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बुधवार, 24 जून 2020

तब तब शहीद फिर मरता है










अरमान तो होंगे उसके भी
कि बेटा मरने पर कंधा दे
मुखाग्नि दे, श्राद्ध करे, श्रद्धा से उसको तर्पण दे
पर देखो वो माँ बेटे को ही कंधा दे आई
जुग जुग जियो कहती थी जिस लाल को
उसका अंतिम संस्कार अपनी आँखों से देख आई
सब कहते हैं देश के लिए जान देकर उसका बेटा मरा नहीं अमर हो गया है

एक बेटा शहीद हुआ तो क्या?
मैं दूसरे को भी रण में भेजूंगा
ये शान से कह रहा वो पिता
जिसके बुढ़ापे का सहारा छीन गया
कहता है बेटे का जन्म लिया तो इतना तो करना होगा
खतरे में हो देश तो बेटों को लड़कर मरना होगा
बुढ़ापे का सहारा चला गया पर गर्व से छाती चौड़ी है 
सब कहते हैं देश के लिए जान देकर उसका बेटा मरा नहीं अमर हो गया है

उनके घर आने की प्रतीक्षा में
जो एक-एक घड़ियाँ गिनती थी
आने पर घंटो बतियाऊंगी सोचकर
एक-एक छण मन में सहेज कर रखती थी
आज वही उसके सामने निष्प्राण पड़ा है
जिसकी लम्बी उम्र के लिए निर्जल व्रत वो करती थी
सदा सुहागन वाले सारे आशीर्वाद जाने कैसे निष्फल हो गए
गर्व, दुःख, शोक आज तो सारे आपस में गडमड हो गए
सब कहते हैं भले सुहागन न रही
पर उसका सुहाग देश के लिए मर कर अमर हो गया है

"हाँ अगली बार बक्से भर कर खिलौने लाऊँगा"
बेटे से यही वादा कर गए थे पापा
कैसा क्रूर मज़ाक है ये
ख़ुद बक्से में बंद होकर आ गए हैं पापा
वो दूध-पीती बच्ची जिसको थपकियाँ देकर माँ यही लोरी गाती थी
तेरे पापा जब आएँगे, गोदी में तुझे खेलायेंगे
वो तो जान भी नहीं पायेगी कि कैसे होते हैं पापा
उधर वो बड़ा बेटा अभी से प्रण कर बैठा
आपका बहादुर बेटा बनकर मैं भी दिखाऊंगा पापा
देखना आपकी तरह ही एक फौजी बन जाऊंगा पापा
सबने उसको समझा दिया है...
देश के लिए मरकर उसके पापा अमर हो गए हैं

शहीदों के शव के पीछे हज़ारों लोग नारा लगते हैं
स्टेटस डालते, सोशल मीडिया पोस्ट पर भी यही कहते हैं
देश के लिए मरने वाला होता है शहीद, नहीं कभी वो मरता है
जान गँवा कर भी वो अमर ही रहता है

क्या तुम भी यही मानते हो कि एक शहीद कभी मरता नहीं?

ध्यान से देखो...
ध्यान से देखो तो कहीं न कहीं एक शहीद रोज़ मरता है

और मारते हैं हम... उसके देशवासी
वही देशवासी जिनकी रक्षा के लिए वो लड़ा था
अपने साथियों संग दुश्मन के आगे दीवार बनकर खड़ा था

घुटनो का दर्द लेकर जब उसकी बूढी माँ
चलती हुई गांव के सरकारी हस्पताल तक जाती है
डॉक्टर साब शहर में प्राइवेट प्रैक्टिस करते हैं, यहां कभी कभी ही आते हैं
यह सुनकर जब वो मायूस लौटकर आती है
तब , हाँ तब वो शहीद फिर मरता है

कागज़ी कार्यवाई के नाम पर
वो सरकारी बाबू जब बुड्ढे बाप को
दफ़्तर दफ़्तर दौड़ाता है
तब, हाँ तब  शहीद फिर मरता है

उसकी शहादत पर मिले पैसों में भी
जब कोई अफसर घुस की हिस्सेदारी लगता है
तब, हाँ तब एक शहीद फिर मरता है

नौकरी का वादा देकर जब कोई नेता
उसके परिजनों को महीनों-सालों तक टहलाता है
तब, हाँ तब वो शहीद रोज़ मरता है

सरहद पर खड़े उसके साथियों के रसद-पानी में भी
जब कोई नेता, कोई अफसर घपला कर जाता है
तब, हाँ तब देश  का हर शहीद फिर मरता है 

कुछ पैसों की खातिर जब कोई देश द्रोही हो जाता है
देश में रहकर जब कोई देश तोड़ने को षड्यंत्र रचाता है
तब, हाँ तब देश का हर शहीद फिर मरता है

देश में रहना वाला कोई जब-जब अपने फ़र्ज़ से गद्दारी करता है
तब, हाँ तब कहीं न कहीं कोई शहीद फिर मरता है

देश सेवा के लिए ज़रूरी नहीं है सरहदों पर जाना
ईमानदारी से फ़र्ज़ निभाए तो हर इंसान देश को मज़बूत कर सकता है
निज़ी स्वार्थ को जब-जब कोई देश से  ऊपर रखता है
तब-तब हाँ तब-तब देश का शहीद फिर मरता है


रविवार, 22 अप्रैल 2018

रेप करने से बचने के कारगर उपाय

"यह मेसेज हर उस लड़की को भेजें जिससे आप प्यार करते हैं, जिनकी आप इज्ज़त करते हैं। देश की हर एक लड़की तक आज इस सन्देश का पहुँचना ज़रूरी है।"

ऐसा कोई न कोई मैसेज अक्सर घूमफिर कर हमारे पास विभिन्न माध्यमो से पहुँचता हीं रहता है। यदि यौनशोषण, महिला-उत्पीड़न जैसी कोई ख़बर सुर्ख़ियों में आ जाये, फिर तो ऐसे संदेशों की बाढ़-सी आ जाती है। ऐसे संदेशों को पढ़ कर मुझे ऐसा महसूस होता है जैसे देश की आधी आबादी दूसरी आधी आबादी के ख़िलाफ़ कोई षड्यंत्र रच रही है। अरे बाबा जब देश-समाज सबका है तो फिर सारे ब्रह्मज्ञान सिर्फ़ लड़कियों को क्यों? केवल लड़कियों के लिए रेप और मोलेस्टेशन से बचने के लिए टिप्स क्यूँ तैयार किये जाते हैं? बेचारे लड़कों सॉरी मेरा मतलब था 'मर्दों' को भी तो कोई टिप्स की लिस्ट तैयार करके दो कि रेप और मोलेस्टेशन जैसे घृणित काम करने से ख़ुद को कैसे बचाएँ!

वैसे एक बात ईमानदारी से बताऊँ? अभी सशक्त महिलाएँ और फेमिनिस्ट (ये फेमिनाज़ी) लडकियाँ मुझे इस बात के लिए घेर सकती हैं फिर भी ये रिस्क लेकर मैं सच कहना चाहूँगी। लडकियाँ चाहे कितना भी रो गा लें, कितना भी प्रोफाइल पिक्चर काली-पिली कर लें या चाहे जितने भी फेमिनिज्म वाले झंडे गाड़ लें, उनके औकात से बाहर की चीज़ है रेप जैसी चीजों को समाज से ख़त्म करना। हाँ सच कहती हूँ, समाज के इस घिनौने चेहरे को बदलने का दारोमदार मर्दों को हीं अपने मज़बूत कंधों पर लेना पड़ेगा।

कोई और तो लिख नहीं रहा था तो मैंने सोचा मैं हीं अपने समाज के मर्दों के मार्गदर्शन के लिए रेप और मोलेस्टेशन करने से बचने के लिए कुछ टिप्स लिख देती हूँ। आप सब से गुज़ारिश है कि इसे हर उस मर्द के साथ साझा करें जिसकी आप 'केयर' करते हों क्यूँकी लड़कियों का तो शरीर और मन हीं आहत होता है, रेप करने वाले मर्दों की तो आत्मा तक मलीन हो जाती है। उन्हें तो पता भी नहीं चलता कि मर्दानगी के धोखे में कब वह इन्सान से हैवान बन गए.

