न कहो कुछ आज, .....चुप हीं रहना
न सुनना हैं मुझे..... न कुछ हैं कहना
लफ्जों से परे मौन जगत में खोने दो
न रोको अश्कों को, जी भरके रोने दो
जैसे विचरता है जलद नील गगन में
चलो विचरें हम भी स्वप्न आँगन में
भूलकर कुछ देर को गतिहीन हो जाएँ
चलो ऐसा करे मौन जगत में खो जाएँ
चलो सूने में निहारे निर्बाध नयनों से
ढूंढे स्वयं का अस्तित्व भी अंतर्मन से
निःशब्दता में आपने बहुत कुछ कह दिया...बहुत ही लाजवाब और अनोखी प्रस्तुति......"मौन तो अनंत की भाषा होती है,जिसे आपने अपनी रचना में चरित्रार्थ किया है"...बधाई।
जवाब देंहटाएंbehad koobsurat.
जवाब देंहटाएंsunder
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कविता। कभी खुद से बातें करना शान्ति देता है। शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंचलो चले ...
जवाब देंहटाएंनिस्तब्धता के राही हम तुम ढूंढें अपना अस्तित्व ...
सुन्दर !
बहुत बढ़िया!
जवाब देंहटाएंमहाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ!
वाह! निशब्दता का खूब चित्रण किया है।
जवाब देंहटाएंप्रिय आलोकिता जी
जवाब देंहटाएंसस्नेहाभिवादन !
बहुत बहुत भाव भरी और भावों को जाग्रत करने वाली रचना है …
भूलकर कुछ देर को गतिहीन हो जाएं
चलो ऐसा करे मौन जगत में खो जाएं
चलो सूने में निहारें निर्बाध नयनों से
ढूंढें स्वयं का अस्तित्व भी अंतर्मन से
क्या बात है !
बधाई !
और भी श्रेष्ठ सृजन के लिए हृदय से …
♥♥ हार्दिक शुभकामनाएं ! मंगलकामनाएं ! ♥♥
- राजेन्द्र स्वर्णकार
कभी कभी चुप की परिभाषा, आवाज़ से भी तेज होती है यही दर्शाती है आपकी कविता बधाई
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