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गुरुवार, 1 अगस्त 2013

जीवन भर का साथी ....मेरा जीवन साथी


आज से करीब डेढ़ साल पहले मेरी जिन्दगी में एक बहुत अहम मोड़ आया।  एक मोड़ जिसने मेरी जिन्दगी में बहुत कुछ बदल दिया, जिन्दगी जीने का मेरा तरीका, अपने वर्तमान और भविष्य को देखने का मेरा नज़रिया। एक मोड़ जिसने मुझमें आत्मविश्वाश भर दिया, बेशक मैं कह सकती हूँ अबतक की मेरी ज़िन्दगी का सबसे हसीन मोड़, वह मोड़ जहाँ मिला मुझे मेरे जीवन भर का साथी ...…मेरा जीवन साथी।


हालाँकि अपनी जिन्दगी में उसे जगह देने से पहले एक अजीब सी झिझक थी मन में (शायद समाज के नज़रिये की वजह से) लेकिन आज मैं पूरे विश्वास के साथ और सच्चे दिल से कह सकती हूँ की पापा की रज़ामंदी के बगैर लिया हुआ मेरा वो फैसला गलत नहीं था क्यूंकि एक अच्छे जीवन साथी के सारे गुण मौजूद हैं उसमें और मैं उसके मेरे जीवन में होने से काफी खुश हूँ। गलत नहीं थी मैं, जब अपनी लगभग पूरी जमा पूँजी लगा दी व्हीलचेयर खरीदने में।


आज मैं साफ़ तौर पर बहुत बड़ा अंतर देख सकती हूँ उसके आने से पहले और उसके आने के बाद के अपने जीवन में।  मुझे याद है उसके मेरे जीवन में आने से पहले चार दीवारों से घिरा एक कमरा बस इतना ही तो था मेरा संसार लेकिन उसने ना सिर्फ उन दीवारों के बाहर की दुनिया खोल दी मेरे लिए बल्कि भविष्य के सुनहरे सपने देखने का भी अधिकार दिला दिया। पैरों की अक्षमता की वजह से जिन्दगी जो ठहर सी गयी थी, उसके आने से बेफिक्र सी नदी की तरह बहने लगी, रास्ते में आने वाले हर चट्टान को लाँघ जाने के जज्बे के साथ।

मुझे याद है वो वक़्त खड़े हो सकने की असमर्थता की वजह से जब ज़मीन पर घिसटती हुयी जिन्दगी काट रही थी हर वक़्त किसी के जूतों तले हाथ या पैर पड़ जाने का डर होता था जहन में, कोई परीक्षा या न टाले जा सकने वाले मौकों पर सार्वजनिक जगहों पर घिसटते हुए हाथों का छिल जाना, पान की पिक या और भी गंदगियों पर हाथ रखने की मज़बूरी या कई बार ना चाहते हुए भी किसी अजनबी(या पापा भी) के द्वारा गोद में उठाये जाने की ज़िल्लत(मदद के लिए) कितना बुरा लगता था ये सब, लेकिन उसके आने के बाद अब सब बदल गया। उसकी बाहों में इतनी सुरक्षित महसूस करती हूँ जितना और कहीं नहीं। भीड़ भरी जगहों पर भी अब बिना किसी के जूतों के डर या गोद में उठा लेने के प्रस्तावों की चिंता के बगैर आत्म विश्वाश और स्वाभिमान के साथ आज मैं जा सकती हूँ तो सिर्फ इसलिए की वो मेरे साथ है हमेशा। मेरा जीवन साथी, मेरा आत्म विश्वाश, मेरे स्वाभिमान का रक्षक, जिसके बगैर मैं अधूरी हूँ और जिसका होना मुझे पूर्णता का एहसास कराता है। वही तो है जिससे मैं प्यार भरी मुस्कान के साथ कह सकती हूँ "तेरा साथ है तो मुझे क्या कमी है,
अंधेरो से भी मिल रही रौशनी है।"



