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रविवार, 22 अप्रैल 2018

रेप करने से बचने के कारगर उपाय

"यह मेसेज हर उस लड़की को भेजें जिससे आप प्यार करते हैं, जिनकी आप इज्ज़त करते हैं। देश की हर एक लड़की तक आज इस सन्देश का पहुँचना ज़रूरी है।"

ऐसा कोई न कोई मैसेज अक्सर घूमफिर कर हमारे पास विभिन्न माध्यमो से पहुँचता हीं रहता है। यदि यौनशोषण, महिला-उत्पीड़न जैसी कोई ख़बर सुर्ख़ियों में आ जाये, फिर तो ऐसे संदेशों की बाढ़-सी आ जाती है। ऐसे संदेशों को पढ़ कर मुझे ऐसा महसूस होता है जैसे देश की आधी आबादी दूसरी आधी आबादी के ख़िलाफ़ कोई षड्यंत्र रच रही है। अरे बाबा जब देश-समाज सबका है तो फिर सारे ब्रह्मज्ञान सिर्फ़ लड़कियों को क्यों? केवल लड़कियों के लिए रेप और मोलेस्टेशन से बचने के लिए टिप्स क्यूँ तैयार किये जाते हैं? बेचारे लड़कों सॉरी मेरा मतलब था 'मर्दों' को भी तो कोई टिप्स की लिस्ट तैयार करके दो कि रेप और मोलेस्टेशन जैसे घृणित काम करने से ख़ुद को कैसे बचाएँ!

वैसे एक बात ईमानदारी से बताऊँ? अभी सशक्त महिलाएँ और फेमिनिस्ट (ये फेमिनाज़ी) लडकियाँ मुझे इस बात के लिए घेर सकती हैं फिर भी ये रिस्क लेकर मैं सच कहना चाहूँगी। लडकियाँ चाहे कितना भी रो गा लें, कितना भी प्रोफाइल पिक्चर काली-पिली कर लें या चाहे जितने भी फेमिनिज्म वाले झंडे गाड़ लें, उनके औकात से बाहर की चीज़ है रेप जैसी चीजों को समाज से ख़त्म करना। हाँ सच कहती हूँ, समाज के इस घिनौने चेहरे को बदलने का दारोमदार मर्दों को हीं अपने मज़बूत कंधों पर लेना पड़ेगा।

कोई और तो लिख नहीं रहा था तो मैंने सोचा मैं हीं अपने समाज के मर्दों के मार्गदर्शन के लिए रेप और मोलेस्टेशन करने से बचने के लिए कुछ टिप्स लिख देती हूँ। आप सब से गुज़ारिश है कि इसे हर उस मर्द के साथ साझा करें जिसकी आप 'केयर' करते हों क्यूँकी लड़कियों का तो शरीर और मन हीं आहत होता है, रेप करने वाले मर्दों की तो आत्मा तक मलीन हो जाती है। उन्हें तो पता भी नहीं चलता कि मर्दानगी के धोखे में कब वह इन्सान से हैवान बन गए.

चलिए अब फटाफट बढ़ते हैं रेप और मोलेस्टेशन करने से बचने के उपायों की तरफ़...

1. पब्लिक प्लेस पर मोबाइल का इस्तेमाल कम से कम करें – स्मार्टफोन के इस ज़माने में आपको मोबाइल फ़ोन न रखने की सलाह तो नहीं दूँगी, लेकिन, आपको इसका इस्तेमाल काफ़ी सोच समझ कर करना चाहिए. यदि आप किसी पब्लिक प्लेस पर हैं तो ध्यान रखें आपको मोबाइल का प्रयोग सिर्फ़ निहायत ज़रूरी सुचना के आदान-प्रदान के लिए करना चाहिए. whatsapp और facebook जैसी सुविधाओं का इस्तेमाल तो बिलकुल भी न करें। वह क्या है न कि हर मर्द की ज़िन्दगी में बीसियों उदार भाव के मित्र होते हैं... इनसे अकेले कुछ हज़म हीं नहीं होता। अब बताइए जब आप पब्लिक प्लेस पर हों और आपके उदार मित्र सनी जी की बहनों वाली विडियो या फिर वह भाभी जी वाली हीं विडियो या चुटकुले भेज दें तो आपका तो मन करेगा ही न अगल-बगल से गुज़रती लड़कियों के कपड़ों के भीतर तक झाँक लेने का! और उन्हें छू लेने का भी! आपको अपने आँखों का इस्तेमाल एक्स-रे मशीन की तरह न करना पड़े इसके लिए बेहद ज़रूरी है सार्वजनिक स्थलों पर मोबाइल का इस्तेमाल आपातकालीन स्थिति में हीं करें।

