दिल में घर बनायेंगे 
हमे क्या पता था दिल देकर 
भी हम बेघर रह जायेंगे 
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वफ़ा कर के भी हम उन्हे पा न सके 
बेवफा हो कर भी हमारे दिल से वो जा न सके 
रातों को उनकी अपनी ख्वाबों से हम सजा न सके 
नींदे उड़ा कर भी हमारे खवाबों से वो जा न सके 
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शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

वह आखिरी तश्वीर

वह आखिरी तश्वीर 
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नहीं सुनी मैंने किसी और कि जबानी 
यह तो है मेरी आँखों देखी कहानी 
अपने अकेलेपन से ऊबी हुई सी 
अनजाने ख्यालों में डूबी हुई सी 
उस दिन मैं  तन्हा छत पर खड़ी थी 
आंखे बस राहों पर गडी थी 
पहली बार उस दिन मैंने' उसकी' झलक पायी थी 
पड़ोस में रहने 'वह' और उसकी बूढी माँ आई थी 
मुझे मालूम नहीं क्या नाम था उसका 
दुर्बल,साँवला पर आकर्षक चेहरा था उसका 
खिड़की से एक दिन देखा उसे चित्र बनाते हुए 
बदरंग कागज़ पर बेजान तुली से जीवन सजाते हुए 
हाँ एक उम्दा कलाकार था वह 
शांत, संजीदा चित्रकार था वह 
उन मनमोहक चित्रों को देखने के लालच से 
उसके घर गई यूँ एक दिन  हीं बहाने से  
गजब का आकर्षण था उसकी सभी चित्रों में 
सचमुच जान भर दिया था उन बेजान चीजों में 
अपनी कृतियाँ दिखाता और बस मुस्कुराता जाता था 
मैं तारीफ करती पर वह तो बस हँसता जाता था 
उन चित्रों में ऐसी खोई नाम पूछने की भी सुध ना रही 
पाँच घंटे पता नहीं कैसे बस उन चित्रों में खोई रही 
जाते जाते मैंने कहा धन्य हैं ये हाथ जो बेजान चित्रों में जान डाल देते हैं 
पहली बार उसने कहा नहीं धन्य है वो इश्वर जो इन हाथों में कला देते हैं 
शायद घर पर मुझे उस दिन डांट पड़ी थी 
पूरे पाँच घंटे उस अजनबी के घर जो रही थी 
पहली बार डांट सुन मैं रोई नहीं थी 
मैं तो अब तक चित्रों में खोई हुई थी 
अगले दिन किसी के रुदन से मेरी नींद खुली थी 
पता चला उसकी माँ चिल्ला-चिल्ला कर रो रही थी 
मैंने सबको कहते सुना था, ये तो होना ही था 
कैंसर रोगी था उसे तो दुनिया से जाना ही था 
इस वज्रपात से मैं स्तब्ध खड़ी थी 
दुखी थी, किन्तु मैं रो भी न सकी थी 
व्यथित उस बूढी माँ को देखा तो कुछ याद आया 
उसका वह "आखिरी चित्र" आँखों में उतर आया 
बिल्कुल यही हाँ बिल्कुल यही दृश्य था उसमे 
आज भी मेरी यादों में जिन्दा है वो और वह आखिरी तश्वीर 
वह मार्मिक, हृदयविदारक, पीड़ा दायी आखिरी तश्वीर 
                .................आलोकिता