एक बार यु ट्यूब पर एक कविता सुनी थी(शायद प्रसून जोशी की) जिसमें एक लड़की की इच्छा दर्शायी गयी थी उसके जीवन साथी के बारे में, लड़की अपने पिता से मिन्नत करती हुयी कहती है मुझे न राजा के घर ब्याहना न सुनार के घर, मेरा हाथ लोहार के हाथों में दे देना जो मेरी बेड़ियों को काट सके, सुन कर लगा बिल्कुल ऐसा ही तो है न वो भी, उसने भी तो मेरी बेड़ियाँ काट कर सतरंगी सपनो की दुनिया में उड़ने के लिए आज़ाद कर दिया। जिन्दगी की राहों पर हर कदम मेरे साथ रहने वाला मेरे हिस्से के कंकड़, काँटे सब खुद झेल कर मुझे सुरक्षित रखने वाला। सुबह आँखे खोलते हीं पलँग के पास खड़ा नज़र आता है बाहें फैलाए सिर्फ मेरे लिए, मेरे साथ पूरा दिन गुज़ार देने के लिए, वो बना भी तो है सिर्फ और सिर्फ मेरे लिए। अब उसके बगैर जीने के बारे में सोचना भी मुझे गँवारा नहीं क्यूंकि मैं जानती हूँ भले ही पूरी दुनिया मेरा साथ छोड़ दे या मैं हीं खुद लोगों को छोड़ दूँ पर वो एक चीज़ जो जीवन भर मेरा साथ निभाएगी जिसके साथ पूरी जिन्दगी मेरी गुज़र जाएगी वो है मेरा 'व्हीलचेयर।' जानती हूँ मेरे और उसके रिश्ते का अंत अगर कहीं होगा तो वो इस जिन्दगी के बाद मौत के आगोश में। तभी तो कहती हूँ उसे जीवन भर का साथी ... मेरा जीवन साथी 











…आलोकिता 










शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

आखिर कब तक ?

हमारे देश में हमेशा से असमानता को हटाये जाने का प्रयास होता रहा है लेकिन यह 'असमानता' जाने कबतक हमारे देश के अस्तित्व से चिपकी रहेगी ? कब तक भेद भाव का सामना करना पड़ेगा समाज के विभिन्न वर्गों को ? कभी जातियता , कहीं लिंग तो कभी अमीरी और गरीबी का भेद भाव, खैर इन विषयों पर तो अक्सर विचार विमर्श होते हीं रहते हैं पर अक्षमता और सक्षमता के आधार पर भी भेद भाव होते रहते हैं लेकिन इस विषय पर चर्चाएँ भी काफी कम होती हैं |


 अभी हाल हीं का एक उदाहरण ले लीजिये जब जीजा घोष को हवाई जहाज में चढ़ के बैठ जाने के बाद सिर्फ इसलिए उतार दिया गया क्यूंकि वो एक अक्षम महिला हैं और उस जहाज का चालक उत्प्रभ तिवारी चाहता था कि उन्हें उतार दिया जाए | ये तो वही रंग भेद वाली जैसी बात हो गयी ना, या कहें उससे भी बढ़ कर, क्यूंकि गांधी जी को जब गोरों के डब्बे से उतारा गया था उस वक़्त अश्वेत लोगों के लिए अलग डब्बे होते थे रेल गाडी में, और इस बात की खबर भी होती थी उन्हें, कि उनके लिए अलग डब्बे निर्धारित किये गए हैं यहाँ तो वो भी नहीं है | यह दुर्व्यवहार की घटना महज जीजा घोष के साथ हीं नहीं हुई अपितु आये दिन अक्षम व्यक्तियों को ऐसे भेद भावों का सामना करना पड़ता है | 


महिला सशक्तिकरण, समाज में महिलाओं की हिस्सेदारी और भागीदारी की बात तो आज कल चर्चा-ए-आम है और उन्ही चर्चाओं में अक्सर कुछ वाक्यांशों का प्रयोग किया जाता है जैसे 'औरत कोई वस्तु नहीं' या 'औरत सिर्फ एक शरीर नहीं' ये बातें महज औरत नहीं बल्की हर इंसान पर लागू होती हैं | किसी भी इंसान के लिए वस्तु या बेजान शरीर मान कर किया गया व्यवहार उतना हीं कष्टकारी होता हैं | बेशक इंसान का मतलब केवल सक्षम व्यक्ति नहीं होता | विकलांगता प्रमाण पत्र धारी व्यक्ति भी कोई वस्तु नहीं जिसे किसी की भी मर्ज़ी से कहीं से भी हटा दिया जाए | विकलांग व्यक्ति मात्र एक विकृत शरीर नहीं वो भी एक इंसान है जिसमे सोचने की समझने की सुख दुःख महसूस करने की क्षमता है | जीवन के कदम कदम पर जब किसी विकलांग व्यक्ति को ऐसे भेद भावों का सामना करना पड़ता है तो एक आम इंसान की तरह उसका भी दिल दुखता है उसकी भी भावनाएं जख्मी होती हैं क्यूंकि उसके भी दिल में आम इंसान के जैसे हीं जज्बात होते हैं | 