चलिए अब फटाफट बढ़ते हैं रेप और मोलेस्टेशन करने से बचने के उपायों की तरफ़...

1. पब्लिक प्लेस पर मोबाइल का इस्तेमाल कम से कम करें – स्मार्टफोन के इस ज़माने में आपको मोबाइल फ़ोन न रखने की सलाह तो नहीं दूँगी, लेकिन, आपको इसका इस्तेमाल काफ़ी सोच समझ कर करना चाहिए. यदि आप किसी पब्लिक प्लेस पर हैं तो ध्यान रखें आपको मोबाइल का प्रयोग सिर्फ़ निहायत ज़रूरी सुचना के आदान-प्रदान के लिए करना चाहिए. whatsapp और facebook जैसी सुविधाओं का इस्तेमाल तो बिलकुल भी न करें। वह क्या है न कि हर मर्द की ज़िन्दगी में बीसियों उदार भाव के मित्र होते हैं... इनसे अकेले कुछ हज़म हीं नहीं होता। अब बताइए जब आप पब्लिक प्लेस पर हों और आपके उदार मित्र सनी जी की बहनों वाली विडियो या फिर वह भाभी जी वाली हीं विडियो या चुटकुले भेज दें तो आपका तो मन करेगा ही न अगल-बगल से गुज़रती लड़कियों के कपड़ों के भीतर तक झाँक लेने का! और उन्हें छू लेने का भी! आपको अपने आँखों का इस्तेमाल एक्स-रे मशीन की तरह न करना पड़े इसके लिए बेहद ज़रूरी है सार्वजनिक स्थलों पर मोबाइल का इस्तेमाल आपातकालीन स्थिति में हीं करें।

2. हमेशा अपने साथ एक फैमिली एल्बम रखें – विज्ञान कहता है कि लड़कों का दिमाग 'विजुअल' होता है... किसी चीज़ को देख कर वह ज़्यादा अच्छे से समझ पाते हैं। इसलिए ज़रुरी है कि आपके पास हर वक़्त कोई विजुअल हिंट मौज़ूद हो। आप चाहें तो छोटा-सा फैमिली एल्बम रख सकते हैं या चाहें तो अपने मोबाइल में भी ये एल्बम बना कर रख सकते हैं। ध्यान रहे यदि आप मोबाइल में एल्बम बनाते हैं तो वह आपके फ्रंट स्क्रीन पर हो जिसे आप सिंगल टैप से खोल सकें। इस एल्बम में आपकी, आपके पिता या भाईयों की तस्वीर हो न हो माँ, बहन, भतीजी आदि सभी स्त्रीयों की तस्वीर हो जिनके साथ आपके मन का जुड़ाव हो। जब भी आपके दोस्त या आपका खुद का मन राह चलती किसी 'माल' को 'ताड़ने' के लिए आपको उकसाए तुरंत वह एल्बम खोलिए. सामने दिख रही माल और फोटो एल्बम में दिख रही माल के शारीरिक संरचना के बीच तुलना करना शुरू कीजिये। हाँ बाबा मालूम है फोटो एल्बम में आपकी माँ या बहन है पर बाकियों के लिए वह भी तो माल है न जैसे ये राह चलती लड़की आपके लिए? So, don' t take it personally! राह चलती लड़कियों में कौन ज़्यादा टंच माल है ये एनालिसिस तो आप अक्सर करते हैं... वही काम तो अब भी करना है बस अपने जीवन की अहम् औरतों के साथ! विश्वाश कीजिये आँखों में शर्म का पानी लाने के लिए यह नुस्खा बहुत कारगर है।

3. अपने दायित्वों का दायरा बढ़ायें – आपके दायित्वों का दाएरा काफ़ी छोटा है और बेशक इसके लिए आप अपने परिवार की महिलाओं को जिम्मेदार ठहरा सकते हैं। खाना देने, जूठी प्लेट उठाने, टी.वि। चलाकर रिमोट पकड़ाने, कपड़े धुलने, यहाँ तक कि समय पर जगा देने के लिए भी आप अपने घर की महिलाओं जैसे माँ, बहन, भाभी, बीवी आदि पर निर्भर होते हैं। शुरू से ऐसा करते-करते आपको पता हीं नहीं चलता कि आप कब अपनी हर छोटी से छोटी ज़रूरतों के लिए किसी न किसी महिला पर निर्भर हो गए. इस पर-निर्भरता को आप अनजाने हीं अपना हक़ समझने लगते हैं। आपको ऐसा लगता है कि महिलाओं का दायित्व है आपका हर काम करना, आपकी इच्छा-अनिच्छा के हिसाब से चलना। यही कारण है कि किसी कारणवश जब आपके शरीर का एक हिस्सा बेचैन होता है तो आपको लगता है सामने दिख रही महिला का ये दायित्व है कि वह आपकी बेचैनी को शांत करे। शुरुवात अपने छोटे-छोटे कामों का दायित्व स्वयं लेने से करें और 'अपना हाथ जगन्नाथ' के कॉन्सेप्ट को अपने जीवन में उतारें। अपनी ज़रूरतों का दायित्व ख़ुद वहन करना सिख लेंगे तो आपको बलात्कार जैसे घृणित मार्ग को चुनने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।

4. हमेशा अपने साथ पानी की एक बोतल रखें – पानी प्रकृति के द्वारा दी गयी एक अति-महत्त्वपूर्ण जीवनदायिनी सम्पदा है। इसकी ज़रूरत इंसान को कभी भी कहीं भी पद सकती है इसलिए एक पानी की बोतल हमेशा अपने साथ रखें। हमारे वातावरण में एक बहुत हीं ख़तरनाक वायरस घुस गया है जो किशोर से लेकर वृधावस्था तक के मर्दों को अपनी चपेट में ले रहा है। जब तुम्हारी कामुकता छोटी-छोटी बच्चियों को देखकर भी हिलोरें मारने लगें तब समझ लेना तुम उस जानलेवा वायरस की चपेट में आ चुके हो। जब तुम्हारा मन उन नन्हीं कलियों को मसल देने का होने लगे जिनके यौनांग अभी विकसित तक नहीं हुए तब समझ लेना तुम्हारी बीमारी अपने चरम तक पहुँच चुकी है। उस स्थिति में तुम्हें ये समझ लेना चाहिए कि तुम्हें जल्द से जल्द ईलाज की ज़रूरत है। ये ईलाज सिर्फ़ पानी से हीं हो सकता है। ऐसी स्थिति में पानी की तलाश में भटकना न पड़े इसलिए पानी की बोतल तुम्हारे पास होनी हीं चाहिए. जैसे हीं तुम्हारे मन में ऐसी घृणित बात आये अपने बोतल से चुल्लू भर पानी निकालो और उसमें डूब मरो। हाँ सच में इसका बस यही ईलाज है!

फ़िलहाल इन चार नुस्खों को अपने जीवन में इस्तेमाल करें ज़रूरत पड़ी तो हम आगे भी आपके मार्गदर्शन के लिए तत्पर रहेंगे। बहुत महत्त्वपूर्ण ज्ञान है इसलिए इसे स्वयं तक सीमित न रखें जितने ज़्यादा से ज़्यादा मर्दों से हो सके इसे साझा करें। बलात्कार-मुक्त भारत आपके सहयोग के बिना बनना नामुमकिन है। 

रविवार, 11 मार्च 2018

समाज! तुम अपनी रुढियों को मत तोड़ना



गिरवी हो जाना, बिक जाना बेटियों को ब्याहने में

बोझ-सा ढ़ोते रहना उन्हें अपनी कुरीतियों के आड़ में

बेटों के ब्याह में तुम जमकर उनका दाम लगाना

नपते-तुलते रह जाने देना जीवन-संगियों को दहेज़ के पैमाने में

समाज! तुम अपनी रुढियों को मत तोड़ना

चटख जाए विकलांगता की लकीर किसी के भाग्य में

प्रेरणाश्रोत कह कर उन्हें कभी-कभी अपनी महानता दिखा देना

और निजी ज़िन्दगी में इंसान मानने से भी कतरा जाना

टूट कर बिखरते देखते रह जाना तुम अपने स्वजनों को

समाज! तुम अपनी रुढियों को मत तोड़ना

जाती-धर्म के झगड़ों में मर जाने दो प्रेम के निर्दोष पंछियों को

हो जाने दो एहसास-विहीन पूरी मानवता को

तुम नफरतों से अपनी मान-मर्यादा में चार चाँद लगते रहना

मर जाने दो कोमल भावनाओं को हर इंसान के भीतर

समाज! तुम अपनी रुढियों को मत तोड़ना

संस्कार के बहलावे में हर पीढ़ी पर डाल देना रुढियों का दायित्व

पोषित-पल्लवित कराते रहना रुढियों को संस्कृति के नाम पर

न हो ये रूढ़ियाँ तो समाज तुम्हारा तो अस्तित्व हीं मिट जायेगा

हर इंसान की इंसानियत को पूरा खोखला हो जाने देना

समाज! तुम अपनी रुढियों को मत तोड़ना

गुरुवार, 17 अगस्त 2017

सोचता हूँ...



