शनिवार, 29 जनवरी 2011

तुम्ही मेरे .....




तुम्ही बंसी वाले , तुम्ही भोले बाबा 
तुम्ही मेरे साईं ,... तुम्ही मेरे दाता 

तुम्ही मेरे भावों का जलता दिया हो 
तुम्ही नीला अम्बर, तुम ही  धरा हो 

तुम्ही मेरे आँसु,.. तुम्ही तो हँसी हो 
तुम्ही मेरे दिल से ..निकली दुआ हो 

तुम्ही मेरी रचना, कल्पना में सजे हो 
तुम्ही मेरी गीतों की .. लय में बसे हो 

तुम्ही मेरे जीवन की भटकी सी नैया 
तुम्ही तार दोगे ,... तुम्ही हो खेवैया 

तुम्हीं मेरी  चिंता ,चैन भी तुम्ही  हो 
तुम्ही मेरी निंदिया,दिनरैन तुम्ही  हो 

तुम्ही मेरे जीवन की जलती  अगन हो 
तुम्ही तो पवन हो, ..तुम्ही तो पवन हो 

तुम्ही मेरी आशा की अंतिम  किरण हो
उबारो मुझे  यूं की.....तम का क्षरण हो 




मंगलवार, 25 जनवरी 2011


















चिड़िया रानी चिडिया रानी
क्यूँ तेरी आँखों में पानी ?
बतलाओ न अपनी कहानी
                क्या बतलाऊ  मछली बहना
                दुश्वार किया इंसानों ने जीना
                 पहले आश्रय स्थल पेड़ को छिना
                 अब जाल में फंसाते डाल कर दाना
कभी न सुनते हमारा कहना
हमे न इन  पिंजड़ों में रहना
उनकी कटोरी का दाना नहीं खाना
न हीं उनका मिनरल वाटर है पीना
                   हमे नहीं बनना है उनके घर का गहना
                    नील गगन में स्वछंद विचरण है करना
                   हमे तो बस प्रभु की इस दुनिया में है उड़ना
                   आकाश की हर ऊंचाई को है चूमना
हमे तो क्षितिज से हैं बाते करनी
इसी तरह खुशी से है जीना
और खुशी से हीं है मरना








सोमवार, 24 जनवरी 2011

स्वप्न परिंदे





अक्सर जब हम बेखबर से सोते हैं, कई सपने दस्तक देते हैं | कुछ हमे डरा देते हैं,कुछ हँसा देते हैं तो कुछ रुला भी देते हैं | उठते ही सभी विलुप्त हो जाते हैं | क्या वाकई ये सपने हीं होते हैं ? नहीं ये भ्रम होते हैं | सपने तो जीवित होते हैं और हमे भी जीवित रखते हैं |सपने वे होते हैं जो सोये हुए इंसान को भी जागृत रखते हैं, सजग रखते हैं |सपने वही होते हैं जो जिन्दगी की आसमां पर अमावास की काली रात के होते हुए भी ध्रुव की तरह अटल जगमगाते रहते हैं | जब घनघोर अँधेरे की वजह से कुछ नज़र नहीं आता उस वक़्त भी स्वप्न परिंदे अपनी सप्तरंगी छवि से हमे लुभाते रहते हैं | इन्हें देखने के लिए किसी भी रौशनी की आवश्यकता नहीं न सूर्य की रौशनी और न आँखों की |
ये स्वप्न परिंदे बेक़रार रहते हैं हमारे पास आने के लिए पर फिर भी उड़ते जाते हैं और हम उनके पीछे दौड़ते रहते हैं उन्हें पकड़ने के लिए | सच पूछो तो ये सपने हीं हमे गतिशील रखते हैं | आँखों में कोई सपना न हो तो इंसान ठहर जाता है | जब हम अपनी मेहनत का तिनका तिनका जोड़ कर उस स्वप्न परिंदे के रहने योग्य नीड़ तैयार कर लेते हैं तो वह स्वतः हीं आकर उसे अपना बसेरा बना लेता है |  

शनिवार, 22 जनवरी 2011

"रिश्तों की कश्मकश"

