सोमवार, 21 मार्च 2011


अपनी हीं हालात पे रोने लगी हूँ
दुनिया की भीड़ में खोने लगी हूँ

मधुता....... न रही अब जीवन में
कुछ कडवी........ सी होने लगी हूँ


ज़हन में.......बस गयी हैं जो यादें 

अश्कों से..... उनको धोने लगी हूँ

यूं तो खुश थी.... ख्वाबों में पहले
अब तो .....उनमे भी रोने लगी हूँ


थी  बहुतों से..अपनी 
 बाबस्तगी  
अब अजनबी सी.... होने लगी हूँ

दर्द-ए-दिल..... जब्त कर रही थी 
चुप्पी में खुद हीं कैद होने लगी हूँ 

अपनी हीं हालात पे रोने लगी हूँ 
दुनिया की भीड़ में खोने लगी हूँ

रविवार, 13 मार्च 2011



जीस्त का मज़ा ,कभी हम भी लिया करते थे 
एक ज़माना था की हँस हँस के जिया करते थे

खुशी की एक आहट को....भी तरसते हैं अब   
वक़्त था औरों को भी खुशियाँ दिया करते थे

चलते चलते अब गाम ... लरजते  हैं  मगर 
बज़्म में रक्स मुसलसल भी किया करते थे

ख़ुशी के चिथड़ों पर.... पैबंद लगाते हैं हरदम 
यूं भी था कभी गैरों के जख्म सिया करते थे

इस कदर टूट कर बिखरे हैं आज हम खुद ही 
कभी औरों को भी  .... हौंसला दिया करते थे

जीस्त का मज़ा कभी हम भी लिया करते थे 
एक ज़माना था की हँस हँस के जिया करते थे


शनिवार, 12 मार्च 2011

हर बार नया एक रूप है तुझमे



हर बार नया एक रूप है तुझमे 
हर बार नयी एक चंचलता 
हर सुबह प्रेम की धूप है तुझमे 
हर साँझ  पवन सी शीतलता

हर शब्द निकलकर मुख से तेरे 
मन वीणा झंकृत कर देते 
मुस्कान बिखर कर लब पे तेरे
ह्रदय  को हर्षित कर देते 

सात सुरों  का साज़ है तुझमे 
जल तरंग सी  है मधुता 
गीतों का  हर राग है  तुझमे  
कविता सी है  मोहकता 

हर बार नया एक रूप है तुझमे 
हर बार नयी एक चंचलता 
हर सुबह प्रेम की धूप है तुझमे 
हर साँझ  पवन सी शीतलता

रविवार, 6 मार्च 2011



























तड़प से जाते हैं हम, रूठ कर यूँ जाया न करो 
ऐ सितमगर रोते हुओं को और रुलाया न करो

जाना हीं  हो तुम्हे,  तो जाओ  कुछ  इस  तरह 
ले जाओ निशानियाँ, यादों में भी आया न करो


हमे  सुनाकर  बेवफाइयों  के किस्से  बार बार 
हमारे सब्र की  इन्तेहाँ  को आजमाया न करो

 
न आता  हो तुम्हे  निभाना, तो रिश्ते बनाकर
कसमों  वादों में  किसी को  उलझाया  न करो


 हँसा कर एक बार यूँ  बार बार रुला देते हों हमें 
अब रहने दो तन्हा, महफ़िलों में बुलाया न करो

बुधवार, 2 मार्च 2011

निशब्दता



न कहो कुछ आज, .....चुप हीं रहना 
न सुनना हैं मुझे..... न कुछ हैं कहना 

लफ्जों से परे मौन जगत में खोने दो 
न रोको अश्कों को, जी भरके रोने दो 

जैसे विचरता है जलद नील गगन में 
चलो विचरें हम भी स्वप्न आँगन  में 

भूलकर  कुछ देर को गतिहीन हो जाएँ 
चलो ऐसा करे मौन जगत में खो जाएँ



चलो सूने में निहारे निर्बाध नयनों से 
ढूंढे स्वयं का अस्तित्व भी अंतर्मन से 


रविवार, 27 फ़रवरी 2011

कह तो दो






पलक पावढ़े ...बिछा दूंगी 
तुम आने का.. वादा तो दो 
धरा सा  धीर... मैं धारुंगी 
गगन बनोगे... कह तो दो 
पपीहे सी प्यासी. रह लूँगी 
बूंद बन बरसोगे कह तो दो 
रात रानी सी ..महक  लूँगी 
चाँदनी लाओगे कह तो दो 
धरा सा  धीर... मैं धारुंगी
गगन होने का वादा तो दो 

