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बुधवार, 24 जून 2020

तब तब शहीद फिर मरता है










अरमान तो होंगे उसके भी
कि बेटा मरने पर कंधा दे
मुखाग्नि दे, श्राद्ध करे, श्रद्धा से उसको तर्पण दे
पर देखो वो माँ बेटे को ही कंधा दे आई
जुग जुग जियो कहती थी जिस लाल को
उसका अंतिम संस्कार अपनी आँखों से देख आई
सब कहते हैं देश के लिए जान देकर उसका बेटा मरा नहीं अमर हो गया है

एक बेटा शहीद हुआ तो क्या?
मैं दूसरे को भी रण में भेजूंगा
ये शान से कह रहा वो पिता
जिसके बुढ़ापे का सहारा छीन गया
कहता है बेटे का जन्म लिया तो इतना तो करना होगा
खतरे में हो देश तो बेटों को लड़कर मरना होगा
बुढ़ापे का सहारा चला गया पर गर्व से छाती चौड़ी है 
सब कहते हैं देश के लिए जान देकर उसका बेटा मरा नहीं अमर हो गया है

उनके घर आने की प्रतीक्षा में
जो एक-एक घड़ियाँ गिनती थी
आने पर घंटो बतियाऊंगी सोचकर
एक-एक छण मन में सहेज कर रखती थी
आज वही उसके सामने निष्प्राण पड़ा है
जिसकी लम्बी उम्र के लिए निर्जल व्रत वो करती थी
सदा सुहागन वाले सारे आशीर्वाद जाने कैसे निष्फल हो गए
गर्व, दुःख, शोक आज तो सारे आपस में गडमड हो गए
सब कहते हैं भले सुहागन न रही
पर उसका सुहाग देश के लिए मर कर अमर हो गया है

"हाँ अगली बार बक्से भर कर खिलौने लाऊँगा"
बेटे से यही वादा कर गए थे पापा
कैसा क्रूर मज़ाक है ये
ख़ुद बक्से में बंद होकर आ गए हैं पापा
वो दूध-पीती बच्ची जिसको थपकियाँ देकर माँ यही लोरी गाती थी
तेरे पापा जब आएँगे, गोदी में तुझे खेलायेंगे
वो तो जान भी नहीं पायेगी कि कैसे होते हैं पापा
उधर वो बड़ा बेटा अभी से प्रण कर बैठा
आपका बहादुर बेटा बनकर मैं भी दिखाऊंगा पापा
देखना आपकी तरह ही एक फौजी बन जाऊंगा पापा
सबने उसको समझा दिया है...
देश के लिए मरकर उसके पापा अमर हो गए हैं

शहीदों के शव के पीछे हज़ारों लोग नारा लगते हैं
स्टेटस डालते, सोशल मीडिया पोस्ट पर भी यही कहते हैं
देश के लिए मरने वाला होता है शहीद, नहीं कभी वो मरता है
जान गँवा कर भी वो अमर ही रहता है

क्या तुम भी यही मानते हो कि एक शहीद कभी मरता नहीं?

ध्यान से देखो...
ध्यान से देखो तो कहीं न कहीं एक शहीद रोज़ मरता है

और मारते हैं हम... उसके देशवासी
वही देशवासी जिनकी रक्षा के लिए वो लड़ा था
अपने साथियों संग दुश्मन के आगे दीवार बनकर खड़ा था

घुटनो का दर्द लेकर जब उसकी बूढी माँ
चलती हुई गांव के सरकारी हस्पताल तक जाती है
डॉक्टर साब शहर में प्राइवेट प्रैक्टिस करते हैं, यहां कभी कभी ही आते हैं
यह सुनकर जब वो मायूस लौटकर आती है
तब , हाँ तब वो शहीद फिर मरता है

कागज़ी कार्यवाई के नाम पर
वो सरकारी बाबू जब बुड्ढे बाप को
दफ़्तर दफ़्तर दौड़ाता है
तब, हाँ तब  शहीद फिर मरता है

उसकी शहादत पर मिले पैसों में भी
जब कोई अफसर घुस की हिस्सेदारी लगता है
तब, हाँ तब एक शहीद फिर मरता है

नौकरी का वादा देकर जब कोई नेता
उसके परिजनों को महीनों-सालों तक टहलाता है
तब, हाँ तब वो शहीद रोज़ मरता है