पुराना साल जाने वाला था और नए साल के स्वागत कि तैयारी हर तरफ जोर शोर से चल रही थी | संजय काफी खुश था दोस्तों रिश्तेदारों को फोन पर बताते बताते वो थक नहीं रहा था कि इस साल नए साल के स्वागत में हो रहे एक टी वी स्टेज शो में उसे भी गाने का मौका मिला है | उधर किचन में रोटी पकाती योषिता अपने हीं ख्यालों में डूबी हुई थी | कुछ हीं पलों में ये दो महीने जैसे उसकी आँखों के सामने से बीस बार गुजर चुकें हों | जितना सोचती उतनी हीं वह और उलझती जा रही थी अपने ही सवालों में | 
करीब दो साल हो गए थे उसे संजय कि दुल्हन बन इस घर में उतरे हुए | वह एक पेंटर थी और संजय को संगीत में गहरी रूचि थी | उनकी शादी के वक़्त सभी कहते थे कि खूब जमेगी इनकी जोड़ी दोनों कलाकार जो ठहरे | शादी के बाद सब ठीक ठाक चल भी रहा था | योषिता एक इंस्टिट्यूट से जुड़ी थी, वहाँ से उसकी पेंटिंग्स बिक जाया करती थी | संजय गायक तो अच्छा था पर कहीं अच्छी जगह उसे अब तक मौका नहीं मिला था | एक स्कूल में संगीत सिखाता और घर पर भी कुछ बच्चों को संगीत कि तालीम दिया करता था | जीने खाने भर पैसे कमा हीं लेता था | दोनों में झगडे भी होते थे पर फिर सब ठीक हो जाता था |
एक दिन योषिता कि पेंटिंग्स कि प्रदर्शनी लगी थी | वैसे तो संजय को अजीब सी चीढ़ थी इन प्रदर्शनियों से पर योषिता कि जिद्द से मजबूर होकर वह भी गया उस प्रदर्शनी में | अभी वहाँ पहुचे ही थे कि एक आदमी ने मुस्कुराते हुए योषिता से कहा "Hiiiii! योषि, क्या हाल है ?" योषिता आज अचानक इतने सालों बाद अपने कॉलेज के सबसे अच्छे दोस्त परिमल को देख चौंक गयी थी और 
खुशी से चहकती हुई बोली " अरे परि तू यहाँ कैसे ? UK से वापस कब आया यार ? परिमल ने कहा अरे यार अब तो परि बुलाना बंद कर लड़की टाइप लगता है |खैर UK में मन नहीं लगा तो अपने वतन वापस चला आया और तुम यहाँ कैसे से क्या मतलब ?आपकी पेंटिंग्स का दीवाना हूँ वही खिंच लायी हमे अहाँ! स्टुपिड offcourse तुमसे मिलने आया हूँ | पेपर में ऐड देख कर समझ गया था कि योषिता वर्मा अपनी योषि के अलावा कोई हो ही नहीं सकती | योषिता ने परिमल और संजय दोनों का परिचय कराया पर शायद दोनों को एक दुसरे से मिलने में कोई दिलचस्पी नहीं थी | परिमल को योषिता से बातें करनी थी और संजय किसी तरह उसे घर ले जाना चाहता था |परिमल का बार बार उसकी पत्नी को 'योषि' बुलाना खटक रहा था और योषिता के मुँह से परिमल के लिए निकला ' यार ' शब्द जैसे उसके तन बदन में आग लगा रहा था |
उस दिन के बाद से परिमल और योषिता का मिलना जुलना बढ़ गया और बातों हीं बातों में योषिता ने संजय के करिअर के बारे में चिंता जाहिर कर दी | उसे एक मौके के लिए संजय का दर बदर भटकना बहुत बुरा लगता था |परिमल ने कहा इतनी सी बात के लिए इतना परेशान हो गयी |परेशानी में तुम बिल्कुल भी सुन्दर नहीं लगती | जाओ बालिके! बाबा परिमल का आशीर्वाद तुम्हारे साथ है | कल हीं तुम्हे एक खुसखबरी मिलेगी | तुम्हारी चिंता अब बाबा कि चिंता है तुम चिंता मुक्त हो जाओ | योषिता इस मजाक पर हँस पड़ी | पर यह मजाक नहीं था | परिमल कि कम्पनी एक नए साल के जश्न कि मेगा स्पोंसर थी और उसके कहने पर उस जश्न में संजय को बतौर अपकमिंग सिंगर मौका दे दिया गया |
अगले दिन यह खुशखबरी लेकर संजय योषिता के पास आया तो गलती से योषिता के मुँह से निकल 
गया अरे वाह आपको मौका मिल गया, कल हीं परि.......... बोलती बोलती वह ठिठक गयी | पर संजय जिस मौके कि तलाश में था दो महीनो से उसे आज वह मौका भी मिल हीं गया | बोला " हाँ, हाँ  
बोलो क्या कहना चाहती हो मेरे हुनर से नहीं तुम्हारे उस "यार" कि वजह से यह मौका मिला है मुझे ?मुझे इतना बड़ा मौका दिलवाने के लिए तुम्हे भी तो कुछ कीमत चुकानी पड़ी होगी न अपने यार को |योषिता बोली " छिः शर्म नहीं आती तुम्हे ऐसी बातें कहते हुए | संजय ने कहा " बहलाओ मत, बच्चा नहीं हूँ, और मैं भी इसी धरती का प्राणी हूँ | यहाँ मुफ्त में कोई किसी को कुछ नहीं देता और फिर तुम्हारा वो परिमल वो एक बिजनेस मैन है और बिजनेस मैन सिर्फ और सिर्फ अपना फ़ायदा देखते हैं |योषिता के लिए यह सब बातें असह्य थी वह उठकर किचन में रोटी बनाने चली गयी | संजय के बचपन का सपना पूरा होने जा रहा था वह अपनी खुशी फोन पर सबको सुनाने लगा |
योषिता सभी बातों को सोचने के बाद इस नतीजे पर पहुंची कि उसे अपनी गृहस्थी बचानी है | उसका new year resolution यही होगा कि वो परिमल से बात नहीं करेगी, इस दोस्ती के बिना भी वह जी सकती है |फिर संजय के साथ सुखद जीवन कि कल्पना करने लगती है और उसे ध्यान नहीं रहता कि वह रोटी बना रही है | तवे पर पड़ी रोटी जल गयी, संजय आया और गैस बुझाते हुए हुए बोला "क्या हुआ ? कहाँ खोई हो, परिमल कि यादों में ? योषिता के मन में कहने को बहुत कुछ था पर जुबां आज उसका साथ नहीं दे रही थी | मन के सारे भाव आंसुओं के सैलाब बनकर उमड़ पड़े |