जीजा घोष जैसी घटनाएं ना सिर्फ उस पीड़ित व्यक्ति के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाती हैं बल्की हज़ारों अक्षम लोगों के आत्मबल को तोड़ देती हैं | अपनी शारीरिक अक्षमता के बावजूद खुद को सामाजिक  मानदंडो पर सक्षम साबित कर देने के बावजूद भी जब किसी को आत्मसम्मान के साथ जीने का हक नहीं मिलता तो इसे मानवीय अधिकारों का हनन नहीं तो और क्या कहेंगे? ऐसी घटनाएं मात्र मानवीय नहीं अपितु कानूनी अधिकारों का भी हनन है | जीजा घोष इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ सेरेब्रल पाल्सी  की विकलांगता अध्ययन की अध्यक्षा हैं और उनके साथ हुआ यह दुर्व्यवहार साफ़ तौर पर हमारे समाज की पिछड़ी हुई मानसिकता को दर्शाता है | जब हमारे देश के इतने पढ़े लिखे और तथाकथित समझदार लोगों के बीच ऐसी घटनाएं होती हैं तो एक बार ध्यान अपनी शिक्षा प्रणाली पर जरुर जाता है क्यूंकि कहते हैं 'विद्या ददाति विनयम' , उत्प्रभ तिवारी जैसे लोगों को कैसी विद्या दी गयी है जिसमे विनय है हीं नहीं ? ऐसी शिक्षा का क्या फायेदा जो एक मानव के भीतर मानवीयता को हीं ना जगा पाए? 


ऐसी परिस्थितियों में कई सवाल मन में दस्तक देते हैं | आखिर कब तक शारीरिक रूप से अक्षम लोगों को अपना स्वाभिमान खोकर जीना पड़ेगा?कब आएगी वो संवेदनशीलता हमारे समाज में जब इंसान को इंसान के रूप में देखा जाएगा? कब आएगा वो दिन जब हर किसीको उसका अधिकार मिल पायेगा ? आखिर कब?  
       

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

जीवन की पगडंडियों पर

जीवन की पगडंडियों पर 
चलो कुछ ऐसे 
क़दमों के निशाँ 
शेष रह जाएँ 
तुम रहो न रहो 
दिलों में स्मृतियाँ 
शेष रह जाएँ 
एक बार हीं गुज़रना है 
इन राहों से 
और वक़्त संग 
सबको गुज़र जाना है 
गुज़रना हीं है तो 
क्यूँ न कुछ ऐसे गुजरें 
हमारे गुजरने का एहसास 
बहुतों के लिए 
विशेष हो जाये 
बने बनाये रास्ते 
ढूंढोगे कबतक ? 
लीक से हटकर 
नयी राहें गढ़ो
बुलंद कर लो 
हौंसले के दमपर
खुद को इतना 
बस धर दो पग जिधर 
दुनिया का रुख 
हो जाये उधर 
ठोकरें, असफलताएं भी आएँगी 
बस होकर इनसे रु-ब-रु
मंजिल की ओर बढ़ चलो 
पर ध्यान रहे 
छोड़ चलो 
कुछ क़दमों के निशाँ 
जीवन की पगडंडियों पर ..... 

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

उलझी लकीरें

जिन्दगी है ये मेरी या कोई पहेली हैं  
हजारों में बैठी, क्यूँ तन्हा अकेली हैं 

बहारों में खिलती हैं कलियाँ सुना है 
काँटों नेही जाने क्यूँ मुझको चुना है  

हाथों कि लकीरें ये क्यूँ  ऐसी उलझी  
समझने में इसको.. हूँ मैं भी उलझी 

अंधेरों ने मुझको... कुछ ऐसे है घेरा 
छूटा  है मुझसे वो...  साया भी मेरा 

मगर ये सूरज फिर से होगा जवाँ जब 
फिर होगा  दर पे यारों का कारवां तब 

उलझी लकीरों में... कुछ तो लिखा हैं 
ये हम ना समझे पर.. समझा खुदा हैं  

दरारों में  किरणे कभी.. जाती हीं होंगी 
शैल शिखरों पे  बहारे भी आती हीं होंगी 

तनहाइयों कि महफ़िलें सजती हीं होंगी 
पहेलियाँ जिन्दगी की सुलझती हीं होंगी 

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

विभावरी की गोद में निमग्न सोया है
सब चिंताएं छोड़ मधुस्वप्न में खोया है
ख्वाबों में हीं देखकर मुझे मचलता है
हाथ बढ़ा कर पा लेने को तड़पता है
ख्वाबों से निकल देख मैं यथार्थ में हूँ
द्वार पर खड़ी कब से तुझे पुकारती हूँ
जिसकी तुझे तलाश थी मैं सुअवसर हूँ वही
आज खड़ी तेरे द्वार पर तुझे ज्ञात  हीं  नहीं
अरे ओ द्वार तो खोल तुझसे हीं कहती हूँ
चल उठ मैं तुझे मंजिल तक ले चलती हूँ