2. हमेशा अपने साथ एक फैमिली एल्बम रखें – विज्ञान कहता है कि लड़कों का दिमाग 'विजुअल' होता है... किसी चीज़ को देख कर वह ज़्यादा अच्छे से समझ पाते हैं। इसलिए ज़रुरी है कि आपके पास हर वक़्त कोई विजुअल हिंट मौज़ूद हो। आप चाहें तो छोटा-सा फैमिली एल्बम रख सकते हैं या चाहें तो अपने मोबाइल में भी ये एल्बम बना कर रख सकते हैं। ध्यान रहे यदि आप मोबाइल में एल्बम बनाते हैं तो वह आपके फ्रंट स्क्रीन पर हो जिसे आप सिंगल टैप से खोल सकें। इस एल्बम में आपकी, आपके पिता या भाईयों की तस्वीर हो न हो माँ, बहन, भतीजी आदि सभी स्त्रीयों की तस्वीर हो जिनके साथ आपके मन का जुड़ाव हो। जब भी आपके दोस्त या आपका खुद का मन राह चलती किसी 'माल' को 'ताड़ने' के लिए आपको उकसाए तुरंत वह एल्बम खोलिए. सामने दिख रही माल और फोटो एल्बम में दिख रही माल के शारीरिक संरचना के बीच तुलना करना शुरू कीजिये। हाँ बाबा मालूम है फोटो एल्बम में आपकी माँ या बहन है पर बाकियों के लिए वह भी तो माल है न जैसे ये राह चलती लड़की आपके लिए? So, don' t take it personally! राह चलती लड़कियों में कौन ज़्यादा टंच माल है ये एनालिसिस तो आप अक्सर करते हैं... वही काम तो अब भी करना है बस अपने जीवन की अहम् औरतों के साथ! विश्वाश कीजिये आँखों में शर्म का पानी लाने के लिए यह नुस्खा बहुत कारगर है।

3. अपने दायित्वों का दायरा बढ़ायें – आपके दायित्वों का दाएरा काफ़ी छोटा है और बेशक इसके लिए आप अपने परिवार की महिलाओं को जिम्मेदार ठहरा सकते हैं। खाना देने, जूठी प्लेट उठाने, टी.वि। चलाकर रिमोट पकड़ाने, कपड़े धुलने, यहाँ तक कि समय पर जगा देने के लिए भी आप अपने घर की महिलाओं जैसे माँ, बहन, भाभी, बीवी आदि पर निर्भर होते हैं। शुरू से ऐसा करते-करते आपको पता हीं नहीं चलता कि आप कब अपनी हर छोटी से छोटी ज़रूरतों के लिए किसी न किसी महिला पर निर्भर हो गए. इस पर-निर्भरता को आप अनजाने हीं अपना हक़ समझने लगते हैं। आपको ऐसा लगता है कि महिलाओं का दायित्व है आपका हर काम करना, आपकी इच्छा-अनिच्छा के हिसाब से चलना। यही कारण है कि किसी कारणवश जब आपके शरीर का एक हिस्सा बेचैन होता है तो आपको लगता है सामने दिख रही महिला का ये दायित्व है कि वह आपकी बेचैनी को शांत करे। शुरुवात अपने छोटे-छोटे कामों का दायित्व स्वयं लेने से करें और 'अपना हाथ जगन्नाथ' के कॉन्सेप्ट को अपने जीवन में उतारें। अपनी ज़रूरतों का दायित्व ख़ुद वहन करना सिख लेंगे तो आपको बलात्कार जैसे घृणित मार्ग को चुनने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।

