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सोमवार, 15 अक्टूबर 2012

माता ऐसा वर दे मुझको . . . . . . . . .




माता ऐसा वर दे मुझको,  सारे सदगुण मैं पा जाऊं 
छोड़ सकूँ दुर्गुणों को सारे, दुर्बलता को भी तज़ पाऊं 

अडिग रहूँ कर्तव्यपथ पर, लाख डिगाय न डिग पाऊं 
अचल-अटल हो सकूँ शैल सी, हे शैलपुत्री ऐसा वर दो  

रह सकूँ संयमित सदैव, संकल्प की दृढ़ता मैं पाऊं
उत्कृष्ट हो हर आचरण, हे ब्रह्मचारिणी ऐसा वर दो  

स्वीकृत न हो अन्याय, न्याय की पक्षधर बन पाऊं
जगत कल्याणमयी हर सोच हो, चंद्रघंटा ऐसा वर दो 

सूर्य किरणों सा तेज़ दो माता, अंधकारों से लड़ पाऊं 
त्याग-प्रेम की ऊष्मा हो मुझमें, कुष्मांडा ऐसा वर दो 

ममत्व नारी का सहज गुण, पराकाष्ठा उसकी बन पाऊं 
अपने-पराये का भेद न हो, हे स्कंदमाता ऐसा वर दो  

भटक जाऊं न राह कभी, गुरुर मातपिता का बन पाऊं 
दिल से निभा सकूँ हर रिश्ता, कात्यायनी ऐसा वर दो  

मानवता कल्याण कर सकूँ,पापियों का काल बन पाऊं
हो शक्ति पाप के नाश की मुझमें, कालरात्रि ऐसा वर दो

कर्तव्यविमुढ़ता ना आये कभी, परिस्थिनुरूप ढल पाऊं
कर्तव्यपरायणता सदा हो मुझमें, महागौरी ऐसा वर दो

छूटे न अधुरा संकल्प कोई, पूर्णता हर कार्य को दे पाऊं 
खरी उतरूँ आशाओं की कसौटी पे, सिधिदात्री ऐसा वर दो  

सार्थकता दे सकूँ नाम को अपने, आलोकिता मैं बन पाऊं
आलोकित करूँ अँधेरी राहों को, हे माता वो तेज़ प्रबल दे दो 

    
     

रविवार, 27 फ़रवरी 2011

कह तो दो






पलक पावढ़े ...बिछा दूंगी 
तुम आने का.. वादा तो दो 
धरा सा  धीर... मैं धारुंगी 
गगन बनोगे... कह तो दो 
पपीहे सी प्यासी. रह लूँगी 
बूंद बन बरसोगे कह तो दो 
रात रानी सी ..महक  लूँगी 
चाँदनी लाओगे कह तो दो 
धरा सा  धीर... मैं धारुंगी
गगन होने का वादा तो दो 

जीवन कागज सा कर लूँगी 
हर्फ बन लिखोगे.कह तो दो 
बूंद बन कर... बरस जाउंगी 
सीप सा धारोगे.. कह तो दो 
हर मुश्किल से ...लड़ लूँगी 
हिम्मत बनोगे.. कह तो दो 
पलक पावढ़े..... बिछा दूंगी 
तुम आने का... वादा तो दो 

चिड़ियों सी मैं... चहकुंगी 
भोर से खिलोगे. कह तो दो 
गहन निद्रा में ..सो जाउंगी 
स्वप्न बनोगे... कह तो दो 
फूलों सी काँटों में हँस लूँगी 
ओस बनोगे .....कह तो दो 
धरा सा धीर ....मैं धारुंगी 
गगन बनोगे.... कह तो दो


शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

सच्ची प्रीत..

कहते हैं चौरासी लाख योनिओं से गुजर कर मानव शरीर पाती है आत्मा, और मानव योनी हीं एक मात्र कर्म योनी है जिसमे आत्मा मोक्ष प्राप्त करके हमेशा के लिए परमात्मा को पा सकती है बाकी सारी योनियाँ तो भोग योनी है जो केवल पूर्व के कर्मों का फल भोगने के लिए होती हैं | अक्सर आत्मा मानव शरीर पाकर अपने मकसद को भूल जाती है और सांसारिक माया मोह में पड़ कर फिर से जीवन मरन के चक्र में पड़ जाती है |
 इस कविता में मैंने आत्मा को एक प्रेमी के रूप में दर्शाया है जो की अपनी मोक्ष रुपी प्रेमिका को सांसारिक मोह में पड़ कर भूल चूका है |

हजारों बेडिओं में तू जकड़ा है 
ह्रदय द्वार लगा कड़ा पहरा है 
पलकों में ..मधुस्वप्न सा लिए 
अँधेरे में निमग्न सा जीरहा हैं 