सरहद पर खड़े उसके साथियों के रसद-पानी में भी
जब कोई नेता, कोई अफसर घपला कर जाता है
तब, हाँ तब देश  का हर शहीद फिर मरता है 

कुछ पैसों की खातिर जब कोई देश द्रोही हो जाता है
देश में रहकर जब कोई देश तोड़ने को षड्यंत्र रचाता है
तब, हाँ तब देश का हर शहीद फिर मरता है

देश में रहना वाला कोई जब-जब अपने फ़र्ज़ से गद्दारी करता है
तब, हाँ तब कहीं न कहीं कोई शहीद फिर मरता है

देश सेवा के लिए ज़रूरी नहीं है सरहदों पर जाना
ईमानदारी से फ़र्ज़ निभाए तो हर इंसान देश को मज़बूत कर सकता है
निज़ी स्वार्थ को जब-जब कोई देश से  ऊपर रखता है
तब-तब हाँ तब-तब देश का शहीद फिर मरता है


गुरुवार, 17 अगस्त 2017

सोचता हूँ...



जब-जब किसी की चिता की लपटों को देखता हूँ...
होगा कैसा मेरे जीवन का अंत तब-तब ये सोचता हूँ !

पंच तत्वों में विलीन तो यह नश्वर शरीर होगा हीं...
सोचता हूँ आत्मा उसके अंजाम तक पहुंचेगी या नहीं?
 
वेद-विदित है ये परंपरा हमारी सब ऐसा  कहते हैं
मुखाग्नि देते बेटे, और तर्पण भी वही करते हैं

सुना है तब जाकर कहीं आत्मा को शान्ति मिलती है...
वर्ना सदियों तक वह बैतरनी में भटकती रहती है!

अरमानों से प्यारी बिटिया को ऐसे में जब देखता हूँ ...
बड़ी बेचैनी से उस हालात में मैं यह सोचता हूँ... 

जिसकी मासूम मुस्कान जीवन का हर दुःख हर लेती है
हाथों के कोमल स्पर्श से जो बेचैनी में भी सुकून देती है

वह मुखाग्नि दे  तो क्या चिता जलने से इनकार कर देगी?
उसके हाथों का तर्पण क्या आत्मा अस्वीकार कर देगी??

शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

मेरे जीवनसाथी

मेरे जीवनसाथी, ओ प्राणप्रिय, चलो मिलकर प्रेम रचें
स्वामित्व-दासत्व की कथा नहीं, विशुद्ध प्रेम लिखें
न तुम प्राणों के स्वामी, न हीं मैं तेरे चरणों की दासी
तुम ह्रदय सम्राट मेरे, और मैं तुम्हारी ह्रदय-साम्रागी

तुम्हारी खामियों सहित पूर्ण रूप से तुम्हें अपनाऊं
तुम भी मुझे मेरी अपूर्णताओं के संग स्वीकारो
तुम्हारे स्वजनों को पुरे ह्रदय से मैं अपना बना लूँ
मेरे भी कुछ आत्मीय हैं, यह बात तुम भी न बिसारो

ओ हमसफ़र मेरे हर कदम पर हम-कदम बन जाओ
न बाँधो व्रतों के फंदों में मुझे या तो स्वयं भी बंध जाओ
साथ मिलकर चलो साझी खुशियों की माँगे दुआएँ
साह्चर्य्ता का रिश्ता है चलो हर कदम साथ बढायें


शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

फ़र्ज़ का अधिकार




इस पुरुष प्रधान समाज में
सदा सर्वोपरि रही
बेटों की चाह
उपेक्षा, ज़िल्लत, अपमान से
भरी रही
बेटियों की राह
सदियों से संघर्षरत रहीं
हम बेटियाँ
कई अधिकार सहर्ष तुम दे गए
कई कानून ने दिलवाए
बहुत हद तक मिल गया हमें
हमारी बराबरी का अधिकार
जन्म लेने का अधिकार
पढने का,
आगे बढ़ने का अधिकार
जीवन साथी चुनने का अधिकार
यहाँ तक कि
कानून ने दे दिया हमें
तुम्हारी संपत्ति में अधिकार
लेकिन .....
हमारे फर्जों का क्या?
आज भी बेटियाँ बस एक दायित्व हैं
आज भी हैं केवल पराया धन
हर फ़र्ज़ केवल ससुराल की खातिर
माँ-बाप के प्रति कुछ नहीं?
बुढ़ापे का सहारा केवल बेटे,
बेटियाँ क्यूँ नहीं?
क्यूँ बेटी के घर का
पानी भी स्वीकार नहीं?
क्यों बुढ़ापे का सहारा बनने का
बेटियों को अधिकार नहीं?
सामाजिक अधिकार मिल गए बहुत
आज अपनेपन का आशीर्वाद दो
कहती है जो बेटियों को परायी
उस परंपरा को बिसार दो
हो सके तो मुझको, मेरे
फ़र्ज़ का अधिकार दो
मुझको मेरे फ़र्ज़ का अधिकार दो

........................................अलोकिता(Alokita)

गुरुवार, 9 जनवरी 2014

बेगैरत सा यह समाज . . . . .

हर रोज यहाँ संस्कारों को ताक पर रख कर
बलात् हीं इंसानियत की हदों को तोड़ा जाता है

नारी-शरीर को बनाकर कामुकता का खिलौना
स्त्री-अस्मिता को यहाँ हर रोज़ हीं रौंदा जाता है

कर अनदेखा विकृत-पुरुष-मानसिकता को यह समाज
लड़कियों के तंग लिबास में कारण ढूंढता नज़र आता है

मानवाधिकार के तहत नाबालिग बलात्कारी को मासूम बता
हर इलज़ाम सीने की उभार और छोटी स्कर्ट पर लगाया जाता है

दादा के हाथों जहाँ रौंदी जाती है छः मास की कोमल पोती
तीन वर्ष की नादान बेटी को बाप वासना का शिकार बनाता है

सामूहिक बलात्कार से जहाँ पाँच साल की बच्ची है गुजरती
अविकसित से उसके यौनांगों को बेदर्दी से चीर दिया जाता है

शर्म-लिहाज और परदे की नसीहत मिलती है बहन-बेटियों को
और माँ-बहन-बेटी की योनियों को गाली का लक्ष्य बनाया जाता है

स्वयं मर्यादा की लकीरों से अनजान, लक्ष्मण रेखा खींचता जाता है
बेगैरत सा यह समाज हम लड़कियों को हीं हमारी हदें बताता है


Ø  आलोकिता (Alokita)

मंगलवार, 12 जून 2012

जलने और जलने में हीं कितना अंतर आ जाता है



















जलने और जलने में हीं कितना अंतर आ जाता है 

शमा भी जलती चिता भी जलती 
जलती अगन दोनों में है 
औरों को रौशनी देने को शमा जलती,
कतरा-कतरा पिघलती है 
भष्म करके कई खुशियों अरमानो को हीं 
चिता कि लपटों को शान्ति मिलती है 
ज्योत शमा की चमक लाती नयनो में 
चिता की दाह अश्रुपूर्ण कर जाती है

जलने और जलने में हीं कितना अंतर आ जाता है 

उसी आग से जलता चूल्हा 
उसी से जलती भट्टी शराब की 
एक चूल्हे का जलना 
कई दिलों में ख़ुशी होठों पे हंसीं लाता है 
जलती जब एक शराब की भट्टी 
कितनो का घर लुट जाता है 
चूल्हे का जलना छुधा को तृप्ति पहुँचाता 
भट्टी स्वयं कितनी जिंदगियां, कितने रिश्तों को पी जाती है 

जलने और जलने में हीं कितना अंतर आ जाता है 

जितनी पावन सात फेरों की अग्नि 
उतनी हीं पापिन दहेज़ की अग्नि 
जन्म-जन्मान्तर के रिश्ते में बांधती 
बनती सात वचनों की साक्षी फेरों की अग्नि 
रिश्ते हीं नहीं शर्मशार करती मानवता को भी 
बहुओं को जिन्दा जलाती दहेज़ की अग्नि 
इक गढ़ती नित नव रिश्ते
दूजी फूंकती प्रेम की डोरी 