जब-जब किसी की चिता की लपटों को देखता हूँ...
होगा कैसा मेरे जीवन का अंत तब-तब ये सोचता हूँ !

पंच तत्वों में विलीन तो यह नश्वर शरीर होगा हीं...
सोचता हूँ आत्मा उसके अंजाम तक पहुंचेगी या नहीं?
 
वेद-विदित है ये परंपरा हमारी सब ऐसा  कहते हैं
मुखाग्नि देते बेटे, और तर्पण भी वही करते हैं

सुना है तब जाकर कहीं आत्मा को शान्ति मिलती है...
वर्ना सदियों तक वह बैतरनी में भटकती रहती है!

अरमानों से प्यारी बिटिया को ऐसे में जब देखता हूँ ...
बड़ी बेचैनी से उस हालात में मैं यह सोचता हूँ... 

जिसकी मासूम मुस्कान जीवन का हर दुःख हर लेती है
हाथों के कोमल स्पर्श से जो बेचैनी में भी सुकून देती है

वह मुखाग्नि दे  तो क्या चिता जलने से इनकार कर देगी?
उसके हाथों का तर्पण क्या आत्मा अस्वीकार कर देगी??

सोमवार, 17 जुलाई 2017

ये कैसा संस्कार जो प्यार से तार-तार हो जाता है?



जात-पात न धर्म देखा, बस देखा इंसान औ कर बैठी प्यार

छुप के आँहे भर न सकी, खुले आम कर लिया स्वीकार


हाय! कितना जघन्य अपराध! माँ-बाप पर हुआ वज्रपात

नाम डुबो दिया, कुलच्छिनी ने भुला दिए सारे संस्कार

कुल कलंकिनी, कुल घातिनी क्या-क्या न उसे कह दिया

फिर भी झुकी न मोहब्बत तो खुद क़त्ल उसका कर दिया



खुद को देश के नियम-कानूनों से भी बड़ा समझने वालों

प्रतिष्ठा की खातिर, बेटियों की निर्मम हत्या करने वालों

इज्ज़त और संस्कार की भाषा सिखा देना फिर कभी

पहले तुम स्वयं को इंसानियत का पाठ तो पढ़ा लो


हाय! ये कैसा संस्कार जो प्यार से तार-तार हो जाता है?

कैसी ये प्रतिष्ठा जिसमें हत्या से चार चाँद लग जाता है?

सोमवार, 19 सितंबर 2016

हरिजन बनाम दिव्यांग-जन: प्रधानमंत्री के नाम एक खुला ख़त


परम आदरणीय
श्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी
देश के वर्तमान प्रधानमन्त्री (स्वकथित प्रधान सेवक)

महाशय,
कहना चाहूँगी कि एक राजनीतिज्ञ के रूप में यह अति प्रशंसनीय है कि पार्टी से ऊपर उठ कर आपने देश के महान राजनेता को तवज्जो दिया और स्वच्छ भारत अभियान को गाँधी जी के सपने के रूप में प्रचारित करके आगे बढ़ाया। किसी महान व्यक्ति के पदचिन्हों पर चलना अच्छी बात है पर ये जरुरी तो नहीं कि उसकी की हुई गलती को भी हम दोहराएँ?

हमारे देश के महान राजनीतिज्ञ श्री मोहनदास करमचन्द गाँधी ने दलितों के उत्थान के नाम पर उन्हें ‘हरिजन’ बना दिया, ठीक उसी प्रकार आपके मन में बात आई और आपने विकलांगों को ‘दिव्यांग-जन’ की उपाधि दे डाली। वैसे मैं आप दोनों में से किसी भी राजनीतिज्ञ की मंशा पर संदेह नहीं कर रही (हो सकता है उनसे गलती हुई और आपने सिर्फ उसे दोहराया)  परन्तु कहीं न कहीं तो आप दोनों हीं असल मुद्दे से भटके हैं। गाँधीजी तो बीता कल हो चुकें हैं और कागज़ी तौर पर हरिजन शब्द के प्रयोग पर रोक भी लग चूका है परन्तु आप हमारे वर्तमान प्रधानमन्त्री हैं इसलिए आपसे अनुरोध है कि असल मुद्दे को छोड़ कर न खुद भटकें और न हमें गुमराह करने की कोशिश करें।

हरिजन और दिव्यांग-जन ये दोनों ही नाम भ्रमित करने वाले हैं। गाँधीजी ने मुख्यधारा से काटे गए तथाकथित नीची जाति के लोगों को नाम दिया ‘हरिजन’ मतलब हरी/भगवान का जन। क्या सिर्फ नीची जाति के लोग भगवान के जन होते हैं? यह तो आप भी समझते होंगे की यह नाम सिर्फ उन दलितों को सांत्वना के रूप में दिया गया था कि तुम(भी) ईश्वर की संतान हो। असल मायेने में समाज के अन्दर हरिजन भी उतना ही अपमानजनक शब्द है जितना अछूत या अश्पृश्य और इसीलिए हरिजन शब्द के प्रयोग पर सरकारी तौर पर रोक भी लगानी पड़ी। जब उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने का वक़्त था उसी वक़्त हरिजन नाम से ऐसी राजनीति हुई कि मुख्यधारा में आकर भी हरिजन समाज का एक अलग-थलग पड़ा हुआ अंग है।  शाब्दिक अर्थ देखें तो हरिजन के अर्थ में अपमानजनक कुछ भी नहीं बल्कि ये तो सम्मानसूचक शब्द है (और गाँधी जी ने यही समझाया भी था)। पर समाज में रहते हुए यह समझ में आता है कि हरिजन ठीक उसी प्रकार अपमानजनक है जिस प्रकार ‘माँ की आँख’ जैसी गालियाँ, जिनके शाब्दिक अर्थ में कुछ भी बुरा नहीं पर फिर भी इनमें क्या बुरा है ये तो सबलोग जानते हैं। आपका सुझाया हुआ शब्द ‘दिव्यांग-जन’ अपमानजनक न हो फिर भी हरिजन की तरह ही भ्रमित करने के साथ-साथ मुख्यधारा से हमेशा के लिए काट के एक अलग श्रेणी में बाँटने वाला शब्द है। दिव्यांग का अर्थ है जिसके अंग(अंगों) में दिव्य शक्ति हो। इस शब्द के प्रयोग के लिए आपने व्याख्या भी दी है कि किसी एक अंग के काम न करने की स्थिति में उसकी क्षतिपूर्ति के लिए प्रायः विकलांग व्यक्ति का कोई दूसरा अंग ज्यादा सक्रीय (दिव्य शक्तियों से युक्त) हो जाता है इसलिए उस अंग को ध्यान में रख कर उन्हें दिव्यांग कहा जाना चाहिए। मैं यहाँ आपसे कहना चाहूँगी कि भगवान हमें किसी ‘स्पेशल पैकेज’ के अंतर्गत ऐसी किसी दिव्य शक्ति का वरदान देकर नहीं भेजते। हम विकलांगजन अपने-अपने शरीर की कमियों के साथ जीने और समाज के मापदंडो पर खरे उतरने के लिए हर दिन संघर्ष करते हैं। कृपया हमारे संघर्ष, हमारी मेहनत का श्रेय किसी दिव्य शक्ति (जो हमें मिली नहीं है) को न दें। विकलांग होना कोई दिव्य अनुभव नहीं होता। दिव्य इंसान बता कर हमारे कष्टों को महिमामंडित करने के बजाये हमारे संघर्षों को कम करने पर ध्यान दें तो ये न सिर्फ हमारे लिए बल्कि पूरे देश के लिए श्रेयष्कर होगा। आपको यह समझना चाहिए कि शरीर की कमी से ज्यादा आधारभूत संरचनाओं की कमी व्यक्ति को विकलांग बनाती है। अगर मैं किसी सार्वजानिक कार्यालय में जाऊं और वहाँ केवल सीढ़ियाँ हो तो मैं विकलांग हूँ क्यूंकि दूसरों की मदद के बगैर मैं वहाँ अपना काम नहीं कर पाऊँगी। वहीँ दूसरी तरफ़ अगर उस सार्वजानिक कार्यालय में रैंप भी बने हो, तो मैं विकलांग नहीं हूँ क्यूँकी सामान्य लोगों की तरह ही मैं भी अपना काम खुद कर पाऊँगी।  