न फ़िक्र  है तुझे  इन बेडिओं की 
न चिंता हीं तुझे इस तिमिर की 
दुष्यंत सा भूला ... हुआ क्यों हैं 
कुछ याद कर उस शाकुंतल की 

राज पाट में क्यों भ्रमित हुआ है 
भोग में आकंठ.. तू डूबा हुआ हैं 
मिथ्याडम्बर में खोया हुआ सा 
नेपथ्य में प्रीत को भूला हुआ हैं 

अरे देखो उसको  कोई तो जगाओ 
ईश्वर से उसका.. परिचय कराओ 
सच्ची प्रीत.. वो जो भूला हुआ  है 
कोई उसको. याद तो अब दिलाओ 

कह दो उसे बेडिओं को तोड़ दे वो 
स्वप्न से जागे मोहपाश तोड़ दे वो 
अपनी शाश्वत प्रियतमा को पाकर 
 जगत के सारे.... बंधन तोड़ दे वो

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

हे साईं तुझपे मैं कल्पना समर्पित करती हूँ 
हे बाबा तुझको एक रचना अर्पित करती हूँ 
हे नाथ इसे  स्वीकार करो 
हे साईं इसे  स्वीकार करो 
हे साईं तेरे चरणों  में  अश्रुधार  अर्पित करती हूँ 
हे दयावान तेरी दया पे  मुस्कान  समर्पित करती हूँ 
हे साईं इसे  स्वीकार करो 
हे नाथ इसे  स्वीकार करो 
हे प्रभु तुझको मन का हर भाव अर्पित करती हूँ 
हे दाता तेरी मुस्कान पे संसार समर्पित करती हूँ 
हे नाथ इसे  स्वीकार करो 
हे साईं इसे  स्वीकार करो 
मेरा अर्पण है कुछ भी नहीं फिर भी हे साईं ग्रहण करो 
मेरा समर्पण है कुछ भी नहीं फिर भी हे साईं ग्रहण करो 
हे साईं इसे  स्वीकार करो 
हे नाथ इसे  स्वीकार करो 

शनिवार, 29 जनवरी 2011

तुम्ही मेरे .....




तुम्ही बंसी वाले , तुम्ही भोले बाबा 
तुम्ही मेरे साईं ,... तुम्ही मेरे दाता 

तुम्ही मेरे भावों का जलता दिया हो 
तुम्ही नीला अम्बर, तुम ही  धरा हो 

तुम्ही मेरे आँसु,.. तुम्ही तो हँसी हो 
तुम्ही मेरे दिल से ..निकली दुआ हो 

तुम्ही मेरी रचना, कल्पना में सजे हो 
तुम्ही मेरी गीतों की .. लय में बसे हो 

तुम्ही मेरे जीवन की भटकी सी नैया 
तुम्ही तार दोगे ,... तुम्ही हो खेवैया 

तुम्हीं मेरी  चिंता ,चैन भी तुम्ही  हो 
तुम्ही मेरी निंदिया,दिनरैन तुम्ही  हो 

तुम्ही मेरे जीवन की जलती  अगन हो 
तुम्ही तो पवन हो, ..तुम्ही तो पवन हो 

तुम्ही मेरी आशा की अंतिम  किरण हो
उबारो मुझे  यूं की.....तम का क्षरण हो 




शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

हे गिरधर . . . . .


अपमान हलाहल हँस कर पी लूँगी 


यातनाओं में घिर कर जी लूँगी 


ये सब तेरे हीं तो है न उपहार 


जो भेजे तुने अपनी मीरा के द्वार 


देख दुश्मन बन जग वालों ने मुझको घेरा है 


जग की क्यूँ फिकर करूँ, जग निर्माता हीं मेरा है 


पूर्व जनम दर्शन का वादा दिया,भूल गए क्या गिरधर ?


एक झलक दे यह जनम कर दो सफल हे मुरलीधर !


तेरे सांवले रंग सिवा कोई रंग न मुझको भाय 


तेरे मदिर नयनो सिवा कोई नशा न मुझपे छाय


आजा गिरधर तू क्यूँ अब इतनी देर लगाय 


तेरी मीरा दीवानी सुध बुद्ध खो कर तुझे बुलाय . . . . . 

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

तुम्ही तो हो _ _ _ _ _


 इस विरहन की मिलन की आस तुम्हीं हो श्याम 


इस पपीहे की अतृप्त सी भक्तिमय प्यास तुम्हीं हो 


तुम्हीं हो हाँ तुम्हीं हो मेरी नैया के खेवनहार 


मेरे एकतारे का तुम्हीं तो हो वह एक तार 


इस मीरा की हर गीत का साज़ तुम्हीं हो श्याम 


दुनिया से न दब सकी वह आवाज़ तुम्हीं हो 


तुम्हीं हो हाँ तुम्हीं हो मीरा का पूरा संसार 


हे श्याम तुम्हीं हो इस मीरा का सच्चा प्यार . . . . .