मैं जाती हूँ गर मुझसे प्यारी है नींद तुझे
प्रातः जब नींद  खुलेगी मत  ढूँढना  मुझे
देखकर  मुझे  किसी  और  के  साथ
अपनी मंजिल देख किसी और के हाथ 
मत रोना भाग्य पर मत कोसना मुझे
कोसना आलस्य को उठने न दिया तुझे 

सोमवार, 24 जनवरी 2011

स्वप्न परिंदे





अक्सर जब हम बेखबर से सोते हैं, कई सपने दस्तक देते हैं | कुछ हमे डरा देते हैं,कुछ हँसा देते हैं तो कुछ रुला भी देते हैं | उठते ही सभी विलुप्त हो जाते हैं | क्या वाकई ये सपने हीं होते हैं ? नहीं ये भ्रम होते हैं | सपने तो जीवित होते हैं और हमे भी जीवित रखते हैं |सपने वे होते हैं जो सोये हुए इंसान को भी जागृत रखते हैं, सजग रखते हैं |सपने वही होते हैं जो जिन्दगी की आसमां पर अमावास की काली रात के होते हुए भी ध्रुव की तरह अटल जगमगाते रहते हैं | जब घनघोर अँधेरे की वजह से कुछ नज़र नहीं आता उस वक़्त भी स्वप्न परिंदे अपनी सप्तरंगी छवि से हमे लुभाते रहते हैं | इन्हें देखने के लिए किसी भी रौशनी की आवश्यकता नहीं न सूर्य की रौशनी और न आँखों की |
ये स्वप्न परिंदे बेक़रार रहते हैं हमारे पास आने के लिए पर फिर भी उड़ते जाते हैं और हम उनके पीछे दौड़ते रहते हैं उन्हें पकड़ने के लिए | सच पूछो तो ये सपने हीं हमे गतिशील रखते हैं | आँखों में कोई सपना न हो तो इंसान ठहर जाता है | जब हम अपनी मेहनत का तिनका तिनका जोड़ कर उस स्वप्न परिंदे के रहने योग्य नीड़ तैयार कर लेते हैं तो वह स्वतः हीं आकर उसे अपना बसेरा बना लेता है |  

रविवार, 16 जनवरी 2011

जब सूरज उगने लगता है 
और पंछी  गाने लगते हैं
तब भोर किरण आशा बनके 
इस दिल को जगाने लगती है 
फिर सूरज चढ़ने लगता है 
कोलाहल बढ़ने लगता है 
तब आशा ही कोयल बनके 
एक मीठा गीत सुनाती है
जब सूरज सर पे होता है  
गर्मी से सबकुछ जलता है 
आशा की ठण्डी छावं तले 
एक प्यारा सपना पलता है 
फिर सूरज ढलने लगता है 
सब अन्जाना सा लगता है 
आशा हीं तब साथी बनके 
आगे का राह बताती है 
अँधियारा छाने लगता है 
और दिल घबराने लगता है 
आशा हीं  तब संबल बनके 
साहस मेरा बढाती है 
जब निंदिया रानी आती है 
सारी दुनिया सो जाती है 
आशा हीं दीपक बन के 
स्वप्न सलोने जगाती है 
जब तम गहन हो जाता है 
साया भी छोड़ के जाता है 
आशा आगे आ करके 
एक रौशनी दे के जाती है 
जब सबकुछ खोने लगते हैं 
और टूट के रोने लगते हैं 
आशा तब मुस्का करके 
सारे  आंसूं ले के जाती है 
पूछ ही दिया मैंने एक दिन
ऐ आशा तू कँहा रहती है ?
तेरे हीं मन में रहती हूँ
सांसों में तेरे बसती हूँ
तू क्यूँ घबरा जाती है 
खुद पर कर विश्वास सखी 
ये दुनिया रोक न पायेगी 
मंजिल अपनी तू पायेगी 










  

बुधवार, 5 जनवरी 2011

अंतर्द्वंद


अँधेरे में पड़े रोने से अच्छा
आशा के दीप जला लो
अंधेरों में खोने से तो अच्छा
छोटी सी किरण अपना लो

पर सब रोशन कर दे 
ऐसा कोई दीप तो मिले 
देखो अँधेरा है यँहा 
हर जलते दीप तले 

छोटे से अँधेरे को छोड़ो
ऊपर देखो कितना रोशन है
मार्ग दीखाने को तुम्हे
क्या इतना उजाला कम है ?