वैसे हमें ‘दिव्य’ मानव बनाने का विचार आपके दिमाग में आया कैसे? मेरे मन में एक शंका है...बुरा न मानें तो पूछूँ? अक्सर देखा है, ख़ास करके गांवों में, कुछ लोग विकलांगता को पूर्व जन्म के पाप का फल मानते हैं और विकलांगों से दूरी बना कर रखना चाहते हैं। वहीँ दूसरी ओर बहुत से लोग (खुद को ज्यादा समझदार और संवेदनशील मानने वाले) हम विकलांगों को ईश्वर का भेजा ख़ास दूत मानते हैं जो धरती पर उनके पापों का नाश करके उन्हें सीधे स्वर्ग का टिकट देने आयें हैं। ऐसे लोग स्वर्ग में अपनी जगह सुनिश्चित कराने के लिए अपने ख़ास दिनों में विकलांग व्यक्ति को कुछ ‘दान’ देते हैं और कहीं सड़क पर दिख जाने वाले विकलांग को प्रणाम करके अपने लिए मोक्ष का द्वार खोलते हैं। कहीं आप भी तो ऐसा... नहीं मानते न! अरे नहीं आप तो पढ़े-लिखे और बहुत समझदार इंसान हैं आप भला ये सब थोड़ी मानते होंगे। बस मन में एक जिज्ञाषा हुई तो पूछ लिया। देखिये आपके और समाज के तथाकथित सामान्य लोगों की तरह ही हम भी साधारण से इंसान हैं। हम ईश्वर के कोई दूत या स्पेशल पैकेज ले कर आये कोई दिव्य मानव नहीं हैं। यदि हमें समाज में कोई ख़ास इज्ज़त दिलाने के धेय से आपने दिव्यांग शब्द का ईज़ाद किया है तो विनम्रता पूर्वक कहती हूँ दिव्यांग जैसे हजारों शब्द भी हमें समाज में वो इज्ज़त नहीं दिला सकते क्यूँकी इज्ज़त कमानी पड़ती है। देश के प्रधानमन्त्री होने के नाते आप हमें आधारभूत संरचना और समान अवसर दें, हम समाज में अपनी पहचान और इज्ज़त बनाने का दम रखते हैं।

आलोकिता (एक विकलांग लड़की)   


रविवार, 8 मार्च 2015

लप्रेक 1

देखो न !  2 मिनट वाले फ़ास्ट फ़ूड की तरह दौर-ए-लप्रेक (लघु प्रेम कथा) चल पड़ा है। दौर बदलता चला जाए और मैं कहीं पीछे न छूट जाऊँ.....सोचकर मैं भी लिखने बैठ गई। सालों में पनपी और गहराई किसी की प्रेम कहानी को लेकिन चंद पंक्तियों में कैसे बयां कर दूँ ? हाँ! अपने दिल का हाल कहना हो तो तुम्हारा नाम लिख देती हूँ! लप्रेक की तरह तीन अक्षरों के तुम्हारे नाम में तो प्रेम का पूरा समंदर भरा है। या फिर तुम्हें ऐतराज़ न हो तो प्रेम की तरह, तुम्हारे pet name के ढाई अक्षर लिख कर हीं लोगों को लप्रेक सुना दूँ शोना !?!





आlokita

शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

मेरे जीवनसाथी

मेरे जीवनसाथी, ओ प्राणप्रिय, चलो मिलकर प्रेम रचें
स्वामित्व-दासत्व की कथा नहीं, विशुद्ध प्रेम लिखें
न तुम प्राणों के स्वामी, न हीं मैं तेरे चरणों की दासी
तुम ह्रदय सम्राट मेरे, और मैं तुम्हारी ह्रदय-साम्रागी

तुम्हारी खामियों सहित पूर्ण रूप से तुम्हें अपनाऊं
तुम भी मुझे मेरी अपूर्णताओं के संग स्वीकारो
तुम्हारे स्वजनों को पुरे ह्रदय से मैं अपना बना लूँ
मेरे भी कुछ आत्मीय हैं, यह बात तुम भी न बिसारो

ओ हमसफ़र मेरे हर कदम पर हम-कदम बन जाओ
न बाँधो व्रतों के फंदों में मुझे या तो स्वयं भी बंध जाओ
साथ मिलकर चलो साझी खुशियों की माँगे दुआएँ
साह्चर्य्ता का रिश्ता है चलो हर कदम साथ बढायें


शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

फ़र्ज़ का अधिकार




इस पुरुष प्रधान समाज में
सदा सर्वोपरि रही
बेटों की चाह
उपेक्षा, ज़िल्लत, अपमान से
भरी रही
बेटियों की राह
सदियों से संघर्षरत रहीं
हम बेटियाँ
कई अधिकार सहर्ष तुम दे गए
कई कानून ने दिलवाए
बहुत हद तक मिल गया हमें
हमारी बराबरी का अधिकार
जन्म लेने का अधिकार
पढने का,
आगे बढ़ने का अधिकार
जीवन साथी चुनने का अधिकार
यहाँ तक कि
कानून ने दे दिया हमें
तुम्हारी संपत्ति में अधिकार
लेकिन .....
हमारे फर्जों का क्या?
आज भी बेटियाँ बस एक दायित्व हैं
आज भी हैं केवल पराया धन
हर फ़र्ज़ केवल ससुराल की खातिर
माँ-बाप के प्रति कुछ नहीं?
बुढ़ापे का सहारा केवल बेटे,
बेटियाँ क्यूँ नहीं?
क्यूँ बेटी के घर का
पानी भी स्वीकार नहीं?
क्यों बुढ़ापे का सहारा बनने का
बेटियों को अधिकार नहीं?
सामाजिक अधिकार मिल गए बहुत
आज अपनेपन का आशीर्वाद दो
कहती है जो बेटियों को परायी
उस परंपरा को बिसार दो
हो सके तो मुझको, मेरे
फ़र्ज़ का अधिकार दो
मुझको मेरे फ़र्ज़ का अधिकार दो

........................................अलोकिता(Alokita)