(मीरा साहित्य मुझे बहुत पसंद है पर उनकी भाषा थोड़ी क्लिष्ट लगती है मैं सोचती थी की ये रचनाएँ खड़ी बोली में क्यूँ नहीं है फिर सोचा चलो मैं हीं लिखती हूँ | मीरा की तरह तो शायद हीं कोई लिख पाए, बस अपनी इच्छा  पूर्ति के लिए लिख दिया |)

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

समुद्र मंथन और अमृत वितरण





शुक्राचार्य से शक्ति ले दैत्य हो रहे थे प्रबल 
दुर्वासा के शाप ने देवराज को किया निर्बल 
असुरों,दैत्यों का हो रहा था अभ्युथान 
देवत्व का होता जा रहा था पतन 
सारे देवगन हो गए परेशान 
फिर नारायण को किया आह्वान 
श्री नारायण ने मंथन का राह दिखाया 
अमृत पान का गुरु मन्त्र सुझाया 
अमृत कि खातिर एक हुए दैत्य दैत्यारी 
समुद्र मंथन कि हो गयी तैयारी 
पर्वत मंदराचल कि बनी मथनी 
वासुकी नाग बन गया नेती
श्री विष्णु ने लिया कच्छप अवतार 
आधार बन संभाला पर्वत का भार
देव दानव सबमें शक्ति का संचार किया 
गहन निद्रा दे वासुकी का कष्ट हर लिया 
वासुकी कि मुख का भाग दैत्यों ने थाम लिया
देवताओं ने उसकी पूंछ कि ओर स्थान लिया 
समुद्र मंथन कि क्रिया हो गयी प्रारंभ 
मंदराचल का घूमना हुआ आरम्भ 
जल का हलाहल विष निकला सर्वप्रथम 
इतनी दुर्गन्ध कि घुटने लगा सबका दम 
उसके प्रभाव में सभी क्रांति खोने लगे 
दुर्गन्ध,जलन सभी असह्य होने लगे 
तभी शिव शंकर औढरदानी वँहा आये 
कालकूट विष पीकर नीलकंठ कहलाये 
भोले शंकर ने सबको पीड़ा से उबार दिया 
विष कंठ में धर सबका उन्होंने उद्धार किया 
कहते हैं कुछ बूंद विष जो गिरा धरती पर 
उसी से जन्मे सर्प,बिच्छु सारे विषधर 
विष पीड़ा काल हुआ संपन्न 
पुनः प्रारंभ हुआ समुद्र मंथन 
निकली कामधेनु नामक गोधन 
उस गाय को ऋषियों ने किया ग्रहण 
उच्चः श्रवा नामक जो अश्व आया 
दैत्यराज बलि ने उसे पाया 
फिर आया कल्पद्रुम औ आई रम्भा अप्सरा 
दोनों को देवलोक में स्थान मिला 
फिर मंथन ने माता लक्ष्मी को उत्पन्न किया 
लक्ष्मी ने खुद हीं श्री विष्णु का वरण किया 
फिर कन्या रूप वारुणी हुई उत्त्पन्न 
दैत्यों ने किया उसे ग्रहण 
यूँ हीं उद्भव हुआ चंद्रमा,पारिजात वृक्ष और शंख का
अंत में आये धन्वन्तरी लेकर घट अमृत का 
दैत्यों ने अमृत घट छीन लिया 
स्वभाववश  फिर आपस में युद्ध किया 
देख कर घट दैत्यों के पास 
देवता बेचारे खड़े थे उदास
तत्काल विष्णु ने मोहिनी रूप धरा
जिसने देखा उसे बस देखता ही रहा 
सुन्दरता को भी लजाने वाली वह रूपसी 
छम छम करती दैत्यों के पास चली 
मोहित हो दैत्य करने लगे वंदन 
हे सुमोहिनी,हे शुभगे,हे कमल नयन 
हम पर अपनी सौन्दर्य कृपा बरसा दो 
इन कर कमलों से अमृतपान करा दो 
वह मुस्काई तो सबके दिल में हुक उठी 
आखिर वह कोकिल बयनी कुक उठी 
हे कश्यप पुत्र,हे वीर कुछ सयाने भी लगते हो 
फिर भी मुझ सुंदरी,चंचला पर विश्वाश करते हो ?
इस अमृत घट से मेरा क्या प्रयोजन ?
आपस में खुद हीं कर लो न वितरण 
कामांध वे दैत्य कुछ समझ नहीं पाते थे 
उस ठगनी पर और विश्वास जताते थे 
मोहिनी ने दैत्य देवों को दो पंक्ति में बिठा दिया 
देवों को अमृत दैत्यों को तो बस झांसा दिया 
 (एक दैत्य ने भी अमृत पिया था जो राहू केतु बना पर उसका जिक्र इस कविता में नहीं है क्यूंकि वह दूसरी कहानी शुरू हो जाती )