कड़वी यादें बीते पलों संग हीं रह जाती तो अच्छा था
वो यादें या फिर अश्कों के संग बह जाती तो अच्छा था
कुछ ख़ास नहीं हैं दूरियाँ , तेरे-मेरे दरमियाँ
बस ख़ामोशी की दीवार ये ढह जाती तो अच्छा था
नाकाम कोशिशें ख़ामोशी के सन्नाटे को और गहराती है
इन खामोशियों से बेपरवाह हीं रह जाती तो अच्छा था
मुश्किल है एहसासों को दिल में छिपाए रखना
गिले-शिकवे तुम्ही से सब कह जाती तो अच्छा था
महफ़िलों में मिले तन्हाई तो और भी खलती है
बंद अपने कमरे में अकेली हीं रह जाती तो अच्छा था
… … … आलोकिता
आपकी यह रचना कल बुधवार (04-09-2013) को ब्लॉग प्रसारण : 106 पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
जवाब देंहटाएंसादर
सरिता भाटिया
तारीफ के लिए हर शब्द छोटा है - बेमिशाल प्रस्तुति - आभार.
जवाब देंहटाएंमहफ़िलों में मिले तन्हाई तो और भी खलती है
जवाब देंहटाएंअनुभूत सत्य है यह तो!
"महफ़िलों में मिले तन्हाई तो और भी खलती है" ........बहुत ही गहरी बातें ,उम्दा रचना के लिए बधाई आपको |
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