दायीं हथेली में मम्मी और बायीं
हथेली में पापा की ऊँगली थामे, अपने नन्हे-नन्हे कदमो से चलती हुई सर्जना क्लास
रूम तक पहुँची| शिक्षिका ने उसे अपने सामने देखते हीं गुस्से में कहा ‘फेल हुई हो
तुम, दुबारा पढ़ना इसी क्लास में’ और कुछ बच्चे हँस पड़े| शिक्षिका का वह वाक्य और
अपने सहपाठियों की हँसी उसके कोमल ह्रदय पर कठोर प्रहार से थे| अपने चारों ओर उसे खुद
के लिए केवल तिरस्कार और उपेक्षा हीं नज़र आ रही थी, वह सहम गयी| वह चाहती थी कि
पापा उसे गोद में उठा लें या मम्मी अपने आँचल में छुपा ले| वह सुरक्षित महसूस करना
चाहती थी| उसने आशा भरी दृष्टी से अपने पिता को देखा, उन्होंने गुस्से में नज़रें
फेर लीं, माँ के आँचल में लिपट जाना चाहा तो उन्होंने उसके कोमल से गाल पर एक
ज़ोरदार तमाचा जड़ दिया| दोनों हीं आज सर्जना की वजह से शर्मिंदा थे, उनके
सहकर्मियों के बच्चे अच्छे नंबरों से पास हुए थे और उनकी बेटी ने फेल होकर उनका सर
शर्म से झुका दिया था (टिउसन में खर्च किये पैसे भी तो बर्बाद हुए)| उसकी हथेली से
माँ-बाप की उँगलियाँ फिसल गयीं या उन्होंने खुद हाथ छुड़ा लिया उसे नहीं मालुम, पर
क्या फर्क पड़ता है...| ठीक उसी तरह जैसे किसी को क्या फर्क पड़ता है कि सर्जना ने
पास होने के लिए पूरी मेहनत की थी, क्या फर्क पड़ता है कि उसे भी फेल होना पसंद
नहीं वह भी अपने सहपाठियों की तरह नयी कक्षा में जाना चाहती थी.......दुनिया
परिणाम देखती है| परिणाम यह था कि सर्जना फेल हुई थी और वापस लौटते वक्त मम्मी-पापा
के साथ तो थी पर उनकी उँगलियों का सहारा न था| वह अकेली हीं लौट रही थी....
घर पहुँचते हीं उसे उसकी सजा सुना
दी गयी| उसके कमरे में उसे अकेले बंद कर दिया गया क्यूंकि उसे अकेले रहना पसंद
नहीं था और नाहीं बंद कमरे में (अक्सर अपने लोग जानते हैं चोट कहाँ दी जाए)| कमरे
में अकेले बैठी वह रोती रही, वह जानती थी कि उसने पूरी मेहनत की थी लेकिन याद किया
हुआ वह कुछ भी तो याद नहीं रख पाती| वह दुखी थी, आत्मग्लानी से भरी हुई, उसके
माता-पिता दुखी थे, गुस्से से भरे हुए, सबकी नज़रों में गुनहगार सिर्फ ‘सर्जना’ थी|
उस छोटे से कमरे में बंद उस छोटी सी लड़की को क्या मालुम था कि बाहर बड़े-बड़े
सम्मेलनों, अखबारों, व्याख्यानों में बड़े-बड़े लोग अक्सर ‘हर बच्चा खास है’ जैसी
पंक्तियाँ बोल कर कितनी तालियाँ, कितनी वाह-वाहियाँ बटोर ले जाते हैं| उसे तो बस
इतना पता था कि वह खास नहीं है और वह खास हो भी नहीं सकती| वह तो केवल साधारण से
अंक लेकर पास होने वाले सभी आम बच्चों की तरह आम होना चाहती थी पर वह तो आम भी
नहीं थी|
घंटो रोती-रोती सर्जना चुप हुई और
उसी वक्त उसकी माँ उसके लिए खाना लेकर आई और उसे चुपचाप बैठा देख कर बोली ‘कुछ
शर्म बाकी है तो अब भी तो पढ़ ले’ और उसके सामने खाना रख कर चली गयी| आत्मग्लानी और
बेबसी से वह फिर सिसकने लगी| माँ ने तो अपनी खीझ उसपर निकाल ली (और शायद पापा ने
माँ पर) लेकिन वह किसको कुछ कह सकती थी...