4. हमेशा अपने साथ पानी की एक बोतल रखें – पानी प्रकृति के द्वारा दी गयी एक अति-महत्त्वपूर्ण जीवनदायिनी सम्पदा है। इसकी ज़रूरत इंसान को कभी भी कहीं भी पद सकती है इसलिए एक पानी की बोतल हमेशा अपने साथ रखें। हमारे वातावरण में एक बहुत हीं ख़तरनाक वायरस घुस गया है जो किशोर से लेकर वृधावस्था तक के मर्दों को अपनी चपेट में ले रहा है। जब तुम्हारी कामुकता छोटी-छोटी बच्चियों को देखकर भी हिलोरें मारने लगें तब समझ लेना तुम उस जानलेवा वायरस की चपेट में आ चुके हो। जब तुम्हारा मन उन नन्हीं कलियों को मसल देने का होने लगे जिनके यौनांग अभी विकसित तक नहीं हुए तब समझ लेना तुम्हारी बीमारी अपने चरम तक पहुँच चुकी है। उस स्थिति में तुम्हें ये समझ लेना चाहिए कि तुम्हें जल्द से जल्द ईलाज की ज़रूरत है। ये ईलाज सिर्फ़ पानी से हीं हो सकता है। ऐसी स्थिति में पानी की तलाश में भटकना न पड़े इसलिए पानी की बोतल तुम्हारे पास होनी हीं चाहिए. जैसे हीं तुम्हारे मन में ऐसी घृणित बात आये अपने बोतल से चुल्लू भर पानी निकालो और उसमें डूब मरो। हाँ सच में इसका बस यही ईलाज है!

फ़िलहाल इन चार नुस्खों को अपने जीवन में इस्तेमाल करें ज़रूरत पड़ी तो हम आगे भी आपके मार्गदर्शन के लिए तत्पर रहेंगे। बहुत महत्त्वपूर्ण ज्ञान है इसलिए इसे स्वयं तक सीमित न रखें जितने ज़्यादा से ज़्यादा मर्दों से हो सके इसे साझा करें। बलात्कार-मुक्त भारत आपके सहयोग के बिना बनना नामुमकिन है। 

रविवार, 11 मार्च 2018

समाज! तुम अपनी रुढियों को मत तोड़ना



गिरवी हो जाना, बिक जाना बेटियों को ब्याहने में

बोझ-सा ढ़ोते रहना उन्हें अपनी कुरीतियों के आड़ में

बेटों के ब्याह में तुम जमकर उनका दाम लगाना

नपते-तुलते रह जाने देना जीवन-संगियों को दहेज़ के पैमाने में

समाज! तुम अपनी रुढियों को मत तोड़ना

चटख जाए विकलांगता की लकीर किसी के भाग्य में

प्रेरणाश्रोत कह कर उन्हें कभी-कभी अपनी महानता दिखा देना

और निजी ज़िन्दगी में इंसान मानने से भी कतरा जाना

टूट कर बिखरते देखते रह जाना तुम अपने स्वजनों को

समाज! तुम अपनी रुढियों को मत तोड़ना

जाती-धर्म के झगड़ों में मर जाने दो प्रेम के निर्दोष पंछियों को

हो जाने दो एहसास-विहीन पूरी मानवता को

तुम नफरतों से अपनी मान-मर्यादा में चार चाँद लगते रहना

मर जाने दो कोमल भावनाओं को हर इंसान के भीतर

समाज! तुम अपनी रुढियों को मत तोड़ना

संस्कार के बहलावे में हर पीढ़ी पर डाल देना रुढियों का दायित्व

पोषित-पल्लवित कराते रहना रुढियों को संस्कृति के नाम पर

न हो ये रूढ़ियाँ तो समाज तुम्हारा तो अस्तित्व हीं मिट जायेगा

हर इंसान की इंसानियत को पूरा खोखला हो जाने देना

समाज! तुम अपनी रुढियों को मत तोड़ना

गुरुवार, 17 अगस्त 2017

सोचता हूँ...



जब-जब किसी की चिता की लपटों को देखता हूँ...
होगा कैसा मेरे जीवन का अंत तब-तब ये सोचता हूँ !

पंच तत्वों में विलीन तो यह नश्वर शरीर होगा हीं...
सोचता हूँ आत्मा उसके अंजाम तक पहुंचेगी या नहीं?
 
वेद-विदित है ये परंपरा हमारी सब ऐसा  कहते हैं
मुखाग्नि देते बेटे, और तर्पण भी वही करते हैं

सुना है तब जाकर कहीं आत्मा को शान्ति मिलती है...
वर्ना सदियों तक वह बैतरनी में भटकती रहती है!

अरमानों से प्यारी बिटिया को ऐसे में जब देखता हूँ ...
बड़ी बेचैनी से उस हालात में मैं यह सोचता हूँ... 