चलते चलते आधे रास्ते में
यह दीपक बुझ जायेगा
मार्ग और भी दुर्गम होगा
और अँधेरा हो जायेगा 

जितना भी हो आगे बढ़ो तो सही
मंजिल नहीं रास्ते,तय करो तो सही
सोचो यँहा गर दीपक बुझ जायेगा 
 यह तिमिर और गहन हो जायेगा

हाय! इतनी दूर अभी चलना है 
और इतना समय गंवा दिया 
रास्ता इतना तय करना है 
ग़मों में यह भी भुला दिया 

जो बीता अब वापस न आएगा
टुटा जो संवर नहीं जायेगा
यह पल जो खो दिया तुमने
फिर इस पर भी रोना आएगा




सोमवार, 27 दिसंबर 2010



न चाहो किसी को इतना ,
चाहत एक मजाक बन जाय |

न महत्त्व दो किसी को इतना ,
तुम्हारा अस्तित्व मिट जाए |

न पूजो किसी को इतना ,
वह पत्थर बन जाए |

न हाथ थामो किसी का ऐसे ,
सहारे कि आदत पड़ जाए |

न साँसों में बसाओ किसी को ऐसे ,
उसके जाते हीं धड़कन रुक जाए |

बनाओ खुद को कुछ ऐसा ,
हजारों चाहने वाले मिल जाए |

महत्त्व खुद का बढाओ इतना ,
लाखों सर इज्जत से झुक जाए |

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

जीवन सवेरा

यह जीवन खिलखिलाता सवेरा ,
मौत है एक गहरा अँधेरा |
अभी सवेरा है कुछ काम कर लो ,
फिर अँधेरे में तो सोना हीं है |
दुनिया के नजारों से कुछ सिख लो,
अंधेरों में फिर इन्हें खोना हीं है |
यूँ मूंद कर लोचन, दिन में सो जाओ मत,
रात होने के पूर्व अँधेरा जीवन में लाओ मत|
आशा खोकर जो लोग निराशा में जीते हैं ,
अंधेरों में लिपट गम का विष वही पीते हैं|
कुछ लोग जो कड़ी धूप को सहते हैं,
शीतल वर्षा बूंदों का मज़ा वही लेते हैं|
धूप से डरकर, जो घर में सो  जाते हैं,
वर्षा बूंदों से अन्जान वही रह जाते हैं |
पहले कडवी निबोरी चख कर तो देखो,
फिर आम की मिठास और बढ़ जाती है|
मुश्किलों को गले लगा कर तो देखो ,
सफलता की खुशी दुनी हो जाती है |
तू कुछ करे, न करे, इस दिन को ढल जाना है,
चाहे तू या न चाहे, मौत के आगोश में जाना है|
मौत के भय से जीना तुम छोड़ो नहीं ,
मुश्किलों से डर साफलता से मुंह मोड़ो नहीं|
उजाला है चल निरंतर ,
तू मंजिल पा जायेगा |
जब छाएगा घोर तिमिर,
मंजिल क्या तू भी विलीन हो जायेगा|
तू खड़ा अब क्या सोच रहा ?
वह देख तिमिर छाने को है |
सदुपयोग करले जीवन का ,
यह दिवस न फिर आने को है|  

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

नज़रिये

हर सिक्के के दो पहलू , तुम्हे कौन सा भाता है ?
सब अच्छा या बुरा तुम्हे सोच किधर ले जाता है ?
रात है एक गहरा अँधेरा या रात क बाद नया सवेरा ?
सूर्य गर्मी से तड़पाता  या हमे ऊर्जा पहुँचाता है ?
मेघ बरस कर स्वत्व मिटाते या नया जीवन पाते हैं?
सागर का पानी खारा है या वह सबको शरण देने वाला है ?
तरबूज बीजों से भरा या कि बड़ा हीं रसीला है?
पादप न चल सकते  या जीवन भर बढते रहते हैं ?
सूरज से रौशनी लेता चाँद या तुम्हे चांदनी देता है ?
चाँद में है दाग या सुन्दरता का प्रतीक वह होता है ?
फूल खिलते हैं मुरझाने को या मधुर सुगंध फ़ैलाने को ?
चिराग तले अँधेरा है या वह रौशनी फैलाता है ?
सुई वस्त्र में छेद करता या धागे के लिए राह बानाता है ?
अग्नि सबको जलाती  या भोजन वही पकाती है ?
पर्वत राहों को रोका करते या ऊपर चढ़ने का मौका देते हैं ?
मोती बेचारा कैद रहता या सीप उसकी रक्षा करता है ?
कुत्ते लालची होते या वे वफादारी निभाते हैं?  
मधुरता से पक्षी चहचहाते या व्यर्थ शोर मचाते हैं ?
शिक्षक ने तुम्हे मारा या गलतियों को सुधारा है ?
मुश्किल राहें डराती या साहस तुम्हारा बढ़ातीं हैं ?
सबसे कुछ सीखा करते हो या कमियाँ ढूंढा करते हो ?
जन्में तुम मरने के लिए या सुकर्म निरंतर करने के लिए ?
सोच कर देखो तुम्हे सोच किधर ले जाते हैं ?
नज़रिये के बदलने से नज़ारे भी बदल जाते हैं |
गलत सोच सदा परिणाम गलत हीं लाते हैं |
सही सोच मंजिल का पता हमे दे जाते हैं |