कुछ देर बाद कमरे में फिर सन्नाटा
पसर गया और बाहर सड़कों पर हलचल बढ़ गयी| खिडकी बंद थी, शायद शाम ढलने को थी क्यूंकि
शाम को हीं तो इतनी चहल पहल और शोर बढ़ जाता है...हर रोज़| टन-टन टन-टन घंटी बजाता
हुआ कोई गुज़रा, वह पहचानती थी उस आवाज़ को समझ गयी ‘हवा मिठाई’ बेचने वाला था|
‘मुन्नी बदनाम हुई’ गाना बजाता हुआ ‘कुल्फी’ वाला गुज़रा, फिर थोड़ी देर बाद ढब-ढब
की आवाज़ करता आइस-क्रीम वाला, गोल्डेन होगा या फिर रौलिक वाला भी हो सकता है| हर
बच्चे की तरह उसका मन भी इन चीजों के लिए ललचाता था लेकिन वह मूर्तिवत बैठी रही|
थोड़ी देर बाद एक और आवाज़ आई जिसे वह पहचान नहीं पायी| हर क्षण वह आवाज़ पास आ रही
थी फिर शायद वह जो भी था उसकी खिडकी के पास हीं ठहर गया| मन में उत्सुकता तो थी
लेकिन वह कुछ भी ऐसा नहीं करना चाहती थी जिससे मम्मी-पापा को और बुरा लगे इसलिए
उसने खिडकी खोल कर बाहर नहीं देखा| कुछ देर बाद वह आवाज़ फिर दूर जाने लगी और
धीरे-धीरे खत्म हो गयी|
अगले दिन से उसे ज्यादा से ज्यादा
देर तक पढ़ने की हिदायत मिली और शाम को खेलना बंद कर दिया गया| वह पढ़ रही थी, काफी
देर से पढ़ रही थी यहाँ तक शाम को जब सभी बच्चे खेल रहे थे वह तब भी किताब के साथ
हीं बैठी थी| बाहर सबकुछ रोज़ जैसा हीं था, उसके होने या न होने से बाहर की दुनिया
को कोई फर्क नहीं पड़ा था| अचानक फिर वही जादुई सी आवाज़ जो कल उसने पहली बार सुनी
थी, फिर कहीं दूर से पास आ रही थी| आज वह खुद को रोक नहीं पायी, पलंग के सिरहाने
के पास वाली खिडकी पर चढ़ कर इधर-उधर देखने लगी(मम्मी तो ऐसे भी टी. वि देखने में
व्यस्त थी अपने कमरे में)| आज उसे मालुम हुआ वह तो एक गुब्बारे वाला था जो कुछ
बजाता हुआ आ रहा था, वह ‘कुछ’ क्या था उसका नाम तो सर्जना को भी नहीं मालुम पर
शायद कहीं ऐसी तस्वीर देखि थी उसने| वह गुब्बारे वाला, गुब्बारे बेचता हुआ आकर
उसकी खिडकी के बाहर पड़े पत्थरों के ढेर पर बैठ गया, शायद थक गया था आराम करना
चाहता था| लेकिन छिः उन्ही पत्थरों के ढेर पर तो रात को कुत्ते सोते हैं और एक दिन
तो सर्जना की चप्पल में वहीं खेलते वक्त डॉगी की पौटी लग गयी थी| अचानक उसने बोला
‘गुब्बारे वाले वहाँ मत बैठो, वहाँ तो डॉगी सोता है’(पौटी करता है बोलने वाली थी
पर कुछ सोच कर चुप रह गयी)| उसकी तरफ प्यार से देखते हुए गुब्बारे वाला हँस कर
बोला बड़ी प्यारी बच्ची है और वहीं बैठ गया| खैर वह कहीं बैठे गुब्बारे तो उसके पास
बहुत तरह-तरह के थे, इतने रंग-बिरंगे कि शायद टीचर को भी इन रंगों के नाम मालुम न
हो (यह ख्याल मन में आते हीं उसके होठों पर एक मासूम हँसी तैर गयी)| वह देख रही थी
कुछ बच्चे आ-आ कर गुब्बारे वाले से अपनी-अपनी पसंद के गुब्बारे खरीद रहे थे| उसने
सोचा अगर मम्मी उसे गुब्बारे खरीद दे तो वह कौन सा लेगी? उसे तो सभी पसंद हैं|
थोड़ी देर बाद जब गुब्बारे वाला उठ कर जाने लगा तो सर्जना ने हाथ बढ़ा कर गुब्बारे
छूने की कोशिश की और वह कामयाब रही| उसकी नन्ही हथेलियों को सहलाते हुए एक
गुब्बारा गुज़रा......बिलकुल आसमान के रंग का...उसकी ड्राविंग बुक के आसमान के रंग
का|
उस दिन से तो रोज़ का नियम हो
गया....गुब्बारे वाले का इंतज़ार...| वह आता भी रोज़ था और वहीं बैठता था, सर्जना को
देख कर मुस्कुराता और रोज़ उसे एक गुब्बारा देता, जिसे वह कभी भी खिडकी की सलाखों
के बीच से अंदर नहीं ला पाती थी बस थोड़ी देर हाथ में ले कर लौटा देने में ही उसे
अपार खुशी होती थी| गुब्बारा लेने या उससे खेलने से ज्यादा बड़ी खुशी इस बात की थी
कि उसके सिवा गुब्बारे वाला किसी और बच्चे को बिना पैसे लिए गुब्बारे छूने भी नहीं
देता था| एक दिन कारण पूछने पर उसने कहा था कि वह उसे उन सारे बच्चों से ज्यादा अच्छी
लगती है, सबसे अलग| सर्जना को भी तो वह गुब्बारे वाला बहुत अच्छा लगता था, यूँही
नहीं वह अपनी हर कॉपी के पीछे गुब्बारे वाले की चित्र बनाती रहती थी| सर्जना
की खुशी और गुब्बारे वाले के खास होने का
कारण वो गुब्बारे नहीं बल्कि वह एहसास था जो उसे उस गुब्बारे वाले ने उसे दिया
था.....’खास होने का एहसास’