सोमवार, 13 जनवरी 2014

गुब्बारे वाला


दायीं हथेली में मम्मी और बायीं हथेली में पापा की ऊँगली थामे, अपने नन्हे-नन्हे कदमो से चलती हुई सर्जना क्लास रूम तक पहुँची| शिक्षिका ने उसे अपने सामने देखते हीं गुस्से में कहा ‘फेल हुई हो तुम, दुबारा पढ़ना इसी क्लास में’ और कुछ बच्चे हँस पड़े| शिक्षिका का वह वाक्य और अपने सहपाठियों की हँसी उसके कोमल ह्रदय पर कठोर प्रहार से थे| अपने चारों ओर उसे खुद के लिए केवल तिरस्कार और उपेक्षा हीं नज़र आ रही थी, वह सहम गयी| वह चाहती थी कि पापा उसे गोद में उठा लें या मम्मी अपने आँचल में छुपा ले| वह सुरक्षित महसूस करना चाहती थी| उसने आशा भरी दृष्टी से अपने पिता को देखा, उन्होंने गुस्से में नज़रें फेर लीं, माँ के आँचल में लिपट जाना चाहा तो उन्होंने उसके कोमल से गाल पर एक ज़ोरदार तमाचा जड़ दिया| दोनों हीं आज सर्जना की वजह से शर्मिंदा थे, उनके सहकर्मियों के बच्चे अच्छे नंबरों से पास हुए थे और उनकी बेटी ने फेल होकर उनका सर शर्म से झुका दिया था (टिउसन में खर्च किये पैसे भी तो बर्बाद हुए)| उसकी हथेली से माँ-बाप की उँगलियाँ फिसल गयीं या उन्होंने खुद हाथ छुड़ा लिया उसे नहीं मालुम, पर क्या फर्क पड़ता है...| ठीक उसी तरह जैसे किसी को क्या फर्क पड़ता है कि सर्जना ने पास होने के लिए पूरी मेहनत की थी, क्या फर्क पड़ता है कि उसे भी फेल होना पसंद नहीं वह भी अपने सहपाठियों की तरह नयी कक्षा में जाना चाहती थी.......दुनिया परिणाम देखती है| परिणाम यह था कि सर्जना फेल हुई थी और वापस लौटते वक्त मम्मी-पापा के साथ तो थी पर उनकी उँगलियों का सहारा न था| वह अकेली हीं लौट रही थी....

घर पहुँचते हीं उसे उसकी सजा सुना दी गयी| उसके कमरे में उसे अकेले बंद कर दिया गया क्यूंकि उसे अकेले रहना पसंद नहीं था और नाहीं बंद कमरे में (अक्सर अपने लोग जानते हैं चोट कहाँ दी जाए)| कमरे में अकेले बैठी वह रोती रही, वह जानती थी कि उसने पूरी मेहनत की थी लेकिन याद किया हुआ वह कुछ भी तो याद नहीं रख पाती| वह दुखी थी, आत्मग्लानी से भरी हुई, उसके माता-पिता दुखी थे, गुस्से से भरे हुए, सबकी नज़रों में गुनहगार सिर्फ ‘सर्जना’ थी| उस छोटे से कमरे में बंद उस छोटी सी लड़की को क्या मालुम था कि बाहर बड़े-बड़े सम्मेलनों, अखबारों, व्याख्यानों में बड़े-बड़े लोग अक्सर ‘हर बच्चा खास है’ जैसी पंक्तियाँ बोल कर कितनी तालियाँ, कितनी वाह-वाहियाँ बटोर ले जाते हैं| उसे तो बस इतना पता था कि वह खास नहीं है और वह खास हो भी नहीं सकती| वह तो केवल साधारण से अंक लेकर पास होने वाले सभी आम बच्चों की तरह आम होना चाहती थी पर वह तो आम भी नहीं थी|

घंटो रोती-रोती सर्जना चुप हुई और उसी वक्त उसकी माँ उसके लिए खाना लेकर आई और उसे चुपचाप बैठा देख कर बोली ‘कुछ शर्म बाकी है तो अब भी तो पढ़ ले’ और उसके सामने खाना रख कर चली गयी| आत्मग्लानी और बेबसी से वह फिर सिसकने लगी| माँ ने तो अपनी खीझ उसपर निकाल ली (और शायद पापा ने माँ पर) लेकिन वह किसको कुछ कह सकती थी...

कुछ देर बाद कमरे में फिर सन्नाटा पसर गया और बाहर सड़कों पर हलचल बढ़ गयी| खिडकी बंद थी, शायद शाम ढलने को थी क्यूंकि शाम को हीं तो इतनी चहल पहल और शोर बढ़ जाता है...हर रोज़| टन-टन टन-टन घंटी बजाता हुआ कोई गुज़रा, वह पहचानती थी उस आवाज़ को समझ गयी ‘हवा मिठाई’ बेचने वाला था| ‘मुन्नी बदनाम हुई’ गाना बजाता हुआ ‘कुल्फी’ वाला गुज़रा, फिर थोड़ी देर बाद ढब-ढब की आवाज़ करता आइस-क्रीम वाला, गोल्डेन होगा या फिर रौलिक वाला भी हो सकता है| हर बच्चे की तरह उसका मन भी इन चीजों के लिए ललचाता था लेकिन वह मूर्तिवत बैठी रही| थोड़ी देर बाद एक और आवाज़ आई जिसे वह पहचान नहीं पायी| हर क्षण वह आवाज़ पास आ रही थी फिर शायद वह जो भी था उसकी खिडकी के पास हीं ठहर गया| मन में उत्सुकता तो थी लेकिन वह कुछ भी ऐसा नहीं करना चाहती थी जिससे मम्मी-पापा को और बुरा लगे इसलिए उसने खिडकी खोल कर बाहर नहीं देखा| कुछ देर बाद वह आवाज़ फिर दूर जाने लगी और धीरे-धीरे खत्म हो गयी|


अगले दिन से उसे ज्यादा से ज्यादा देर तक पढ़ने की हिदायत मिली और शाम को खेलना बंद कर दिया गया| वह पढ़ रही थी, काफी देर से पढ़ रही थी यहाँ तक शाम को जब सभी बच्चे खेल रहे थे वह तब भी किताब के साथ हीं बैठी थी| बाहर सबकुछ रोज़ जैसा हीं था, उसके होने या न होने से बाहर की दुनिया को कोई फर्क नहीं पड़ा था| अचानक फिर वही जादुई सी आवाज़ जो कल उसने पहली बार सुनी थी, फिर कहीं दूर से पास आ रही थी| आज वह खुद को रोक नहीं पायी, पलंग के सिरहाने के पास वाली खिडकी पर चढ़ कर इधर-उधर देखने लगी(मम्मी तो ऐसे भी टी. वि देखने में व्यस्त थी अपने कमरे में)| आज उसे मालुम हुआ वह तो एक गुब्बारे वाला था जो कुछ बजाता हुआ आ रहा था, वह ‘कुछ’ क्या था उसका नाम तो सर्जना को भी नहीं मालुम पर शायद कहीं ऐसी तस्वीर देखि थी उसने| वह गुब्बारे वाला, गुब्बारे बेचता हुआ आकर उसकी खिडकी के बाहर पड़े पत्थरों के ढेर पर बैठ गया, शायद थक गया था आराम करना चाहता था| लेकिन छिः उन्ही पत्थरों के ढेर पर तो रात को कुत्ते सोते हैं और एक दिन तो सर्जना की चप्पल में वहीं खेलते वक्त डॉगी की पौटी लग गयी थी| अचानक उसने बोला ‘गुब्बारे वाले वहाँ मत बैठो, वहाँ तो डॉगी सोता है’(पौटी करता है बोलने वाली थी पर कुछ सोच कर चुप रह गयी)| उसकी तरफ प्यार से देखते हुए गुब्बारे वाला हँस कर बोला बड़ी प्यारी बच्ची है और वहीं बैठ गया| खैर वह कहीं बैठे गुब्बारे तो उसके पास बहुत तरह-तरह के थे, इतने रंग-बिरंगे कि शायद टीचर को भी इन रंगों के नाम मालुम न हो (यह ख्याल मन में आते हीं उसके होठों पर एक मासूम हँसी तैर गयी)| वह देख रही थी कुछ बच्चे आ-आ कर गुब्बारे वाले से अपनी-अपनी पसंद के गुब्बारे खरीद रहे थे| उसने सोचा अगर मम्मी उसे गुब्बारे खरीद दे तो वह कौन सा लेगी? उसे तो सभी पसंद हैं| थोड़ी देर बाद जब गुब्बारे वाला उठ कर जाने लगा तो सर्जना ने हाथ बढ़ा कर गुब्बारे छूने की कोशिश की और वह कामयाब रही| उसकी नन्ही हथेलियों को सहलाते हुए एक गुब्बारा गुज़रा......बिलकुल आसमान के रंग का...उसकी ड्राविंग बुक के आसमान के रंग का|