जीवन कागज सा कर लूँगी 
हर्फ बन लिखोगे.कह तो दो 
बूंद बन कर... बरस जाउंगी 
सीप सा धारोगे.. कह तो दो 
हर मुश्किल से ...लड़ लूँगी 
हिम्मत बनोगे.. कह तो दो 
पलक पावढ़े..... बिछा दूंगी 
तुम आने का... वादा तो दो 

चिड़ियों सी मैं... चहकुंगी 
भोर से खिलोगे. कह तो दो 
गहन निद्रा में ..सो जाउंगी 
स्वप्न बनोगे... कह तो दो 
फूलों सी काँटों में हँस लूँगी 
ओस बनोगे .....कह तो दो 
धरा सा धीर ....मैं धारुंगी 
गगन बनोगे.... कह तो दो


शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

उसकी क्या गलती है ?



वो पगली बैठी सड़क किनारे 
जी रही है चंद यादों के सहारे 
हर किसी को सुनाती वो कहानी 
पर उसमे न राजा है न रानी 
लुटी है उसकी दुनिया जब से 
कहती सुनो आते जाते सब से
तृण तृण करके नीड़ बनाया 
मधुस्वप्नो से संसार सजाया 
जाने लग गयी किसकी नजर 
खुदा ने बरसाया क्यूँ कहर 
न चाहा था हमने हीरा या मोती 
खुश थे बस पा के दो जून रोटी 
कहते उसे हैं मुसलमान सभी 
बेचती थी मंदिर में फूल कभी 
हुआ जो बम धमाका मंदिर में 
मरा पती उसका इस भीड़ में 
मंदिर के पीछे था जो मदरसा 
उसमे था उसका बेटा नन्हा सा
न पूछा किसी से अंधी गोलियों ने 
हिन्दू या जन्मा तू मुसलमानों में 
जो मरा हिन्दू न मुसल्मा हीं था
पर हर शख्श  एक इंसान हीं था
बैठी हैं अब वो पथरीली राहों पे
जीती हैं केवल अब वो  आहों पे
जो दुर्दशा वो झेल रही है 
उसमे उसकी क्या गलती है ? 

बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

दरकती मान्यताएं





अस्पताल के बिस्तर पर पड़ा वह एक तक फर्श को सूनी आँखों से निहार रहा था | नज़रें फर्श पर थी, मन शर्मशार और व्याकुल था और दिमाग अतीत के पन्नो को पलटता हुआ जा पहुंचा था आज से पाँच साल पहले ........... हाँ उसी दिन तो वह आखिरी बार अपने गाँव नुमा छोटे से शहर गया था जिसे उसने  अपना  माना ही  नहीं  था  कभी  | और उस  दिन  तो  हद  ही  हो गई  जब   साफ़ साफ़ लफ्जों में उसने कह दिया था अपने माँ बाप से की वह उस छोटे से शहर में सड़ना नहीं चाहता | उनलोगों की तरह गृहस्थी के कोल्हू  में बैल बन कर नहीं जुतना चाहता | वह जीवन का पूर्ण आनंद लेना चाहता था, घर, बच्चों और जिम्मेदारियों की चिंता में खुद को नहीं फूंकना चाहता | बहुत कुछ समझाया था माँ बाप ने उसे उस दिन...पर सब व्यर्थ उनके हर तर्क को कुतर्क से काट दिया था  उसने | यँहा तक की जब उसके पिता ने कहा अगर हम भी तेरी तरह 'लिव -इन' के बारे में सोचते, अगर हमे भी बच्चे बोझ लगते तो क्या तू आज यह सब बकवास करने के लिए यँहा खड़ा होता ? तो उन्हें दो टुक जवाब मिल गया वो आपका शौक था आप जानें मैंने नहीं कहा था की मुझे ............... |  स्तब्ध!! खामोश!! रह गए थे  वो  उसके  इस  पलटवार से और उसकी माँ लगातार रोती जा रही थी | इन आंसुओं में बेटे को खोने का गम था या उसके सत्मार्ग से भटकने का यह तो बस उस माँ का ह्रदय हीं जानता था | 
उसके बाद वह दिल्ली आकर रहने लगा था ....कामिनी के साथ | कामिनी .....कामिनी  एक उन्मुक्त खयालातों वाली ख़ूबसूरत लड़की थी | अमीर घर की भी थी उसके घर में सदस्य कम और कमरे, नौकर  ज्यादा थे |माँ बाप का सालों पहले तलाक हो चुका था,उसने सदा से हीं अपने परिवार को टुकड़ों में जीते देखा था और उसे भी घर गृहस्थी से चिढ थी |यँहा दोनों के खयालात मिलते थे इसीलिए  दोनों ने शादी नहीं की थी क्यूँ की किसी भी रिश्ते की कैद नहीं चाहते थे | दोनों कमाते थे और अपनी मर्ज़ी से खर्च करते थे, चूँकि घर कामिनी का था इसलिए समीर को रेंट भी देना होता था | शरीर छोड़ कर दोनों की किसी चीज़ पर एक दुसरे का हक कम ही होता था क्यूंकि हक की बात तो वँहा आती है जँहा कोई रिश्ता हो आत्मिक सम्बन्ध यँहा तो दोनों अपनी जरुरत के लिए जुड़े थे, सिर्फ अपनी वासना पूर्ति के लिए | जब कोई रिश्ता, कोई हक था हीं तो फिर वफादारी और बेवफाई का तो सवाल हीं नहीं उठता | शुरू में दोस्तों की तरह कुछ बात भी होती थी दोनों में, पर धीरे धीरे यह दैहिक रिश्ता बस बिस्तर  तक हीं सिमट कर रह गया | कभी कभी समीर ने हक जताने की कोशिश की, जानना चाहा, टोकना चाहा की वह किस किस के साथ उठती बैठती है तो कामिनी ने उसे तुरंत याद दिला दिया की वह उसकी पत्नी नहीं है उसे कोई हक नहीं उससे सवाल जवाब करने का | और  उस  दिन  भी  कुछ  झड़प  हुई  थी  दोनों  की  समीर  चाहता था की  कामिनी  उसके साथ  रोमेश  की  पार्टी  मैं  चले  पर  कामनी  नहीं  आई   बहुत  शराब  पी  चुका  था  वह  और  वापसी  मैं  उसकी गाड़ी दुर्घटना ग्रस्त हो गयी तीन  दिन  बेहोश  रहा  वह   आज हीं उसकी आँख खुली थी | आँख खोलते हीं उसने खुद को अस्पताल के बिस्तर पर पाया और साथ वाली मेज़ पर फूलों का एक गुलदस्ता रखा था उसके साथ हीं एक गेट वेल सुन कार्ड और एक नोट रखा था | उस नोट में कामिनी ने लिखा था बहुत अफ़सोस है मुझे तुम्हारी हालात पर | डॉक्टर ने कहा है की शायद अब तुम अपने पैरों पर खड़े न हो पाओ कभी | देखो पिछले महीने जो उधार लिए थे मैंने तुमसे उतने तो यँहा तुम्हारे इलाज में खर्च हो गए तो वह हिसाब तो बराबर पर तुम्हे मेरा एहसान मानना चाहिए तुम्हारी गाड़ी को गराज तक पहुंचवा दिया मैंने उसका भी इलाज चल रहा है | हाँ और देखो बुरा मत मानना अस्पताल से छुटो तो मेरे घर से अपना सामन शिफ्ट करा लेना | प्रैक्टिकली सोचो तो तुम्हारे साथ जो हुआ उसका मुझे अफ़सोस है पर अब तुम्हारे लिए मैं तो अपनी जिन्दगी अपाहिज नहीं कर सकती न | टेक केयर एंड गेट वेल सून डिअर ............... कामिनी | झटका  सा  लगा  समीर  को  ग्लानी  से  भर  उठा  वह एक  पल  मैं  चकनाचूर  कर  गई  थी  कामिनी  उसे ..   ऐसे  मैं  समीर को अपने माँ बाप की याद आ रही थी | खुदा-न-खास्ता अगर उसके पिता के साथ ऐसा होता तो उसकी माँ ऐसा कर सकती थी ? कभी नहीं | उसे ऐसा एहसास हो रहा था उसकी माँ उसके सिरहाने हीं बैठी रो रही है वह भी चाहता था की उसकी गोद में सर रखकर जी भर रो ले लेकिन उसकी आँख से आंसूं का कतरा तक न निकला | क्यूंकि शायद उसकी आँखों का पानी बहुत पहले हीं मर चुका था .............. या फिर आज वह इतना मजबूर था की आंसूं भी उससे दामन बचाते हुए कतरा कर चले गए | लिव-इन  रिलेसन  की  धारणा एक गाली सी  लग  रही  थी  उसे  आज |

शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

सच्ची प्रीत..

कहते हैं चौरासी लाख योनिओं से गुजर कर मानव शरीर पाती है आत्मा, और मानव योनी हीं एक मात्र कर्म योनी है जिसमे आत्मा मोक्ष प्राप्त करके हमेशा के लिए परमात्मा को पा सकती है बाकी सारी योनियाँ तो भोग योनी है जो केवल पूर्व के कर्मों का फल भोगने के लिए होती हैं | अक्सर आत्मा मानव शरीर पाकर अपने मकसद को भूल जाती है और सांसारिक माया मोह में पड़ कर फिर से जीवन मरन के चक्र में पड़ जाती है |
 इस कविता में मैंने आत्मा को एक प्रेमी के रूप में दर्शाया है जो की अपनी मोक्ष रुपी प्रेमिका को सांसारिक मोह में पड़ कर भूल चूका है |

हजारों बेडिओं में तू जकड़ा है 
ह्रदय द्वार लगा कड़ा पहरा है 
पलकों में ..मधुस्वप्न सा लिए 
अँधेरे में निमग्न सा जीरहा हैं 

न फ़िक्र  है तुझे  इन बेडिओं की 
न चिंता हीं तुझे इस तिमिर की 
दुष्यंत सा भूला ... हुआ क्यों हैं 
कुछ याद कर उस शाकुंतल की 

राज पाट में क्यों भ्रमित हुआ है 
भोग में आकंठ.. तू डूबा हुआ हैं 
मिथ्याडम्बर में खोया हुआ सा 
नेपथ्य में प्रीत को भूला हुआ हैं 

अरे देखो उसको  कोई तो जगाओ 
ईश्वर से उसका.. परिचय कराओ 
सच्ची प्रीत.. वो जो भूला हुआ  है 
कोई उसको. याद तो अब दिलाओ 

कह दो उसे बेडिओं को तोड़ दे वो 
स्वप्न से जागे मोहपाश तोड़ दे वो 
अपनी शाश्वत प्रियतमा को पाकर 
 जगत के सारे.... बंधन तोड़ दे वो

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

हे साईं तुझपे मैं कल्पना समर्पित करती हूँ 
हे बाबा तुझको एक रचना अर्पित करती हूँ 
हे नाथ इसे  स्वीकार करो 
हे साईं इसे  स्वीकार करो 
हे साईं तेरे चरणों  में  अश्रुधार  अर्पित करती हूँ 
हे दयावान तेरी दया पे  मुस्कान  समर्पित करती हूँ 
हे साईं इसे  स्वीकार करो 
हे नाथ इसे  स्वीकार करो 
हे प्रभु तुझको मन का हर भाव अर्पित करती हूँ 
हे दाता तेरी मुस्कान पे संसार समर्पित करती हूँ 
हे नाथ इसे  स्वीकार करो 
हे साईं इसे  स्वीकार करो 
मेरा अर्पण है कुछ भी नहीं फिर भी हे साईं ग्रहण करो 
मेरा समर्पण है कुछ भी नहीं फिर भी हे साईं ग्रहण करो 
हे साईं इसे  स्वीकार करो 
हे नाथ इसे  स्वीकार करो 