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

हे गिरधर . . . . .


अपमान हलाहल हँस कर पी लूँगी 


यातनाओं में घिर कर जी लूँगी 


ये सब तेरे हीं तो है न उपहार 


जो भेजे तुने अपनी मीरा के द्वार 


देख दुश्मन बन जग वालों ने मुझको घेरा है 


जग की क्यूँ फिकर करूँ, जग निर्माता हीं मेरा है 


पूर्व जनम दर्शन का वादा दिया,भूल गए क्या गिरधर ?


एक झलक दे यह जनम कर दो सफल हे मुरलीधर !


तेरे सांवले रंग सिवा कोई रंग न मुझको भाय 


तेरे मदिर नयनो सिवा कोई नशा न मुझपे छाय


आजा गिरधर तू क्यूँ अब इतनी देर लगाय 


तेरी मीरा दीवानी सुध बुद्ध खो कर तुझे बुलाय . . . . . 

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

तुम्ही तो हो _ _ _ _ _


 इस विरहन की मिलन की आस तुम्हीं हो श्याम 


इस पपीहे की अतृप्त सी भक्तिमय प्यास तुम्हीं हो 


तुम्हीं हो हाँ तुम्हीं हो मेरी नैया के खेवनहार 


मेरे एकतारे का तुम्हीं तो हो वह एक तार 


इस मीरा की हर गीत का साज़ तुम्हीं हो श्याम 


दुनिया से न दब सकी वह आवाज़ तुम्हीं हो 


तुम्हीं हो हाँ तुम्हीं हो मीरा का पूरा संसार 


हे श्याम तुम्हीं हो इस मीरा का सच्चा प्यार . . . . .


(मीरा साहित्य मुझे बहुत पसंद है पर उनकी भाषा थोड़ी क्लिष्ट लगती है मैं सोचती थी की ये रचनाएँ खड़ी बोली में क्यूँ नहीं है फिर सोचा चलो मैं हीं लिखती हूँ | मीरा की तरह तो शायद हीं कोई लिख पाए, बस अपनी इच्छा  पूर्ति के लिए लिख दिया |)

बुधवार, 19 जनवरी 2011

निराश हो चुकी मेरी जिन्दगी में 
एक नूर बनकर तुम आये 
बेजान सी मेरी काव्य पंक्तियों में 
अर्थ बनकर तुम समाय
खुद में हीं उलझती, टूटती लता सी 
मैं धरा पर पड़ी थी 
दुनिया की विकृत नजरों से 
मैं खुद को देख रही थी 
मेरी हीं नजरों से तुमने मुझे हीं 
देखना सिखाया 
थम चुकी एक नदी को फिर से 
बहना सिखाया 
इस दुनिया से परे एक दुनिया
तुमने दिखाया 
हर रिश्ते से परे एक प्यारा 
रिश्ता बनाया 
कभी एक पथ प्रदर्शक बन 
उचित राह दिखाया 
कभी एक प्यारा दोस्त बन 
तुमने मुझे हँसाया 
अंधेरों से अब मुझे डर नहीं लगता 
जीवन अब दुखों का घर नहीं लगता 
एक आश है अब मुझमे भी 
एक विश्वास है खुद पर भी 
(एक छोटी सी कोशिश अपने गुरु के लिए ............. वैसे कहा भी गया है की गुरु का बखान करना बहुत मुश्किल कार्य है जो मुझे यह रचना लिखते वक़्त समझ में आ गयी | )

मंगलवार, 18 जनवरी 2011

"अकेला चना भी भाड़ फोड़ सकता है"