उस दिन से तो रोज़ का नियम हो गया....गुब्बारे वाले का इंतज़ार...| वह आता भी रोज़ था और वहीं बैठता था, सर्जना को देख कर मुस्कुराता और रोज़ उसे एक गुब्बारा देता, जिसे वह कभी भी खिडकी की सलाखों के बीच से अंदर नहीं ला पाती थी बस थोड़ी देर हाथ में ले कर लौटा देने में ही उसे अपार खुशी होती थी| गुब्बारा लेने या उससे खेलने से ज्यादा बड़ी खुशी इस बात की थी कि उसके सिवा गुब्बारे वाला किसी और बच्चे को बिना पैसे लिए गुब्बारे छूने भी नहीं देता था| एक दिन कारण पूछने पर उसने कहा था कि वह उसे उन सारे बच्चों से ज्यादा अच्छी लगती है, सबसे अलग| सर्जना को भी तो वह गुब्बारे वाला बहुत अच्छा लगता था, यूँही नहीं वह अपनी हर कॉपी के पीछे गुब्बारे वाले की चित्र बनाती रहती थी| सर्जना की  खुशी और गुब्बारे वाले के खास होने का कारण वो गुब्बारे नहीं बल्कि वह एहसास था जो उसे उस गुब्बारे वाले ने उसे दिया था.....’खास होने का एहसास’                   

गुरुवार, 9 जनवरी 2014

बेगैरत सा यह समाज . . . . .

हर रोज यहाँ संस्कारों को ताक पर रख कर
बलात् हीं इंसानियत की हदों को तोड़ा जाता है

नारी-शरीर को बनाकर कामुकता का खिलौना
स्त्री-अस्मिता को यहाँ हर रोज़ हीं रौंदा जाता है

कर अनदेखा विकृत-पुरुष-मानसिकता को यह समाज
लड़कियों के तंग लिबास में कारण ढूंढता नज़र आता है

मानवाधिकार के तहत नाबालिग बलात्कारी को मासूम बता
हर इलज़ाम सीने की उभार और छोटी स्कर्ट पर लगाया जाता है

दादा के हाथों जहाँ रौंदी जाती है छः मास की कोमल पोती
तीन वर्ष की नादान बेटी को बाप वासना का शिकार बनाता है

सामूहिक बलात्कार से जहाँ पाँच साल की बच्ची है गुजरती
अविकसित से उसके यौनांगों को बेदर्दी से चीर दिया जाता है

शर्म-लिहाज और परदे की नसीहत मिलती है बहन-बेटियों को
और माँ-बहन-बेटी की योनियों को गाली का लक्ष्य बनाया जाता है

स्वयं मर्यादा की लकीरों से अनजान, लक्ष्मण रेखा खींचता जाता है
बेगैरत सा यह समाज हम लड़कियों को हीं हमारी हदें बताता है


Ø  आलोकिता (Alokita)

सोमवार, 30 दिसंबर 2013

जी करता है . . .

तेरे प्यार पर जां निशार करने को जी करता है
तेरी हर बात पर ऐतबार करने को जी करता है

बेपनाह हों दूरियाँ , भले तेरे-मेरे दरमियाँ
क़यामत तक तेरा इंतज़ार करने को जी करता है

हाथों में हाथ हो, तू मेरे अगर जो साथ हो
दुनिया के हर डर से इनकार करने को जी करता है

तेरे दामन की खुशियाँ भले हमें मिले न मिले
तेरा हर अश्क़ खुद स्वीकार करने को जी करता है 

खामोश हो जाते हैं लब तेरे सामने जाने क्यूँ 
हर रोज़ मगर प्यार का इज़हार करने को जी करता है 


शनिवार, 14 दिसंबर 2013

अच्छा लगता है


ख़ामोश तन्हाइयों से निकल, किसी भीड़ में खो जाना
अच्छा लगता है कभी-कभी भीड़ का हिस्सा हो जाना

भूल कर अपने आज को, बीती गलियों में मंडराना
अच्छा लगता है कभी-कभी पुरानी यादों में खो जाना

शब्दों में बयां किए बगैर, दिल के एहसासों को जताना
अच्छा लगता है कभी-कभी मुस्कुरा के खामोश हो जाना

बेमतलब बेईरादतन बार-बार यूँ हीं मुस्कुराना
अच्छा लगता है कभी-कभी अंजाने ख्यालों में खो जाना

दुनिया के कायदों, अपने उसूलों को तार-तार करना
अच्छा लगता है कभी-कभी बन्धनों से आज़ाद हो जाना


                                                      






........आलोकिता 

शनिवार, 7 दिसंबर 2013

तुम . . .


बेधड़क गूँजता अट्टहास नहीं
हया से बंधी अधरों की अधूरी मुस्कान हो तुम

जिस्म की बेशर्म नुमाइश नहीं
घूँघट की आड़ से झांकते चेहरे की कशिश हो तुम

उठी हुयी पलकों का सादापन नहीं
झुकी झुकी सी पलकों का स्नेहिल आकर्षण हो तुम

भूली-बिसरी कोई गीत नहीं
हर वक्त ज़ेहन में मचलती अधूरी कविता हो तुम

साधारण सी कोई बात नहीं
इक अलग सा कुछ खास हीं एहसास हो तुम


लब पे आ सके वो नाम नहीं

दिल के कोने में बसा अंजाना जज़्बात हो तुम



                                         






...आलोकिता

मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

मेरी वो चीज ढूंढ के ला दो

सुनिए ज़रा .....

अरे हाँ भई आप ही से बात कर रही हूँ, एक छोटी सी मदद चाहिए थी. कुछ खो गया है मेरा ढूंढने में मेरी मदद कर देंगे? हाँ हाँ बहुत ज़रुरी चीज़ है, कोई अहम चीज़ न होती तो नाहक हीं क्यूँ परेशान करती आपको? उसकी अहमियत? मेरे दिल से पूछिए तो मेरी आज़ादी, मेरा स्वावलंबन, मेरा स्वाभिमान सब कुछ तो है वो और आपके समझने वाली किताबी भाषा में बोलूँ तो मेरा “मौलिक अधिकार”. क्या कहा आपने, मुझे पहले खुद प्रयास करनी चाहिए थी? मैंने बहुत प्रयास किया, कसम से हर जगह ढूंढा पर कहीं नहीं मिला.

हाँ सच कहती हूँ मैं स्कूल गयी मैं कॉलेज भी गयी अपने बराबरी का अधिकार, अपनी शिक्षा का अधिकार ढूंढने पर . . . क्या बताऊँ मुख्य द्वार पर हीं रोक दिया गया. नहीं नहीं किसी ने खुद आकर नहीं रोका पर वहाँ केवल सीढियाँ हीं सीढियाँ थीं कोई रैम्प नहीं जिससे मैं या मेरे जैसे और भी व्हील्चेयर इस्तेमाल करने वाले लोग, कैलिपर, बैसाखियों वाले या फिर दृष्टि बाधित लोग जा सकें. हाँ एक कॉलेज में रैम्प जैसा कुछ देख के आशा जगी कि शायद यहाँ मिल जाए मेरे अधिकार लेकिन वह भी ऐसा रैम्प था कि चढ़ने का प्रयास करते हीं व्हीलचेयर के साथ लुढक कर सड़क पर गीर गयी. फिर भी मैं वापस नहीं लौटी, एक राहगीर से मदद ले कर अंदर गयी . . . क्या आप विश्वाश करेंगे अंदर एक भी कमरा जी हाँ एक भी कमरा ऐसा नहीं था जिसमें मेरे जैसे विकलांग छात्र-छात्राएं जा सकें और जब हमारे पढ़ने के लिए कक्षाएं हीं नहीं तो शौचालय ढूँढना तो बेवकूफी हीं है. मन में एक बात आई ‘क्या ये शिक्षण संस्थान ये मान कर बनाये जाते हैं कि हमारे देश में विकलांग छात्र है हीं नहीं? क्या ऐसा सोच कर वो हमारे मौलिक अधिकारों का हनन नहीं कर रहे?’
 