मंगलवार, 30 नवंबर 2010

कर्म और भाग्य

तू कर्म कर,करती हीं जा |
रुक नहीं, आगे बढती हीं जा |
आशाएं है कई तेरे भीतर |
क्षमताएं भी अगणीत  तेरे अन्दर |
राह लम्बी हुई तो क्या ,
थक कर तुझे रुकना नहीं |
बाधाएँ बड़ी हुई तो क्या ,
डर कर तुझे झुकना नहीं |
भाग्य के आँचल में लिपट मत |
थाम ले तू कर्म का दामन |
मुश्किल बाधाओं से तुझे डरना नहीं |
बुझदिली का काम तुझे करना नहीं |
मुश्किलें जब जब आतीं हैं ,
पत्थर को हीरा कर जातीं हैं | 
आग में तपे बिना, सोने को चमक मिलती नहीं |
पत्थर पर पिसे बिना, मेहंदी की लाली खिलती नहीं |
मेहनत हीं है सच्चा श्रींगार तेरा |
कर्म से हीं होगा उद्धार  तेरा  |
सौभग्य पर इठला नहीं |
दुर्भाग्य से झल्ला नहीं |
जिन्दगी की आसमां के ये टिमटिमाते तारे |
कर्म सूर्य  के उदित होते छिप जाते सारे |
जब सूरज तेरे हाथ में तो 
तारों की क्यूँ फिकर तुझे ?
जब कर्म तेरे साथ में तो 
भाग्य से क्यूँ डर तुझे ?
जुड़ी तुझसे है आशाएं अपार | 
खोल न तू निराशाओं  के द्वार |
कर्म से जीत सके नियति में इतना दम कँहा ?
तुझे पराजित करे उसे इतनी हिम्मत कँहा ?
बस तू कर्म कर करती हीं जा |
भाग्य को छोड़ आगे बढती हीं जा | 


सोमवार, 29 नवंबर 2010

वह नारी

देखा था मैंने 'उस' नारी को,
फूलों सी कोमल सुकुमारी को |
जन्म लेते होठों पर उसकी एक हँसी खिली थी,
परियों सी प्यारी वह एक नन्ही कली थी|
उन आँखों में कुछ आशा थी,
पर चारों ओर निराशा थी|
निराशा थी कुछ गरीबी की,
कुछ थी 'उसके' जन्म की |
डर था कुछ चिंताएं थीं ,
भय और कुछ शंकाएँ भी |
क्या यह नन्ही कली खिल पायेगी ?
या गरीबी के धुल में मिल जाएगी ?
क्या यौवन का फूल हँस पायेगा ?
या किसी के हाथों मसला  जायेगा ?
सीता के लिए था एक रावण,
जो अब कदम कदम पर बसता है |
महाभारत में था था एक दुर्योधन,
पग पग पर जो अब हँसता है |
सीता को तो राम मिले थे,
द्रौपदी को कृष्ण सहाय हुए थे |
इसे भी कोई राम मिलेगा क्या ?
इसके लिए कोई कृष्ण बनेगा क्या ?
नियति उसके साथ में नहीं था,
मौत भी उसके हाथ में नहीं था |
जन्म लिया तो उसे जीना ही था,
गम को खाके आंसुओं को पीना हीं था|
अध् खिली थी यौवन  की कली अभी ,
पर संकटें आ चुकी थी सभी |
हर एक कदम पे रावण, तो दुसरे पर दुर्योधन खड़ा था |
न राम ना हीं रक्षा में उसके कोई कृष्ण खड़ा था |
मौके पर सबने उसे अंगूठा हीं दिखलाया |
काम आया तो बस आत्मबल हीं काम आया |
नहीं थी वह निर्बल, शक्तिहीन, अबला |
थी वह तो सबल, सशक्त, सबला |
देखा है आज भी मैंने उस नारी को ,
कष्टों में घिरी देखा उस  बेचारी को |
होठों पर उसके अब हँसी नहीं है ,
आँखों में अब आशाएं नहीं है |
गरीबी की भट्टी और भाग्य के आंच में खूब तपी है ,
पर चमकता सोना नहीं वह तो पत्थर बन चुकी है |
पत्थर क्यूँ? क्यूंकि वह रोती  नहीं है ?
री अभागिनी तू क्यूँ रोती नहीं है ?
हाँ वह क्यूँ रोएगी ? रोकर वह क्या पायेगी ?
रोने से क्या नियति बदल जाएगी?
विधि को उसपे तरस  आएगी ?
नहीं वह नहीं रोएगी कभी नहीं रोएगी |
भाग्य नहीं कर्म हीं की होकर रहेगी |
कर्म हीं से से तो वह रोटी पायेगी |
भाग्य भरोसे बस आँसु पायेगी |
रोकर वह क्या क्या कर पायेगी ?
क्या भाग्य को बदल पायेगी ?
नहीं वह दरिद्र है, दरिद्र हीं रह जाएगी |
नारी है बस नारी हीं रह जाएगी |
पत्थर है सोना नहीं बन पायेगी |
हाँ मजदूरनी है बस वही बनी रह जाएगी |