जिसकी मासूम मुस्कान जीवन का हर दुःख हर लेती है
हाथों के कोमल स्पर्श से जो बेचैनी में भी सुकून देती है

वह मुखाग्नि दे  तो क्या चिता जलने से इनकार कर देगी?
उसके हाथों का तर्पण क्या आत्मा अस्वीकार कर देगी??

सोमवार, 17 जुलाई 2017

ये कैसा संस्कार जो प्यार से तार-तार हो जाता है?



जात-पात न धर्म देखा, बस देखा इंसान औ कर बैठी प्यार

छुप के आँहे भर न सकी, खुले आम कर लिया स्वीकार


हाय! कितना जघन्य अपराध! माँ-बाप पर हुआ वज्रपात

नाम डुबो दिया, कुलच्छिनी ने भुला दिए सारे संस्कार

कुल कलंकिनी, कुल घातिनी क्या-क्या न उसे कह दिया

फिर भी झुकी न मोहब्बत तो खुद क़त्ल उसका कर दिया



खुद को देश के नियम-कानूनों से भी बड़ा समझने वालों

प्रतिष्ठा की खातिर, बेटियों की निर्मम हत्या करने वालों

इज्ज़त और संस्कार की भाषा सिखा देना फिर कभी

पहले तुम स्वयं को इंसानियत का पाठ तो पढ़ा लो


हाय! ये कैसा संस्कार जो प्यार से तार-तार हो जाता है?

कैसी ये प्रतिष्ठा जिसमें हत्या से चार चाँद लग जाता है?

सोमवार, 19 सितंबर 2016

हरिजन बनाम दिव्यांग-जन: प्रधानमंत्री के नाम एक खुला ख़त


परम आदरणीय
श्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी
देश के वर्तमान प्रधानमन्त्री (स्वकथित प्रधान सेवक)

महाशय,
कहना चाहूँगी कि एक राजनीतिज्ञ के रूप में यह अति प्रशंसनीय है कि पार्टी से ऊपर उठ कर आपने देश के महान राजनेता को तवज्जो दिया और स्वच्छ भारत अभियान को गाँधी जी के सपने के रूप में प्रचारित करके आगे बढ़ाया। किसी महान व्यक्ति के पदचिन्हों पर चलना अच्छी बात है पर ये जरुरी तो नहीं कि उसकी की हुई गलती को भी हम दोहराएँ?

हमारे देश के महान राजनीतिज्ञ श्री मोहनदास करमचन्द गाँधी ने दलितों के उत्थान के नाम पर उन्हें ‘हरिजन’ बना दिया, ठीक उसी प्रकार आपके मन में बात आई और आपने विकलांगों को ‘दिव्यांग-जन’ की उपाधि दे डाली। वैसे मैं आप दोनों में से किसी भी राजनीतिज्ञ की मंशा पर संदेह नहीं कर रही (हो सकता है उनसे गलती हुई और आपने सिर्फ उसे दोहराया)  परन्तु कहीं न कहीं तो आप दोनों हीं असल मुद्दे से भटके हैं। गाँधीजी तो बीता कल हो चुकें हैं और कागज़ी तौर पर हरिजन शब्द के प्रयोग पर रोक भी लग चूका है परन्तु आप हमारे वर्तमान प्रधानमन्त्री हैं इसलिए आपसे अनुरोध है कि असल मुद्दे को छोड़ कर न खुद भटकें और न हमें गुमराह करने की कोशिश करें।