जलने और जलने में हीं कितना अंतर आ जाता है 

बीड़ी-सिगरेट के सिरे पर जलती छोटी लाल सी चिंगारी 
और जलती पूजा घर के धुप में भी 
दम घोंटता बीड़ी-सिगरेट का धुआँ 
मौत का दूत बन जाता है 
सुवासित करता धुप चहु दिशाओं को 
मानसिक सुकून भी पहुँचाता है 
इक कदम दर कदम मौत की तरफ ले जाता 
दूसरा आस्था का प्रतीक बन टिमटिमाता है 

जलने और जलने में हीं कितना अंतर आ जाता है 

प्रेम की अग्नि जलती दिलों में 
विरहाग्नि दिलों को जलाती है 
मिलन भी उतपत करता जिस्मो-ओ-जिगर को 
विरह की ऊष्मा भी जलाती है 
हो इकतरफा भी लगी अगन तो
ताप दूजे तक भी जाती है 
जलना ये भी कहलाता है 
जलना वो भी तो होता है 

जलने और जलने में हीं कितना अंतर आ जाता है

.....................................................आलोकिता गुप्ता      

गुरुवार, 3 मई 2012

क्या यही प्रेम परिभाषा है ?


तुझसे लिपट  के........... तुझी में सिमट जाऊं 
भुला  के खुद को.......... तुझपे हीं मिट जाऊं 
ये कैसी तेरी चाहत ? ये कैसा है प्यार सखे ?
मिट जाए पहचान भी नहीं मुझे स्वीकार सखे 

है प्यार मुझे भी, प्रीत की हर रीत निभाउँगी
तुझसे जुडा हर रिश्ता सहर्ष हीं अपनाउंगी
पर  भुला दूँ अपने रिश्तों को मुझसे ना होगा 
एक तेरे लिए बिसरा दूँ सब मुझसे ना होगा 

बेड़ियों सा जकड़ता जा रहा हर पल मुझको 
ये कैसा प्यार जो तोड़ रहा पल पल मुझको ?
खो दूँ अपना अस्तित्व ये कैसी प्रीत कि आशा है ?
पाके तुझको खुद को खो दूँ यही प्रेम परिभाषा है ?

                                                    .......................आलोकिता 

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

बेटी हूँ


















सुन लो हे श्रेष्ठ जनों 
एक विनती लेकर आई हूँ 
बेटी हूँ इस समाज की 
बेटी सी हीं जिद्द करने आई हूँ 
बंधी हुई संस्कारों में थी 
संकोचों ने मुझे घेरा था 
तोड़ के संकोचों को आज 
तुम्हे जगाने आई हूँ 
बेटी हूँ 
और अपना हक जताने आई हूँ 
नवरात्रि में देवी के पूजन होंगे 
हमेशा की तरह 
फिर से कुवांरी कन्याओं के 
पद वंदन होंगे 
सदियों से प्रथा चली आई 
तुम भी यही करते आये हो 
पर क्या कभी भी 
मुझसे पूछा ?
बेटी तू क्या चाहती है ?
चाहत नहीं 
शैलपुत्री, चंद्रघंटा बनूँ 
ब्रम्ह्चारिणी या दुर्गा हीं कहलाऊं 
चाहत नहीं कि देवी सी पूजी जाऊं 
कुछ हवन पूजन, कुछ जगराते 
और फिर .....
उसी हवन के आग से 
दहेज़ की भट्टी में जल जाऊं 
उन्ही फल मेवों कि तरह 
किसी के भोग विलास  को अर्पित हो जाऊं
चार दिनों की चांदनी सी चमकूँ
और फिर विसर्जीत  कर दी जाऊं
नहीं चाहती
पूजा घर के इक कोने में  सजा दी जाऊं 
असल जिन्दगी कि राहों पर 
मुझको कदम रखने दो 
क्षमताएं हैं मुझमें 
मुझे भी आगे बढ़ने दो 
मत बनाओ इतना सहनशील की 
हर जुल्म चूप करके सह जाऊं 
मत भरो ऐसे संस्कार की 
अहिल्या सी जड़ हो जाऊं 
देवी को पूजो बेशक तुम 
मुझको बेटी रहने दो 
तुम्हारी थाली का 
नेह  निवाला कहीं बेहतर है
आडम्बर के उन फल मेवों से 
कहीं श्रेयष्कर है 
तुम्हारा प्यार, आशीर्वाद 
झूठ मुठ के उस पद वंदन से  