दोस्ती हो तो ऐसी ..........| रिया और पूजा की दोस्ती को जो भी देखता अनायास उसके मुँह से यह बात निकल हीं जाती | बचपन से दोनों साथ खेली ,पढ़ी साथ में हीं बड़ी हुई | दोनों के अंकों में कुछ ज्यादा फासला भी नहीं होता था पर फिर भी आमतौर पर होने वाली प्रतिद्वंदता दोनों में नहीं थी | हर कोई दोनों की दोस्ती की मिसाल दिया करता था यँहा तक की दोनों को हंसों  का जोड़ा कहा जाता था | बचपन बीतते वक़्त हीं कितना लगता है ? समय तो मानो पंख लगा कर उड़ा जा रहा था और बढ़ते समय के साथ वे भी बड़ी हो गयीं |
कॉलेज का आखिरी साल था एक तरफ तो दोनों को अच्छी नौकरी की चिंता थी और दूसरी तरफ घर पर शादी ब्याह के चर्चे गर्म थे | उनके लिए काफी जद्दोजहद की स्थिति थी उस वक़्त, पहला तो अच्छी नौकरी गर वह मिल भी गयी फिर भी शादी के बाद कहीं और जाना होगा पाती और ससुराल के मुताबिक ................. इन चिंताओं के साथ रिया को एक और परेशानी थी की क्या वो अपने माँ बाप को मना पायेगी और नहीं मना पायी तो ....................? घर वालों से, दोस्तों से तो उसे दूर होना हीं पड़ेगा पर ........................समीर से ............... कैसे रहेगी वो ?क्या होगा उसके सपनों का ............. जिसका एक अहम् हिस्सा समीर है .............क्या माँ बाप के खिलाफ , समाज के विरुद्ध जाकर उसे अपना पायेगी ? और अगर नहीं तो क्या समीर के साथ और उस आत्मिक रिश्ते के साथ बेवफाई नहीं होगी ? इन्ही उलझनों के साथ दोनों सहेलियां interview देने जा रही थी तभी रास्ते में भिखारी मिल गया | पूजा ने फट्टाक से १० रु का नोट निकाल कर उसे दे दिया, रिया ने उसे मना किया तो कहने लगी पुण्य का काम है दुआ मिलेगी | इसी बात पर दोनों में बहस छिड़ गयी, रिया का मानना था की पैसे दे कर नहीं मदद करनी चाहिए बल्की ऐसे लोगों को इस काबिल बनाना चाहिए की अपनी जरुरत भर वे खुद कमा सके | इस बहस में जाने क्या क्या कह गयी दोनों एक दुसरे को, समाज और इसकी व्यवस्था 
पर जितनी खीझ थी दोनों ने एक दुसरे पर उतार दी | अबतक दोनों खिलौनों फिर किताबों कि दुनिया में जी रहीं थी, एक स्वप्निल दुनिया में | अब जिस व्यावहारिक, वास्तविक दुनिया में दोनों कदम
 रख रही थी इसमें उनकी सोच बिल्कुल अलग थी एक दुसरे से | पूजा रीती रिवाजों, पौराणिक अवधारणाओं को शब्दशः मानने वाली थी और रिया खुले विचारों वाली लड़की थी | वह संस्कारों को बंधन के रूप में नहीं अपनाना चाहती थी, उसका यही  मानना था कि नियम इंसानों के लिए बनाये गए हैं, इंसान नियमों के लिए नहीं |
इस घटना के बाद कुछ ऐसे हालात बनते गए कि दोनों में दुरिया बढती गयी | पूजा कि शादी हो गयी और वह एक कुशल गृहणी कि तरह अपने घर संसार में खो गयी, उसके पती किसी छोटे से जिले में अधिकारी थे | रिया समीर के साथ थी विरोध तो बहुत झेला दोनों ने समाज का पर आखिर में जीत उनकी हीं हुई | दोनों सहेलिओं में अब सिर्फ नाम मात्र का हीं संपर्क रह गया था |एक दिन सरकारी छात्रवृत्ति बांटी जा रही थी जिले में काफी बड़ा जलसा था, बहुत 
बड़े बड़े लोग भी आने वाले थे | पूजा भी उस समारोह में गयी थी
 अपने पती और दोनों बच्चों के साथ | जब पुरस्कार वितरण शुरू हुआ 
तो जो पहला बच्चा आया इनाम लेने वह स्टेज पर जाते रोने लगा 
और फिर बोला कि मैं आज इस जगह परमैं जिसकी वजह से पहुंचा
 हूँ यह इनाम भी मैं उन्ही के हांथों लेना चाहूँगा | भीड़ कि काफी
 पीछे से एक औरत आई सभी उसकी ओर बड़ी उत्सुकता से देखने
 लगे और कोई पहचाने न पहचाने पूजा कैसे भूल सकती थी अपनी
 रिया को ? उस बच्चे ने कहा कि यँहा मौजूद जितने भी लोग हैं
 उनमेसे बहुत से लोगसंवेदनशील होंगे मुझे पता है पर आज मैं आप
 सब से हाथ जोड़ कर एक विनती करना चाहता हूँ किअपनी 
संवेदनशीलता को सही आयाम दीजिये | आज से ७ साल पहले
 जब मैं भीख मांगता था मुझे यही लगता था कि यही किस्मत है 
मेरी और शायद आप जैसे लोग भी यही समझते थे तभी तो मेरी 
कटोरी में सिक्के डालते जाते थे पर ये ऐसा नहीं सोचती थीं और इन्ही
 कि सोच ने मुझे आज यँहा पहुँचाया है | अगर हर कोई इनके जैसा
 सोचने लगे तो मेरे जैसे कितने हीं बच्चों कि जिन्दगी संवर जाएगी |
 पूजा आज मन हीं मन नतमस्तक हो गयी थी रिया के सामने,
 उसने आज तक भिखारिओं को कितने ही रु दे दिए थे इसका कोई 
हिसाब  नहीं पर वो सोच रही थी कि दे कर भीक्या दिया उसने ?वह
 हमेशा यही सोचती रही थी अब तक कि रिया कंजूस हो गयी है 
या तो सारी संवेदनाएं मर चुकी है उसके भीतर की | उसकी उस दिन 
की हर बात याद आ रही थी पूजा को जिसे वह महज भाषण बाजी
समझ रही थी | पूजा को यह लगता था की अकेले इससे क्या होगा ?
 पर आजवह यह मान गयी की "अकेला चना भी भाड़ फोड़ सकता है|
 दो सहेलियों के बीच यह फासला था विचारों का जो आज मिट चुका 
था जिसकी साक्षी थी पूजा के आँखों से बहते प्रेमाश्रु सिर्फ और सिर्फ
 रिया के लिए लेकिन यह आँसु दोस्ती के लिए नहीं थे ये आंसूं 
सम्मान के लिए थे एक सच्ची मानव सेवा के लिए | अपनी दोस्त 
रिया से तो उसे अभी जमकर लड़ाई करनी थी वह तो बेवकूफ थी 
पर रियातो इतनी समझदार थी उसेकिसी तरह से मानना चाहिए था
 न | 


