बुधवार, 5 जनवरी 2011

अंतर्द्वंद


अँधेरे में पड़े रोने से अच्छा
आशा के दीप जला लो
अंधेरों में खोने से तो अच्छा
छोटी सी किरण अपना लो

पर सब रोशन कर दे 
ऐसा कोई दीप तो मिले 
देखो अँधेरा है यँहा 
हर जलते दीप तले 

छोटे से अँधेरे को छोड़ो
ऊपर देखो कितना रोशन है
मार्ग दीखाने को तुम्हे
क्या इतना उजाला कम है ?

चलते चलते आधे रास्ते में
यह दीपक बुझ जायेगा
मार्ग और भी दुर्गम होगा
और अँधेरा हो जायेगा 

जितना भी हो आगे बढ़ो तो सही
मंजिल नहीं रास्ते,तय करो तो सही
सोचो यँहा गर दीपक बुझ जायेगा 
 यह तिमिर और गहन हो जायेगा

हाय! इतनी दूर अभी चलना है 
और इतना समय गंवा दिया 
रास्ता इतना तय करना है 
ग़मों में यह भी भुला दिया 

जो बीता अब वापस न आएगा
टुटा जो संवर नहीं जायेगा
यह पल जो खो दिया तुमने
फिर इस पर भी रोना आएगा




6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर रचना है!
    मनोविश्लेषण अच्छा है आपका!

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  2. वाह....खो गया मैं....:)
    आज कल टिप्पणियों से ज्यादा ब्लॉग पढने में समय दे रहा हूँ.... लेकिन यहाँ टिपण्णी दिए बिना न रह सका....

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  3. वाह दीप जलाने के लिए एक चिंगारी काफी है आलोकिता

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  4. बहुत सुन्दर सकारात्मक सोच लिये उमदा रचना। बधाई।

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