मंगलवार, 23 नवंबर 2010

पन्ने जीवन के

जीवन के बीते पन्नों को पलटो मत
उन बीते लम्हों में  उलझो मत 
उन लम्हों में है वही जो पूर्व घटित है 
उन पन्नों पर लिखी कहानी अमिट है 
नहीं जिन पन्नों पर तुम्हारा अधिकार 
उसकी चिंता करना है बेकार 
जो कुछ करना है वह आज करो 
वर्तमान जीवन में नए रंग भरो 
वर्तमान में लिखावट सुन्दर हो 
इन पन्नों की सजावट सुन्दर हो 
भविष्य सुनहरा हो जायेगा 
यह आज भी बीता कल हो जायेगा 
इस आज को जो गँवा दिया तुमने 
सपने बस रह जायेंगे सपने 
जीवन की किताब जो बंद हो जाएगी 
कौड़ी के भाव रद्दी में बिक जाएगी 
जीवन की ऐसी कहानी लिखो, की सुनहरा इतिहास बन जाए 
सब पढे उस कहानी को, और तू उनका नायक बन जाए 
                                             आलोकिता 

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

जीवन पथ

था एक अन्जाना अजनबी सा रास्ता
जहाँ न किसी से किसी का कोई वास्ता
अचानक एक नारी आई भीड़ से निकलकर
गोद में एक प्यारे से शिशु को लेकर
गोद से आया वह शिशु उतरकर
कदम बढाया माँ की ऊँगली पकड़कर
जमीन पर गिर गया वह लड़खड़ाकर
माँ ने कुछ  साहस दिया उसे उठाकर
चलते चलते उसने चलना सिख लिया
मासुम मुस्कान से माँ का ह्रदय जीत लिया
जीवन पथ पर एक मोड़ आया तभी
जिसके बारे में उसने सोचा न था कभी
माँ बोली जा जीवन पथ पर खोज ले मंजिल का पता
व्यर्थ तेरा जन्म नहीं दूनिया को इतना दे बता
जीवन के इस पथ पर अकेले हीं तुझे चलना है
यह एक संग्राम अकेले हीं तुझे लड़ना है
इस तरह और भी कुछ समझा बुझा कर
कहा उसने जा पुत्र अब देर न कर
सुगम थी राह , वह आगे बढ़ने लगा
निर्भीक, निडर सा वह आगे चलने लगा
मंजिल की राह होती इतनी आसान नहीं
इस बात का था उसे अनुमान नहीं
वह मार्ग अब दुर्गम होने लगा
साहस भी उसका खोने लगा
सामने माँ का चेहरा मुस्कुराने लगा
आगे बढ़ने की हिम्मत बढ़ाने लगा
फिर से आगे बढ़ने लगा ताकत बटोरकर
समस्याएँ आने लगीं और बढ़चढ़  कर
ठोकर खाकर अब वह नीचे गिर पड़ा
कुछ याद कर फिर से हो गया खड़ा
खुद हीं बोला आत्मविश्वास से भर कर
अब रुकना नहीं मुझे थककर
देखो पथ पर अग्रसर उस पथिक को
शक्ति पुत्र, साहस के बेटे, धरती के तनय को
भयंकर धुप अंधड़ और वर्षा उसने सब सहा
दामिनी से खेला, संकटों को झेला पर आगे बढ़ता रहा
कुछ साथी भी बने उसके इस राह में
संकटों को छोड़ा,तो कोई ठहर गए वृक्ष की छांह में
सीखा उसने मिलता नहीं कोई उम्र भर साथ निभाने को
यहाँ तो मिलते हैं राही बस मिल के बिछड़ जाने को
उस साहसी मन के बली को
तृष्णा मार्ग से डिगा न सकी
उस सयंमी चरित्र के धनि को
विलासिता भी लुभा न सकी
मंजिल पर ध्यान लगाय वह आगे बढ़ता रहा
मन को बिना डिगाए  संकटों से लड़ता रहा
आखिर जीवन में वह शुभ दिन आ हीं गया
वह पथिक अपने पथ की मंजिल पा हीं गया
सफलता उसके कदम चूमने लगी
खुशियाँ चारों ओर झूमने लगीं
कल तक थे अन्जान, आज उससे पहचान बनाने लगें
सम्मान का सम्बन्ध तो कोई ईर्ष्या का रिश्ता निभाने लगे
सबने देखा सफलता को उसका चरण गहते हुए
न देखा किसी ने मुश्किलें उसे सहते हुए
आज जो वह पथिक मंजिल तक आया है
भाग्य का नहीं उसने कर्म का फल पाया है
संसार का तो यही नियम चलता आया है
यूँहीं नहीं सबने कर्म को भाग्य से बली बताया है