अब लड़ना है तो लड़े इसमें हम आप क्या कर सकते हैं ? दो सहेलिओं
 के बीच का मामला है और फिर दोस्ती में लड़ने का हक तो बनता है 
यार ................

रविवार, 16 जनवरी 2011

जब सूरज उगने लगता है 
और पंछी  गाने लगते हैं
तब भोर किरण आशा बनके 
इस दिल को जगाने लगती है 
फिर सूरज चढ़ने लगता है 
कोलाहल बढ़ने लगता है 
तब आशा ही कोयल बनके 
एक मीठा गीत सुनाती है
जब सूरज सर पे होता है  
गर्मी से सबकुछ जलता है 
आशा की ठण्डी छावं तले 
एक प्यारा सपना पलता है 
फिर सूरज ढलने लगता है 
सब अन्जाना सा लगता है 
आशा हीं तब साथी बनके 
आगे का राह बताती है 
अँधियारा छाने लगता है 
और दिल घबराने लगता है 
आशा हीं  तब संबल बनके 
साहस मेरा बढाती है 
जब निंदिया रानी आती है 
सारी दुनिया सो जाती है 
आशा हीं दीपक बन के 
स्वप्न सलोने जगाती है 
जब तम गहन हो जाता है 
साया भी छोड़ के जाता है 
आशा आगे आ करके 
एक रौशनी दे के जाती है 
जब सबकुछ खोने लगते हैं 
और टूट के रोने लगते हैं 
आशा तब मुस्का करके 
सारे  आंसूं ले के जाती है 
पूछ ही दिया मैंने एक दिन
ऐ आशा तू कँहा रहती है ?
तेरे हीं मन में रहती हूँ
सांसों में तेरे बसती हूँ
तू क्यूँ घबरा जाती है 
खुद पर कर विश्वास सखी 
ये दुनिया रोक न पायेगी 
मंजिल अपनी तू पायेगी 










  

