गिरवी हो जाना, बिक जाना बेटियों को ब्याहने में
बोझ-सा ढ़ोते रहना उन्हें अपनी कुरीतियों के आड़ में
बेटों के ब्याह में तुम जमकर उनका दाम लगाना
नपते-तुलते रह जाने देना जीवन-संगियों को दहेज़ के पैमाने में
समाज! तुम अपनी रुढियों को मत तोड़ना
चटख जाए विकलांगता की लकीर किसी के भाग्य में
प्रेरणाश्रोत कह कर उन्हें कभी-कभी अपनी महानता दिखा देना
और निजी ज़िन्दगी में इंसान मानने से भी कतरा जाना
टूट कर बिखरते देखते रह जाना तुम अपने स्वजनों को
समाज! तुम अपनी रुढियों को मत तोड़ना
जाती-धर्म के झगड़ों में मर जाने दो प्रेम के निर्दोष पंछियों को
हो जाने दो एहसास-विहीन पूरी मानवता को
तुम नफरतों से अपनी मान-मर्यादा में चार चाँद लगते रहना
मर जाने दो कोमल भावनाओं को हर इंसान के भीतर
समाज! तुम अपनी रुढियों को मत तोड़ना
संस्कार के बहलावे में हर पीढ़ी पर डाल देना रुढियों का दायित्व
पोषित-पल्लवित कराते रहना रुढियों को संस्कृति के नाम पर
न हो ये रूढ़ियाँ तो समाज तुम्हारा तो अस्तित्व हीं मिट जायेगा
हर इंसान की इंसानियत को पूरा खोखला हो जाने देना
समाज! तुम अपनी रुढियों को मत तोड़ना
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, घमण्ड विद्वत्ता को नष्ट कर देता है“ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शिवम् जी :-)
हटाएंसटीक रचना
जवाब देंहटाएंI always spent my half an hour to read this webpage’s content every day along with a cup of coffee.
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