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

पशु अदालत

जानवरों का अदालत था सजा हुआ 
लोमड़ी जी ने एक  मुजरिम  पेश किया
 गरजकर पूछा राजा  शेर ने, 
क्या किया है इस मानुष ने ?
गर्दन ऊँची कर बोले जिराफ भाई 
इसने पशुओं पर गोलियां चलाई 
पेड़ों का भी इसने किया कटाई 
इसने पशुओं पर गोलियां चलाईं
पेड़ों का भी इसने किया कटाई 
हमें फंसाने के लिए जाल भी बिछाई 
इतने में मानव चिल्लाया 
शेर पर हीं तोहमत लगाया 
तुम भी तो करते हो शिकार 
जानवरों को बनाते अपना आहार 
गुस्से में मंत्री बाघ उठ खड़ा हुआ 
गुस्साया दहाडा और फिर कहा 
ऐ मानुष! नहीं है यह गुनाहगार 
प्रकृति ने दिया इन्हें यही आहार 
कभी नहीं करते हैं शिकार 
गुफा का करने के लिए श्रृंगार  
नहीं चुराते हाथी दाँत
बनाने के लिए कंठहार 
हाथी, सुन मानव मुस्कुराया 
इसबार उसपर हीं इल्जाम लगाया 
कहा हाँ मैंने वृक्ष को नुक्सान पहुँचाया है 
हाथी भी जंगल उजड़ा करता है 
भोला हाथी बोला मैं पत्ते खता हूँ 
वृक्ष को नुक्सान नहीं पहुँचाता हूँ 
महाराज इसने मुझे जाल में फंसाया था 
तब कितनी मुश्किल से बन्दर ने छुड़ाया था 
उसके भोलेपन ने सबको हंसाया 
पर मानव मन ही मन झल्लाया 
शेर ने मानव को देख और गुर्राया 
डर से बेचारे को पसीना आया 
शेर गरजा, मानकर तुम्हे वन का मेहमान 
जाओ दिया हमने जीवनदान 
मगर दोबारा इधर का रुख न करना 
बहुत पछताओगे बाद में वरना
शेर के न्याय देख मानव मुग्ध हुआ 
जानवरों का प्यारा जंगल मानव मुक्त हुआ

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

विभावरी की गोद में निमग्न सोया है
सब चिंताएं छोड़ मधुस्वप्न में खोया है
ख्वाबों में हीं देखकर मुझे मचलता है
हाथ बढ़ा कर पा लेने को तड़पता है
ख्वाबों से निकल देख मैं यथार्थ में हूँ
द्वार पर खड़ी कब से तुझे पुकारती हूँ
जिसकी तुझे तलाश थी मैं सुअवसर हूँ वही
आज खड़ी तेरे द्वार पर तुझे ज्ञात  हीं  नहीं
अरे ओ द्वार तो खोल तुझसे हीं कहती हूँ
चल उठ मैं तुझे मंजिल तक ले चलती हूँ


मैं जाती हूँ गर मुझसे प्यारी है नींद तुझे
प्रातः जब नींद  खुलेगी मत  ढूँढना  मुझे
देखकर  मुझे  किसी  और  के  साथ
अपनी मंजिल देख किसी और के हाथ 
मत रोना भाग्य पर मत कोसना मुझे
कोसना आलस्य को उठने न दिया तुझे 

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

कलम


सूर्य सम है इसमें तेज़ प्रबल 
तू इसको निस्तेज न कर 
कलम रही सदा निश्छल 
तू इससे छल छद्म न कर 
कलम से निकली जो शब्द सरिता 
वही काव्य का रूप हुई 
उद्वेलित, स्वच्छ सी यह सरिता 
तू इसकी स्वच्छता न हर 
प्रकृति सम साहित्य के रूप अनेक 
हर रूप की सुन्दरता विशेष 
भावनाओं में सागर सी गहराइयाँ 
आशाओं में गगन सी उचाइयां 
निबंध कहीं समतल सुघड़ है 
गद्य कहीं पर्वत सा अटल है 
प्रेम में अरण्य सी सघनता 
विरह में सूने मैदान सी वीरानी 
द्वेष व्यंग के कंक्रीटों से
अनुपम  छटा बर्बाद  न कर 
कलम को कलम रहने दे 
तू इसको कृपाण न कर 
कलम चला है जब भी तो 
देश के सम्मान हेतु 
मानवता उत्थान हेतु 
निर्बलों के त्राण हेतु 
इसका गलत उपयोग न कर 
अपने स्वार्थ हेतु 
इसकी तू महानता न हर 
सूर्य सम है इसमें तेज़ प्रबल 
तू इसको निस्तेज न कर