क्या? पत्राचार से घर बैठे डिग्री ले लेने के बाद मेरी लाइफ सेट है? सरकारी नौकरी की बात कर रहे हैं? हा हा हा हा ... माफ कीजियेगा, आप पर नहीं हँस रही, बस हँसी आ गयी वो कहते हैं न ‘ज़न्नत की हकीकत हमें भी मालुम है ग़ालिब, दिल बहलाने को ये ख़याल अच्छा है’. पहले सबकी बातें सुन सुन कर मैं भी कुछ ऐसा हीं सोचती थी और मैंने तो एक नौकरी के लिए फॉर्म भरा भी था. सचमुच विकलांगो के लिए एक अलग सेंटर दिया था उन लोगों ने, और पता है उस सेंटर की खासियत क्या थी? खासियत ये थी कि एक भी कमरा निचली मंजिल पर नहीं था, सभी को सीढियाँ से उपरी मंजिलों तक जाना था. कोई गोद से जा रहा था तो कोई ज़मीन पर घिसटते हुए. जब आगाज़ ये था तो अंजाम की कल्पना तो की हीं जा सकती है. विश्वाश नहीं हो रहा? अरे कोई बात नहीं मेरा विश्वाश ना कीजिये सरकारी दफ्तरों के एक चक्कर लगा के देख लीजिए खुद नज़र आ जायेगा कि उन दफ्तरों की संरचना कितनी सुगम है. कोई भी बैंक, ए०टी०एम, पोस्ट ऑफिस कहीं भी जा कर देख लीजिए कि विकलांगो चाहे वो कर्मचारी हो या कोई और किसी के लिए भी आने जाने का रास्ता बना है कहीं? अगर बराबरी का अधिकार है तो कहाँ है? नज़र क्यूँ नहीं आता?

जी क्या बोला आपने? मेरा दिमाग गरम हो गया है? थोड़ी ठंढी हवा खा लूँ? हाँ ठीक है पँखा चला लेती हूँ पर ठंढी हवा से याद आया सभी कहते हैं प्राकृतिक हवा स्वास्थ के लिए बहुत लाभकारी होती है और यही सोच कर मैं भी और लोगों की तरह पार्क गयी थी लेकिन देखिये ना इतने सारे पार्क सब के लिए 3-3, 4-4 गेट बने हुए हैं पर उसमें से एक भी गेट विकलांगो की सुगमता के लिए नहीं.

विकलांगो को और लोगों से बढ़ कर सुविधा दी जाती है? करोड़ों रूपए खर्च होतें है? आप भी न, नेताओं वाली भाषा बोलने लगे. हाँ बाबा जानती हूँ निशक्तता पेंशन अलग अलग राज्यों में अलग अलग योजनाओं के तहत बांटे जाते हैं. पिछले साल मुझे भी मिले थे (इस बार वाले का कुछ पता नहीं) पर तीन सौ रूपए महीने में कौन कौन सा खर्च निकल जाएगा? मैं ये बिलकुल नहीं कह रही कि इस राशि को बढ़ाया जाय मैं क्या कोई भी नहीं कहता. कहना तो ये है कि बंद हो जाए ये पैसे लेकिन बदले में हमें हमारे मौलिक अधिकार मिले. स्कूल, कॉलेज, दफ्तर सभी सार्वजनिक स्थल ऐसे हों कि हम अपनी मर्ज़ी से स्वाभिमान के साथ कहीं भी जाएँ, अपनी प्रतिभा, अपने हुनर से अपनी जीविका के लिए खुद कमा सकें. किसी एक अंग के कमज़ोर या न होने के कारण हम ‘निशक्त’ हैं यह एक ग़लतफ़हमी है.

कहने के लिए तो ट्रेन में सफर करने के लिए किराए में छूट दी जाती है पर इस छूट का क्या फायेदा जब ट्रेन के डब्बे ऐसे हों जिनमें हम खुद जा हीं न सके, जिसका शौचालय हमारे उपयोग के लायक हो हीं नहीं? ट्रेन में सफर करने के लिए भी बाकी लोगों के टिकट तो घर बैठे ऑनलाइन बनाये जा सकते हैं पर विकलांगो का टिकट तो काउंटर पर जा कर ही बनेगा. मेधा छात्रवृति की बात हो तो भी बाकी छात्र तो अपने अपने कॉलेज में हीं फॉर्म भर लेते हैं लेकिन विकलांग छात्रों को एक दूसरी जगह से फॉर्म मिलता है वो भी जमा करने खुद जाना होता है. क्या इसी को बराबरी का अधिकार कहते हैं? कहने को तो अभी बहुत कुछ है पर कहूँगी सिर्फ इतना कि मेरे सारे मौलिक अधिकार ढूंढ के ला दीजिए. हर जगह देख लिया नहीं मिला लेकिन अब रहा नहीं जाता कहीं से भी मुझे मेरे अधिकार चाहिए.   

...आलोकिता  

गुरुवार, 17 अक्तूबर 2013

तेरी हर याद ........

Drawn by me

हो प्यार का सुर जिसमें, वो गीत सुनाती है 
तेरी हर याद मुझे, तेरी ओर बुलाती है

जिसकी धुन सुन कर, दिल रोज़ धड़कता है.
मुझे प्यार की मीठी सी, संगीत सुनाती है

तेरी हर याद मुझे, तेरी ओर बुलाती है.

है मीलों की दूरी, पर हर पल साथ ही हो
साँसे बन कर यादें, मेरा दिल धड़काती हैं

तेरी हर याद मुझे, तेरी ओर बुलाती है

सपनो में रोज़ मेरे, एक तू ही तो आता है
मेरी सुनी आँखों में , नये ख्वाब सजाता है

गुज़री कितनी रातें , गुज़रे कितने ही दिन
एक पल भी लेकिन, यादें छूट ना पाती हैं

तेरी हर याद मुझे, तेरी ओर बुलाती है

बुधवार, 9 अक्तूबर 2013

एक खुशख़बरी है

कभी कविता तो कभी लेख, कभी ग़ज़ल तो कभी कहानी अलग अलग रूपों में अक्सर ही इस ब्लॉग पर 
आपसे अपने विचार, अपनी भावनाएँ, अपने जज़्बात सब साझा करती आई हूँ | आज एक खुशख़बरी साझा करनी है, कहते है ना बाँटने से खुशियाँ बढ़ती हैं| वैसे तो इस खुशख़बरी से मैं सीधे तौर पर जुड़ी हूँ लेकिन यह केवल मेरी निज़ी खुशी नही है, ये तो हमारे पूरे देश के लिए एक खुशी की खबर है| तो दोस्तों वो खुशी की खबर ये है कि हमारे देश में सकारात्मक बदलाव की एक ठंढी बयार बह रही है| हमारा देश, हमारा समाज बदल रहा है, बदल रहे हैं लोगो के सोच और उनका नज़रिया| पूर्णता और अपूर्णता के बीच की दीवार में पड़ने लगी है दरार और खुलने लगे हैं कुछ दरवाज़े सबके लिए जो कल तक समाज के एक ख़ास वर्ग के लिए बंद थे| पता है आपको इस साल से पहली बार हमारे देश में मिस इंडिया सौंदर्य प्रतियोगिता आयोजित की जा रही है शारीरिक रूप से अक्षम लड़कियों के लिए | पूरे देश की अक्षम लड़कियों को दिया जा रहा है ये मौका खुद को साबित करने का, ये एहसास करने का मौका क़ि वे भी खूबसूरत है | खूबसूरती केवल शारीरिक आकर्षण का नही, खूबसूरती जो छुपी है उनके अंदर- जज़्बातों की खूबसूरती, खयालतों की खूबसूरती | यह प्रतियोगिता केवल खूबसूरती नही बौद्धिक क्षमता का भी आंकलन करेगी | चौबीस नवंबर को मुंबई में होगा इस प्रतियोगिता का अंतिम चरण जिसके बाद चुन ली जाएगी हमारे देश की पहली मिस व्हीलचेयर इंडिया |