शनिवार, 15 जनवरी 2011

बड़ा नादान है दिल



बड़ा नादान है दिल
ये हँसना चाहता है
बड़ी मुस्किल है राहें
ये चलना चाहता है
बड़ी प्यारी है मंजिल
जो पाना चाहता है
सभी रोके हैं राहें
ये उड़ना चाहता है
है ये आँसु का दरिया
उबरना चाहता है
बीत चुके जो मंज़र
भुलाना चाहता है
बड़ा नादान है दिल
धड़कना चाहता  है
बंधन हैं लाखों
हटाना चाहता है
तितली में रंग जितने
चुराना चाहता है
खुशी के गीत प्यारे
ये गाना चाहता है
नीला है जो अम्बर
ये छूना चाहता है
टिमटिमाता तारा
बनना चाहता है
आँखों में उमड़े जो आँसु
छिपाना चाहता है
बड़ा नादान है दिल
ये हँसना चाहता है
इससे रूठी जो खुशियाँ
मानना चाहता है
पूरा दरिया नहीं तो
कतरा चाहता है
गिरते हुओं को
उठाना चाहता है
जो भी दुखी हैं उनको
हँसाना चाहता है
छुटा है सबसे पीछे
बढ़ना चाहता है
ये हँसना चाहता है
बड़ा नादान है दिल

शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

जर्रे जर्रे में अपनी पहचान ढूंढ़ती हूँ

जो हो मुझसा वैसा जहान  ढूंढ़ती हूँ 
जर्रे जर्रे में अपनी पहचान ढूंढ़ती हूँ 
मेरा ह्रदय वह अथाह सागर है 
कितनी हीं भावनाओं कि नदियाँ 
आ मिली हैं इसमें 
अतल गहराइयों में दफ़न हैं 
कितने अरमानो के मोती 
भावों के लहरों में लहराता 
डूबता उतराता ह्रदय सागर 
उद्वेलित रहता हर पल 
अनंत के चरणों में 
उड़ेलकर सारे भाव 
हो जाना चाहता है शांत 
बिल्कुल शांत ..........
मेरी आँखें वह असीम आकाश 
कितने ही स्वप्न मेघ घिर आते हैं 
विधि के चरणों में बरस मिट जाते हैं 
आकाश फिर हो जाता है सुना 
सपनों के लाखों तारे टिमटिमाते हैं 
घटता बढ़ता चंदा भी जगमगाता है 
पर हकीकत का सूर्य सब निगल जाता है 
ये आँखें पूरे संसार को ले लेना 
चाहती है अपने आगोश में 
और फिर पलकों कि चादर ओढ़े 
सो जाना चाहती है अनंत कि गोद में 
हमेशा हमेशा के लिए .............

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

समुद्र मंथन और अमृत वितरण





शुक्राचार्य से शक्ति ले दैत्य हो रहे थे प्रबल 
दुर्वासा के शाप ने देवराज को किया निर्बल 
असुरों,दैत्यों का हो रहा था अभ्युथान 
देवत्व का होता जा रहा था पतन 
सारे देवगन हो गए परेशान 
फिर नारायण को किया आह्वान 
श्री नारायण ने मंथन का राह दिखाया 
अमृत पान का गुरु मन्त्र सुझाया 
अमृत कि खातिर एक हुए दैत्य दैत्यारी 
समुद्र मंथन कि हो गयी तैयारी 
पर्वत मंदराचल कि बनी मथनी 
वासुकी नाग बन गया नेती
श्री विष्णु ने लिया कच्छप अवतार 
आधार बन संभाला पर्वत का भार
देव दानव सबमें शक्ति का संचार किया 
गहन निद्रा दे वासुकी का कष्ट हर लिया 
वासुकी कि मुख का भाग दैत्यों ने थाम लिया
देवताओं ने उसकी पूंछ कि ओर स्थान लिया 
समुद्र मंथन कि क्रिया हो गयी प्रारंभ 
मंदराचल का घूमना हुआ आरम्भ 
जल का हलाहल विष निकला सर्वप्रथम 
इतनी दुर्गन्ध कि घुटने लगा सबका दम 
उसके प्रभाव में सभी क्रांति खोने लगे 
दुर्गन्ध,जलन सभी असह्य होने लगे 
तभी शिव शंकर औढरदानी वँहा आये 
कालकूट विष पीकर नीलकंठ कहलाये 
भोले शंकर ने सबको पीड़ा से उबार दिया 
विष कंठ में धर सबका उन्होंने उद्धार किया 
कहते हैं कुछ बूंद विष जो गिरा धरती पर 
उसी से जन्मे सर्प,बिच्छु सारे विषधर 
विष पीड़ा काल हुआ संपन्न 
पुनः प्रारंभ हुआ समुद्र मंथन 
निकली कामधेनु नामक गोधन 
उस गाय को ऋषियों ने किया ग्रहण 
उच्चः श्रवा नामक जो अश्व आया 
दैत्यराज बलि ने उसे पाया 
फिर आया कल्पद्रुम औ आई रम्भा अप्सरा 
दोनों को देवलोक में स्थान मिला 
फिर मंथन ने माता लक्ष्मी को उत्पन्न किया 
लक्ष्मी ने खुद हीं श्री विष्णु का वरण किया 
फिर कन्या रूप वारुणी हुई उत्त्पन्न 
दैत्यों ने किया उसे ग्रहण 
यूँ हीं उद्भव हुआ चंद्रमा,पारिजात वृक्ष और शंख का
अंत में आये धन्वन्तरी लेकर घट अमृत का 
दैत्यों ने अमृत घट छीन लिया 
स्वभाववश  फिर आपस में युद्ध किया 
देख कर घट दैत्यों के पास 
देवता बेचारे खड़े थे उदास
तत्काल विष्णु ने मोहिनी रूप धरा
जिसने देखा उसे बस देखता ही रहा 
सुन्दरता को भी लजाने वाली वह रूपसी 
छम छम करती दैत्यों के पास चली 
मोहित हो दैत्य करने लगे वंदन 
हे सुमोहिनी,हे शुभगे,हे कमल नयन 
हम पर अपनी सौन्दर्य कृपा बरसा दो 
इन कर कमलों से अमृतपान करा दो 
वह मुस्काई तो सबके दिल में हुक उठी 
आखिर वह कोकिल बयनी कुक उठी 
हे कश्यप पुत्र,हे वीर कुछ सयाने भी लगते हो 
फिर भी मुझ सुंदरी,चंचला पर विश्वाश करते हो ?
इस अमृत घट से मेरा क्या प्रयोजन ?
आपस में खुद हीं कर लो न वितरण 
कामांध वे दैत्य कुछ समझ नहीं पाते थे 
उस ठगनी पर और विश्वास जताते थे 
मोहिनी ने दैत्य देवों को दो पंक्ति में बिठा दिया 
देवों को अमृत दैत्यों को तो बस झांसा दिया 
 (एक दैत्य ने भी अमृत पिया था जो राहू केतु बना पर उसका जिक्र इस कविता में नहीं है क्यूंकि वह दूसरी कहानी शुरू हो जाती )