हरिजन और दिव्यांग-जन ये दोनों ही नाम भ्रमित करने वाले हैं। गाँधीजी ने मुख्यधारा से काटे गए तथाकथित नीची जाति के लोगों को नाम दिया ‘हरिजन’ मतलब हरी/भगवान का जन। क्या सिर्फ नीची जाति के लोग भगवान के जन होते हैं? यह तो आप भी समझते होंगे की यह नाम सिर्फ उन दलितों को सांत्वना के रूप में दिया गया था कि तुम(भी) ईश्वर की संतान हो। असल मायेने में समाज के अन्दर हरिजन भी उतना ही अपमानजनक शब्द है जितना अछूत या अश्पृश्य और इसीलिए हरिजन शब्द के प्रयोग पर सरकारी तौर पर रोक भी लगानी पड़ी। जब उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने का वक़्त था उसी वक़्त हरिजन नाम से ऐसी राजनीति हुई कि मुख्यधारा में आकर भी हरिजन समाज का एक अलग-थलग पड़ा हुआ अंग है।  शाब्दिक अर्थ देखें तो हरिजन के अर्थ में अपमानजनक कुछ भी नहीं बल्कि ये तो सम्मानसूचक शब्द है (और गाँधी जी ने यही समझाया भी था)। पर समाज में रहते हुए यह समझ में आता है कि हरिजन ठीक उसी प्रकार अपमानजनक है जिस प्रकार ‘माँ की आँख’ जैसी गालियाँ, जिनके शाब्दिक अर्थ में कुछ भी बुरा नहीं पर फिर भी इनमें क्या बुरा है ये तो सबलोग जानते हैं। आपका सुझाया हुआ शब्द ‘दिव्यांग-जन’ अपमानजनक न हो फिर भी हरिजन की तरह ही भ्रमित करने के साथ-साथ मुख्यधारा से हमेशा के लिए काट के एक अलग श्रेणी में बाँटने वाला शब्द है। दिव्यांग का अर्थ है जिसके अंग(अंगों) में दिव्य शक्ति हो। इस शब्द के प्रयोग के लिए आपने व्याख्या भी दी है कि किसी एक अंग के काम न करने की स्थिति में उसकी क्षतिपूर्ति के लिए प्रायः विकलांग व्यक्ति का कोई दूसरा अंग ज्यादा सक्रीय (दिव्य शक्तियों से युक्त) हो जाता है इसलिए उस अंग को ध्यान में रख कर उन्हें दिव्यांग कहा जाना चाहिए। मैं यहाँ आपसे कहना चाहूँगी कि भगवान हमें किसी ‘स्पेशल पैकेज’ के अंतर्गत ऐसी किसी दिव्य शक्ति का वरदान देकर नहीं भेजते। हम विकलांगजन अपने-अपने शरीर की कमियों के साथ जीने और समाज के मापदंडो पर खरे उतरने के लिए हर दिन संघर्ष करते हैं। कृपया हमारे संघर्ष, हमारी मेहनत का श्रेय किसी दिव्य शक्ति (जो हमें मिली नहीं है) को न दें। विकलांग होना कोई दिव्य अनुभव नहीं होता। दिव्य इंसान बता कर हमारे कष्टों को महिमामंडित करने के बजाये हमारे संघर्षों को कम करने पर ध्यान दें तो ये न सिर्फ हमारे लिए बल्कि पूरे देश के लिए श्रेयष्कर होगा। आपको यह समझना चाहिए कि शरीर की कमी से ज्यादा आधारभूत संरचनाओं की कमी व्यक्ति को विकलांग बनाती है। अगर मैं किसी सार्वजानिक कार्यालय में जाऊं और वहाँ केवल सीढ़ियाँ हो तो मैं विकलांग हूँ क्यूंकि दूसरों की मदद के बगैर मैं वहाँ अपना काम नहीं कर पाऊँगी। वहीँ दूसरी तरफ़ अगर उस सार्वजानिक कार्यालय में रैंप भी बने हो, तो मैं विकलांग नहीं हूँ क्यूँकी सामान्य लोगों की तरह ही मैं भी अपना काम खुद कर पाऊँगी।  

