जो हो मुझसा वैसा जहान ढूंढ़ती हूँ
जर्रे जर्रे में अपनी पहचान ढूंढ़ती हूँ
मेरा ह्रदय वह अथाह सागर है
कितनी हीं भावनाओं कि नदियाँ
आ मिली हैं इसमें
अतल गहराइयों में दफ़न हैं
कितने अरमानो के मोती
भावों के लहरों में लहराता
डूबता उतराता ह्रदय सागर
उद्वेलित रहता हर पल
अनंत के चरणों में
उड़ेलकर सारे भाव
हो जाना चाहता है शांत
बिल्कुल शांत ..........
मेरी आँखें वह असीम आकाश
कितने ही स्वप्न मेघ घिर आते हैं
विधि के चरणों में बरस मिट जाते हैं
आकाश फिर हो जाता है सुना
सपनों के लाखों तारे टिमटिमाते हैं
घटता बढ़ता चंदा भी जगमगाता है
पर हकीकत का सूर्य सब निगल जाता है
ये आँखें पूरे संसार को ले लेना
चाहती है अपने आगोश में
और फिर पलकों कि चादर ओढ़े
सो जाना चाहती है अनंत कि गोद में
हमेशा हमेशा के लिए .............
इश्वर करे की तलाश जल्द पूरी हो.
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता
अच्छी कविता
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना | बधाई |
जवाब देंहटाएंअहसास की नहर सी सुन्दर कविता। बधाई।
जवाब देंहटाएंसुन्दर कविता। बधाई।
जवाब देंहटाएंआपको और आपके परिवार को मकर संक्रांति के पर्व की ढेरों शुभकामनाएँ !"
जवाब देंहटाएंacchi hai .....:)
जवाब देंहटाएंpyari rachna....:)
जवाब देंहटाएंसुन्दर भावपूर्ण प्रवाहमयी रचना...
जवाब देंहटाएंशायद सबसे मुश्किल यही होता है..... अपनी पहचान की तलाश ..... प्रभावी रचना
जवाब देंहटाएंdhoondhte rahon
जवाब देंहटाएंpar poore jahaan main
apna sa n milega
koi