बुधवार, 5 जनवरी 2011

अंतर्द्वंद


अँधेरे में पड़े रोने से अच्छा
आशा के दीप जला लो
अंधेरों में खोने से तो अच्छा
छोटी सी किरण अपना लो

पर सब रोशन कर दे 
ऐसा कोई दीप तो मिले 
देखो अँधेरा है यँहा 
हर जलते दीप तले 

छोटे से अँधेरे को छोड़ो
ऊपर देखो कितना रोशन है
मार्ग दीखाने को तुम्हे
क्या इतना उजाला कम है ?

चलते चलते आधे रास्ते में
यह दीपक बुझ जायेगा
मार्ग और भी दुर्गम होगा
और अँधेरा हो जायेगा 

जितना भी हो आगे बढ़ो तो सही
मंजिल नहीं रास्ते,तय करो तो सही
सोचो यँहा गर दीपक बुझ जायेगा 
 यह तिमिर और गहन हो जायेगा

हाय! इतनी दूर अभी चलना है 
और इतना समय गंवा दिया 
रास्ता इतना तय करना है 
ग़मों में यह भी भुला दिया 

जो बीता अब वापस न आएगा
टुटा जो संवर नहीं जायेगा
यह पल जो खो दिया तुमने
फिर इस पर भी रोना आएगा




मंगलवार, 4 जनवरी 2011

बगिया आज खिल उठी





कलियों के चटखने से 
बगिया आज महक उठी 
फूलों के मुस्कुराने से 
प्रकृति भी खिलखिला उठी



और भी रंगीन होती जा रहीं 
तितलियाँ रस पीकर 
दीवाने होकर देखो गा रहे 
सांवले सलोने भ्रमर 






गुजरा पवन इन्हें छूकर 
उसका रोम रोम महक उठा 
सहलाया बादलों को जाकर 
तो वह भी आज बहक उठा 


सारा स्नेह एकत्रित कर 
सर्वस्व अपना बरसा दिया 
कली को बूंदों से स्पर्श कर 
खुश हुआ औरों को हरसा दिया 


भीगी भीगी सी कलियाँ भी 
शर्मा कर झुक गईं 
जा रही थी जो हवा वह 
मंत्रमुग्ध होकर रुक गई 


मंद पवन का झोंका आया 
मुझको सारा हाल बताया 
शीतल सुवासित सुन्दरता से 
मेरा परिचय करवाया  