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

जीवन की पगडंडियों पर

जीवन की पगडंडियों पर 
चलो कुछ ऐसे 
क़दमों के निशाँ 
शेष रह जाएँ 
तुम रहो न रहो 
दिलों में स्मृतियाँ 
शेष रह जाएँ 
एक बार हीं गुज़रना है 
इन राहों से 
और वक़्त संग 
सबको गुज़र जाना है 
गुज़रना हीं है तो 
क्यूँ न कुछ ऐसे गुजरें 
हमारे गुजरने का एहसास 
बहुतों के लिए 
विशेष हो जाये 
बने बनाये रास्ते 
ढूंढोगे कबतक ? 
लीक से हटकर 
नयी राहें गढ़ो
बुलंद कर लो 
हौंसले के दमपर
खुद को इतना 
बस धर दो पग जिधर 
दुनिया का रुख 
हो जाये उधर 
ठोकरें, असफलताएं भी आएँगी 
बस होकर इनसे रु-ब-रु
मंजिल की ओर बढ़ चलो 
पर ध्यान रहे 
छोड़ चलो 
कुछ क़दमों के निशाँ 
जीवन की पगडंडियों पर ..... 

गुरुवार, 26 मई 2011

ओ सृजक मेरे


यूँही मन में कुछ ख्याल आये और उन्हें लिखती चली गई कविता कुछ लम्बी हो गई |
वो कहते हैं 
पत्थरों की जुबाँ
नहीं होती 
पर तुम 
खूब समझते हो 
मेरी भाषा 
तो क्यूँ न 
दिल की बात 
तुमसे कह लूँ ?
कृतार्थ हूँ 
तुम्हारे हाथों में आ के 
तो क्यूँ न 
कृतज्ञता में
कुछ शब्द पुष्प 
अर्पित कर दूँ 
आह 
कितना विशाल था 
वह पर्वत 
टूटकर मैं 
जिससे गिरा था 
शिखर से 
लुढ़ककर 
मैं 
उसके तलवों में 
पड़ा था
देखता था  
कई राहियों को
आते जाते, 
कुछ निकलते 
कतरा के 
तो कई आते थे 
मतवाले 
झूमते गाते से 
अपनी मस्ती में 
खुद हीं 
ठोकर लगाते
मुझको 
औ कहते 
की ठोकर 
मैंने लगाई है
यूँ हीं 
होता बदनाम सदा 
मैं मूक पत्थर 
तुम्ही कहो 
क्या थी मेरी 
बिसात 
की ठोकरें 
लगता उन्हें ?
रहमत खुदा की 
जो नज़रें तुम्हारी 
मुझपर पड़ी 
और उन नज़रों में 
देखा मैंने 
अपना एक साकार रूप 
तुम्हारी 
अपेक्षाओं के साँचे में 
ढलना
बहुत कठिन है 
लेकिन 
साकार होने का सुख
इन कष्टों से 
बहुत बड़ा है 
और उसपर भी 
तुम्हारा 
स्नेहिल स्पर्श 
हर लेता है 
छैनी हथौड़े 
के प्रहारों से 
उत्पन्न हर कष्ट को 
पर कभी कभी 
व्याकुल 
कर जातीं हैं 
हथौड़े से घायल 
तुम्हारी उंगलियाँ 
और 
सजल से दो नैन 
मानव होकर 
मानव समाज से 
बिलकुल पृथक 
क्यूँ दीखते हो ?
ऐसा सोचता था  
कल हीं 
जाना मैंने 
पूर्वी सभ्यता 
और कला को 
ढोने वाले
तुम जैसे 
कारसाज़ 
पाश्चात्य लालित 
सभ्य
मानव-समाज 
का हिस्सा 
ना रहे 
लेकिन 
एक प्रश्न अब भी है 
मन में 
डरता हूँ 
जो साकार 
हो भी गया 
तो क्या चूका 
पाऊंगा 
तुम्हारे ............
नहीं 
एहसान कहकर
निश्छल स्नेह को 
कलंकित 
नहीं कर सकता 
लेकिन 
मान लो 
साकार न हो सका,
टूट गया मैं 
तो ???
एक बार 
बस एक बार 
सिने से लगाके 
संग मेरे 
रो लेना 
मेरे अवशेषों पर 
नेह नीर 
का एक कतरा 
तब भी तो 
दोगे ना ?
ओ सृजक मेरे