जैसा कि मैने पहले कहा कि इस खुशख़बरी से मैं भी सीधे तौर पर जुड़ी हूँ, तो चलिए वो निज़ी खुशी भी आपसे साझा कर लूँ| मेरे एक दो पुराने पोस्ट्स से शायद कुछ लोगो को ये मालूम होगा कि मैं भी व्हीलचेयर के बगैर खड़ी नही हो सकती| बचपन से कभी ये सोचा नही था की मैं 'आलोकिता' कभी किसी सौंदर्य प्रतियोगिता का हिस्सा भी बन सकती है, पर आज मैं उन छत्तिस लड़कियों में से एक हूँ जिनके लिए अभी जनता के मतदान लिए जा रहे हैं| मुंबई जाने के लिए अभी मुझे आप लोगो के सहयोग की आवश्यकता है| मेरा मानना है कि मेरी रचनाएँ हीं मेरी पहचान हैं और ये ब्लॉग जगत मेरी पहचान से भली-भाँति वाकिफ़ है | ना सिर्फ़ मेरी तस्वीर देख कर बल्कि मेरी रचनाओं के आधार पर आप ये सोच कर बताएँ की क्या मैं उस काबिल हूँ की भारत की पहली मिस व्हीलचेयर इंडिया बन सकूँ? अगर हाँ तो अपनी सहमति जताने के लिए voting.misswheelchair@gmail.com  इस आई डी पर एक छोटा सा मेल भेजें, जिसमें लिखना है आपका नाम(भेजने वाले का), जगह और Contestant no.12 जो की मेरा कोड है|
 

















आप अगर चाहें तो इस Link पर जा कर इस प्रतियोगिता की पूरी जानकारी ले सकते हैं ।

मंगलवार, 3 सितंबर 2013

ख़ामोशी की दीवार ढह जाती तो अच्छा था


कड़वी यादें बीते पलों संग हीं रह जाती तो अच्छा था 
वो यादें या फिर अश्कों के संग बह  जाती तो अच्छा था

 कुछ ख़ास नहीं हैं दूरियाँ ,  तेरे-मेरे दरमियाँ 
बस ख़ामोशी की दीवार ये ढह जाती तो अच्छा था 

नाकाम कोशिशें ख़ामोशी के सन्नाटे को और गहराती है 
इन खामोशियों से बेपरवाह हीं रह जाती तो अच्छा था 

मुश्किल है एहसासों को दिल में छिपाए रखना 
गिले-शिकवे तुम्ही से सब कह जाती तो अच्छा था 

महफ़िलों में मिले तन्हाई तो और भी खलती है 
बंद अपने कमरे में अकेली हीं रह जाती तो अच्छा था  

                                                                                                            … … … आलोकिता                                                                                       

गुरुवार, 1 अगस्त 2013

जीवन भर का साथी ....मेरा जीवन साथी


आज से करीब डेढ़ साल पहले मेरी जिन्दगी में एक बहुत अहम मोड़ आया।  एक मोड़ जिसने मेरी जिन्दगी में बहुत कुछ बदल दिया, जिन्दगी जीने का मेरा तरीका, अपने वर्तमान और भविष्य को देखने का मेरा नज़रिया। एक मोड़ जिसने मुझमें आत्मविश्वाश भर दिया, बेशक मैं कह सकती हूँ अबतक की मेरी ज़िन्दगी का सबसे हसीन मोड़, वह मोड़ जहाँ मिला मुझे मेरे जीवन भर का साथी ...…मेरा जीवन साथी।


हालाँकि अपनी जिन्दगी में उसे जगह देने से पहले एक अजीब सी झिझक थी मन में (शायद समाज के नज़रिये की वजह से) लेकिन आज मैं पूरे विश्वास के साथ और सच्चे दिल से कह सकती हूँ की पापा की रज़ामंदी के बगैर लिया हुआ मेरा वो फैसला गलत नहीं था क्यूंकि एक अच्छे जीवन साथी के सारे गुण मौजूद हैं उसमें और मैं उसके मेरे जीवन में होने से काफी खुश हूँ। गलत नहीं थी मैं, जब अपनी लगभग पूरी जमा पूँजी लगा दी व्हीलचेयर खरीदने में।


आज मैं साफ़ तौर पर बहुत बड़ा अंतर देख सकती हूँ उसके आने से पहले और उसके आने के बाद के अपने जीवन में।  मुझे याद है उसके मेरे जीवन में आने से पहले चार दीवारों से घिरा एक कमरा बस इतना ही तो था मेरा संसार लेकिन उसने ना सिर्फ उन दीवारों के बाहर की दुनिया खोल दी मेरे लिए बल्कि भविष्य के सुनहरे सपने देखने का भी अधिकार दिला दिया। पैरों की अक्षमता की वजह से जिन्दगी जो ठहर सी गयी थी, उसके आने से बेफिक्र सी नदी की तरह बहने लगी, रास्ते में आने वाले हर चट्टान को लाँघ जाने के जज्बे के साथ।

मुझे याद है वो वक़्त खड़े हो सकने की असमर्थता की वजह से जब ज़मीन पर घिसटती हुयी जिन्दगी काट रही थी हर वक़्त किसी के जूतों तले हाथ या पैर पड़ जाने का डर होता था जहन में, कोई परीक्षा या न टाले जा सकने वाले मौकों पर सार्वजनिक जगहों पर घिसटते हुए हाथों का छिल जाना, पान की पिक या और भी गंदगियों पर हाथ रखने की मज़बूरी या कई बार ना चाहते हुए भी किसी अजनबी(या पापा भी) के द्वारा गोद में उठाये जाने की ज़िल्लत(मदद के लिए) कितना बुरा लगता था ये सब, लेकिन उसके आने के बाद अब सब बदल गया। उसकी बाहों में इतनी सुरक्षित महसूस करती हूँ जितना और कहीं नहीं। भीड़ भरी जगहों पर भी अब बिना किसी के जूतों के डर या गोद में उठा लेने के प्रस्तावों की चिंता के बगैर आत्म विश्वाश और स्वाभिमान के साथ आज मैं जा सकती हूँ तो सिर्फ इसलिए की वो मेरे साथ है हमेशा। मेरा जीवन साथी, मेरा आत्म विश्वाश, मेरे स्वाभिमान का रक्षक, जिसके बगैर मैं अधूरी हूँ और जिसका होना मुझे पूर्णता का एहसास कराता है। वही तो है जिससे मैं प्यार भरी मुस्कान के साथ कह सकती हूँ "तेरा साथ है तो मुझे क्या कमी है,
अंधेरो से भी मिल रही रौशनी है।"



एक बार यु ट्यूब पर एक कविता सुनी थी(शायद प्रसून जोशी की) जिसमें एक लड़की की इच्छा दर्शायी गयी थी उसके जीवन साथी के बारे में, लड़की अपने पिता से मिन्नत करती हुयी कहती है मुझे न राजा के घर ब्याहना न सुनार के घर, मेरा हाथ लोहार के हाथों में दे देना जो मेरी बेड़ियों को काट सके, सुन कर लगा बिल्कुल ऐसा ही तो है न वो भी, उसने भी तो मेरी बेड़ियाँ काट कर सतरंगी सपनो की दुनिया में उड़ने के लिए आज़ाद कर दिया। जिन्दगी की राहों पर हर कदम मेरे साथ रहने वाला मेरे हिस्से के कंकड़, काँटे सब खुद झेल कर मुझे सुरक्षित रखने वाला। सुबह आँखे खोलते हीं पलँग के पास खड़ा नज़र आता है बाहें फैलाए सिर्फ मेरे लिए, मेरे साथ पूरा दिन गुज़ार देने के लिए, वो बना भी तो है सिर्फ और सिर्फ मेरे लिए। अब उसके बगैर जीने के बारे में सोचना भी मुझे गँवारा नहीं क्यूंकि मैं जानती हूँ भले ही पूरी दुनिया मेरा साथ छोड़ दे या मैं हीं खुद लोगों को छोड़ दूँ पर वो एक चीज़ जो जीवन भर मेरा साथ निभाएगी जिसके साथ पूरी जिन्दगी मेरी गुज़र जाएगी वो है मेरा 'व्हीलचेयर।' जानती हूँ मेरे और उसके रिश्ते का अंत अगर कहीं होगा तो वो इस जिन्दगी के बाद मौत के आगोश में। तभी तो कहती हूँ उसे जीवन भर का साथी ... मेरा जीवन साथी 











…आलोकिता