सोमवार, 3 जनवरी 2011

मेरी गली के आवारा कुत्ते



मेरी गली में रहते 
कुछ आवारा कुत्ते 
इंसानों के बीच रहते रहते 
अपना पराया सीख चुके 
गली में कोई उनका 
गैर नहीं 
बाहरी कुत्ते आये तो फिर 
उनकी खैर नहीं 
ये गली उनकी है 
पर इस गली में 
उनका कोई घर नहीं 
तभी कडकडाती सर्दी में 
कूँ..कूँ करते ठिठुरते 
ये आवारा कुत्ते 
कुछ सरकारी 
अलाव भी जलतें हैं 
पर इनसे पहले 
कुछ अधनंगे से 
दरिद्र उसे घेर लेते हैं 
बेबस खड़े देखते 
ये आवारा कुते 
ऊनी कपडे,बिस्कुट 
पालतू कुत्ते कि ठाट 
देख दंग रह जाते हैं 
गले में पट्टा देख 
खुशी से दौड़ लगाते 
या फिर शायद 
आजादी अपनी दिखाते हैं 
आकाश को देख, जाने 
अपना दुर्भाग्य गाते हैं 
या उस पालतू का 
दर्द सुनाते हैं 
ये आवारा कुत्ते 

रविवार, 2 जनवरी 2011

चाँद



ऐ चाँद, जाकर छिप जा
बादलों कि चुनर में
तुझे देख  कर ये
आँखें भर आती हैं
सालों पहले तू
कितना प्यारा था
परियों का देश
चंदा मामा था
तुझे निहारते हुए
कई सपने देखे थे
हर सपने कि लाश
सा नजर आता है तू
तेरी चाँदनी में
बैठ हम खेलें थे
चाँदनी अब यादों कि
चिताग्नि सी लगती है
तेरी रौशनी पसंद नहीं
अँधेरा हीं अब भाता है
खिड़की खोलते तू
क्यूँ सामने आ जाता है ?
जाकर छिप जा तू
क्यूँ मुझको रुलाता है ?
थिरक कर ये चाँदनी
क्यूँ मुझको जलाती है ?
तुझमे परियों कि रानी नहीं
 भयावह दैत्य नजर आता है
ऐ चाँद छिप जा तू
तुझे देख दिल दहल जाता है

शनिवार, 1 जनवरी 2011

नए साल में कुछ नया करें


चलो नए साल में कुछ नया करें ,
सबके जीवन में नए रंग भरें |


किसी के आँसु पोंछें,
किसी को मुस्कान दे दें |


धूप में किसी को साया ,
किसी गिरते को सहारा दे दें |


मानवता के उत्थान  हित,
कुछ और नहीं तो दुआ दे दें |


उपेक्षित जनों को ,
चाहत का दरिया दे दें |


लोभ, द्वेष को छोड़ ,
घृणा को तिलांजलि दे दें |


दुखी किसी जान को ,
खुशियों कि होली दे दें |


गुमनाम अंधेरों को ,
जगमगाती दिवाली दे दें |












दबे कुचलों को ,
बुलंद आवाज़ दे दें |


किसी मायूस जीवन को ,
मधुर सुरों का साज दे दें |





शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

ढलते सूर्य को मेरा नमन


पुराना साल जाने को है और नए साल का पदार्पण होने हीं वाला है | साल का आखिरी सूर्य अस्त होगा और नयी आशाओं को लिए बालारुण पूर्वी क्षितिज से उदीत होगा | क्या जा रहा है और क्या आएगा ? कुछ भी तो नहीं | अपनी सहूलियत के लिए बनाये गए इन सालों का आवागमन बस दर्शाता है गतिमान समय को, जो बढ़ता हीं जायेगा, बढ़ता हीं जायेगा |
उगते सूर्य को तो हम हमेशा सलाम करते हैं , अर्ध्य चढाते हैं | ऐ अस्त होते सूर्य जरा ठहर जा आज तुझे भी अर्ध्य चढ़ा लूँ | मुझे पता है तू न ठहरा है और न ठहरेगा पर अपनी मानव प्रवृति से लाचार मैंने तुझे ठहरने को कह दिया बस अपनी संतुष्टि  के लिए | इससे पहले कि तू पश्चिमी क्षितिज में जाकर विलीन हो जाए, मैं पूरे साल को संजो लेना चाहती हूँ अपनी यादों कि डायरी में | तू हीं जब साल का पहला सूर्य बन कर आया था तो हमने भव्य स्वागत किया था,और कल फिर जब तू नए साल का सूर्य बन कर आएगा तो तेरा स्वागत किया जायेगा | जब नए साल का आगमन हुआ तभी से पता था कि यह चला भी जायेगा | जाने फिर क्यूँ मान बेचैन हुआ जाता है | लगता है जैसे कुछ पीछे छुटा जा रहा है | सोचती हूँ कि मैं आगे बढ़ गयी, तू पीछे छुट गया या तू समय कि चाल से आगे बढ़ गया और मैं पीछे रह गयी ?
बहुत सी नयी खुशियाँ दी है तुने मुझे जिसे मैं कभी भूल नहीं सकती जाते हुए कुछ आँसु भी दिए उन्हें भी नहीं भुलाया जा सकता | तू पूरी तरह से बस गया है मेरी यादों में | ऐ जाते हुए साल, ढलते हुए सूर्य मेरा नमन स्वीकार कर |