गुरुवार, 11 नवंबर 2010


नमस्कार दोस्तों
हार्दिक स्वागत है आपका मेरे ब्लॉग पर | बहुत दिनों से सोचते सोचते आज मैंने ब्लॉग लिखना प्रारंभ किया है | ऐसा नहीं है कि क्या लिखुँ मैं समझ नहीं पाती दिक्कत यह है कि क्या क्या लिखुँ सोचकर उलझ जाती हूँ| आपने उस गाने को तो सुना हीं होगा
"मैं कहाँ जाऊं होता नहीं फैसला
एक तरफ उसका घर एक तरफ मयकदा "
शायर कि परेशानी यह है कि वह निर्णय नहीं कर पा रहा कि अपनी माशूका के घर जाए या फिर मयखाने ? ठीक वही हालत मेरी है कभी कोई बात अपनी तरफ मेरा ध्यान आकृष्ट करता है तो तो उसी छण किसी दूसरी बात का नशा मुझे अपनी तरफ खींचता है | चूँकि आज मैं पहली बार यंहा लिख रही हूँ तो सोचती हूँ अपने संछिप्त परिचय से ही शुरू करूँ | नाम तो आप जानते ही होंगे 'आलोकिता ' जिसका अर्थ है अँधेरे पथ को रौशन करने वाली |मेरी जिन्दगी सदा से एक खुली किताब रही है और दोस्तों कि इसमें  विशेष जगह रही है | कहते हैं वक्त के आगे बड़े बड़े नहीं टिक पाते| उसी वक्त कि आंधी ने एक तिनके की तरह उड़ा कर मुझे दोस्तों से दूर एक वीराने में फेंक दिया | आज जब अपने  अब तक के जीवन का सारांश लिखना चाहती हूँ तो मेरे जेहन में बस ये आठ पंक्तियाँ ही उभरतीं हैं |
"सपनों को हकीकत के खाक में मिलते देखा है |
चाहत को अपनी तड़प कर मरते देखा है |
अरमानों की चिता जली है हमारी |
ग़मों को खुशीकी झीनी चादर में लिपटे देखा है |
अश्क पीकर हमने मुस्कुराना सीखा है |
ग़मों के दलदल में हमने जीना सीखा है |
जीने क लिए हर पल मरते हैं हम |
खुशी की आहट से भी अब डरते हैं हम |"
उपरोक्त पंक्तिओं का एक- एक लफ्ज मेरे दिल से निकला है |सचमुच खुशी से डरती हूँ कि जाने ये छोटी सी खुशी अपने पीछे ग़मों का कितना बड़ा पहाड़ लेकर आ रहा है अपने पीछे मेरी खातिर |पर इसका मतलब यह कतई नहीं कि खुशियों कि तलाश हीं बंद कर दूँ |अपने अनुभव के आधार पर ही आपसे एक बात कहना चाहूंगी जिन्दगी में कितने भी गम आये सदा हंसते-मुस्कुराते रहिये इससे आपका दुःख ख़त्म तो नहीं होगा पर हाँ दुःख को सहने कि क्षमता जरूर मिलती है | रोने से उदास होने से शक्तियां क्षीण पड़ जाती है |बस आज इतना ही कहना चाहूंगी आगे अब अगली बार अपनी कवितायें लिखूंगी |