वैसे हमें ‘दिव्य’ मानव बनाने का विचार आपके दिमाग में आया कैसे? मेरे मन में एक शंका है...बुरा न मानें तो पूछूँ? अक्सर देखा है, ख़ास करके गांवों में, कुछ लोग विकलांगता को पूर्व जन्म के पाप का फल मानते हैं और विकलांगों से दूरी बना कर रखना चाहते हैं। वहीँ दूसरी ओर बहुत से लोग (खुद को ज्यादा समझदार और संवेदनशील मानने वाले) हम विकलांगों को ईश्वर का भेजा ख़ास दूत मानते हैं जो धरती पर उनके पापों का नाश करके उन्हें सीधे स्वर्ग का टिकट देने आयें हैं। ऐसे लोग स्वर्ग में अपनी जगह सुनिश्चित कराने के लिए अपने ख़ास दिनों में विकलांग व्यक्ति को कुछ ‘दान’ देते हैं और कहीं सड़क पर दिख जाने वाले विकलांग को प्रणाम करके अपने लिए मोक्ष का द्वार खोलते हैं। कहीं आप भी तो ऐसा... नहीं मानते न! अरे नहीं आप तो पढ़े-लिखे और बहुत समझदार इंसान हैं आप भला ये सब थोड़ी मानते होंगे। बस मन में एक जिज्ञाषा हुई तो पूछ लिया। देखिये आपके और समाज के तथाकथित सामान्य लोगों की तरह ही हम भी साधारण से इंसान हैं। हम ईश्वर के कोई दूत या स्पेशल पैकेज ले कर आये कोई दिव्य मानव नहीं हैं। यदि हमें समाज में कोई ख़ास इज्ज़त दिलाने के धेय से आपने दिव्यांग शब्द का ईज़ाद किया है तो विनम्रता पूर्वक कहती हूँ दिव्यांग जैसे हजारों शब्द भी हमें समाज में वो इज्ज़त नहीं दिला सकते क्यूँकी इज्ज़त कमानी पड़ती है। देश के प्रधानमन्त्री होने के नाते आप हमें आधारभूत संरचना और समान अवसर दें, हम समाज में अपनी पहचान और इज्ज़त बनाने का दम रखते हैं।

आलोकिता (एक विकलांग लड़की)   


शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

फ़र्ज़ का अधिकार




इस पुरुष प्रधान समाज में
सदा सर्वोपरि रही
बेटों की चाह
उपेक्षा, ज़िल्लत, अपमान से
भरी रही
बेटियों की राह
सदियों से संघर्षरत रहीं
हम बेटियाँ
कई अधिकार सहर्ष तुम दे गए
कई कानून ने दिलवाए
बहुत हद तक मिल गया हमें
हमारी बराबरी का अधिकार
जन्म लेने का अधिकार
पढने का,
आगे बढ़ने का अधिकार
जीवन साथी चुनने का अधिकार
यहाँ तक कि
कानून ने दे दिया हमें
तुम्हारी संपत्ति में अधिकार
लेकिन .....
हमारे फर्जों का क्या?
आज भी बेटियाँ बस एक दायित्व हैं
आज भी हैं केवल पराया धन
हर फ़र्ज़ केवल ससुराल की खातिर
माँ-बाप के प्रति कुछ नहीं?
बुढ़ापे का सहारा केवल बेटे,
बेटियाँ क्यूँ नहीं?
क्यूँ बेटी के घर का
पानी भी स्वीकार नहीं?
क्यों बुढ़ापे का सहारा बनने का
बेटियों को अधिकार नहीं?
सामाजिक अधिकार मिल गए बहुत
आज अपनेपन का आशीर्वाद दो
कहती है जो बेटियों को परायी
उस परंपरा को बिसार दो
हो सके तो मुझको, मेरे
फ़र्ज़ का अधिकार दो
मुझको मेरे फ़र्ज़ का अधिकार दो

........................................अलोकिता(Alokita)

गुरुवार, 9 जनवरी 2014

बेगैरत सा यह समाज . . . . .

हर रोज यहाँ संस्कारों को ताक पर रख कर
बलात् हीं इंसानियत की हदों को तोड़ा जाता है

नारी-शरीर को बनाकर कामुकता का खिलौना
स्त्री-अस्मिता को यहाँ हर रोज़ हीं रौंदा जाता है

कर अनदेखा विकृत-पुरुष-मानसिकता को यह समाज
लड़कियों के तंग लिबास में कारण ढूंढता नज़र आता है

मानवाधिकार के तहत नाबालिग बलात्कारी को मासूम बता
हर इलज़ाम सीने की उभार और छोटी स्कर्ट पर लगाया जाता है

दादा के हाथों जहाँ रौंदी जाती है छः मास की कोमल पोती
तीन वर्ष की नादान बेटी को बाप वासना का शिकार बनाता है

सामूहिक बलात्कार से जहाँ पाँच साल की बच्ची है गुजरती
अविकसित से उसके यौनांगों को बेदर्दी से चीर दिया जाता है

शर्म-लिहाज और परदे की नसीहत मिलती है बहन-बेटियों को
और माँ-बहन-बेटी की योनियों को गाली का लक्ष्य बनाया जाता है

स्वयं मर्यादा की लकीरों से अनजान, लक्ष्मण रेखा खींचता जाता है
बेगैरत सा यह समाज हम लड़कियों को हीं हमारी हदें बताता है


Ø  आलोकिता (Alokita)