शनिवार, 7 दिसंबर 2013

तुम . . .


बेधड़क गूँजता अट्टहास नहीं
हया से बंधी अधरों की अधूरी मुस्कान हो तुम

जिस्म की बेशर्म नुमाइश नहीं
घूँघट की आड़ से झांकते चेहरे की कशिश हो तुम

उठी हुयी पलकों का सादापन नहीं
झुकी झुकी सी पलकों का स्नेहिल आकर्षण हो तुम

भूली-बिसरी कोई गीत नहीं
हर वक्त ज़ेहन में मचलती अधूरी कविता हो तुम

साधारण सी कोई बात नहीं
इक अलग सा कुछ खास हीं एहसास हो तुम


लब पे आ सके वो नाम नहीं

दिल के कोने में बसा अंजाना जज़्बात हो तुम



                                         






...आलोकिता

मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

मेरी वो चीज ढूंढ के ला दो

सुनिए ज़रा .....

अरे हाँ भई आप ही से बात कर रही हूँ, एक छोटी सी मदद चाहिए थी. कुछ खो गया है मेरा ढूंढने में मेरी मदद कर देंगे? हाँ हाँ बहुत ज़रुरी चीज़ है, कोई अहम चीज़ न होती तो नाहक हीं क्यूँ परेशान करती आपको? उसकी अहमियत? मेरे दिल से पूछिए तो मेरी आज़ादी, मेरा स्वावलंबन, मेरा स्वाभिमान सब कुछ तो है वो और आपके समझने वाली किताबी भाषा में बोलूँ तो मेरा “मौलिक अधिकार”. क्या कहा आपने, मुझे पहले खुद प्रयास करनी चाहिए थी? मैंने बहुत प्रयास किया, कसम से हर जगह ढूंढा पर कहीं नहीं मिला.

हाँ सच कहती हूँ मैं स्कूल गयी मैं कॉलेज भी गयी अपने बराबरी का अधिकार, अपनी शिक्षा का अधिकार ढूंढने पर . . . क्या बताऊँ मुख्य द्वार पर हीं रोक दिया गया. नहीं नहीं किसी ने खुद आकर नहीं रोका पर वहाँ केवल सीढियाँ हीं सीढियाँ थीं कोई रैम्प नहीं जिससे मैं या मेरे जैसे और भी व्हील्चेयर इस्तेमाल करने वाले लोग, कैलिपर, बैसाखियों वाले या फिर दृष्टि बाधित लोग जा सकें. हाँ एक कॉलेज में रैम्प जैसा कुछ देख के आशा जगी कि शायद यहाँ मिल जाए मेरे अधिकार लेकिन वह भी ऐसा रैम्प था कि चढ़ने का प्रयास करते हीं व्हीलचेयर के साथ लुढक कर सड़क पर गीर गयी. फिर भी मैं वापस नहीं लौटी, एक राहगीर से मदद ले कर अंदर गयी . . . क्या आप विश्वाश करेंगे अंदर एक भी कमरा जी हाँ एक भी कमरा ऐसा नहीं था जिसमें मेरे जैसे विकलांग छात्र-छात्राएं जा सकें और जब हमारे पढ़ने के लिए कक्षाएं हीं नहीं तो शौचालय ढूँढना तो बेवकूफी हीं है. मन में एक बात आई ‘क्या ये शिक्षण संस्थान ये मान कर बनाये जाते हैं कि हमारे देश में विकलांग छात्र है हीं नहीं? क्या ऐसा सोच कर वो हमारे मौलिक अधिकारों का हनन नहीं कर रहे?’
 

क्या? पत्राचार से घर बैठे डिग्री ले लेने के बाद मेरी लाइफ सेट है? सरकारी नौकरी की बात कर रहे हैं? हा हा हा हा ... माफ कीजियेगा, आप पर नहीं हँस रही, बस हँसी आ गयी वो कहते हैं न ‘ज़न्नत की हकीकत हमें भी मालुम है ग़ालिब, दिल बहलाने को ये ख़याल अच्छा है’. पहले सबकी बातें सुन सुन कर मैं भी कुछ ऐसा हीं सोचती थी और मैंने तो एक नौकरी के लिए फॉर्म भरा भी था. सचमुच विकलांगो के लिए एक अलग सेंटर दिया था उन लोगों ने, और पता है उस सेंटर की खासियत क्या थी? खासियत ये थी कि एक भी कमरा निचली मंजिल पर नहीं था, सभी को सीढियाँ से उपरी मंजिलों तक जाना था. कोई गोद से जा रहा था तो कोई ज़मीन पर घिसटते हुए. जब आगाज़ ये था तो अंजाम की कल्पना तो की हीं जा सकती है. विश्वाश नहीं हो रहा? अरे कोई बात नहीं मेरा विश्वाश ना कीजिये सरकारी दफ्तरों के एक चक्कर लगा के देख लीजिए खुद नज़र आ जायेगा कि उन दफ्तरों की संरचना कितनी सुगम है. कोई भी बैंक, ए०टी०एम, पोस्ट ऑफिस कहीं भी जा कर देख लीजिए कि विकलांगो चाहे वो कर्मचारी हो या कोई और किसी के लिए भी आने जाने का रास्ता बना है कहीं? अगर बराबरी का अधिकार है तो कहाँ है? नज़र क्यूँ नहीं आता?

जी क्या बोला आपने? मेरा दिमाग गरम हो गया है? थोड़ी ठंढी हवा खा लूँ? हाँ ठीक है पँखा चला लेती हूँ पर ठंढी हवा से याद आया सभी कहते हैं प्राकृतिक हवा स्वास्थ के लिए बहुत लाभकारी होती है और यही सोच कर मैं भी और लोगों की तरह पार्क गयी थी लेकिन देखिये ना इतने सारे पार्क सब के लिए 3-3, 4-4 गेट बने हुए हैं पर उसमें से एक भी गेट विकलांगो की सुगमता के लिए नहीं.

विकलांगो को और लोगों से बढ़ कर सुविधा दी जाती है? करोड़ों रूपए खर्च होतें है? आप भी न, नेताओं वाली भाषा बोलने लगे. हाँ बाबा जानती हूँ निशक्तता पेंशन अलग अलग राज्यों में अलग अलग योजनाओं के तहत बांटे जाते हैं. पिछले साल मुझे भी मिले थे (इस बार वाले का कुछ पता नहीं) पर तीन सौ रूपए महीने में कौन कौन सा खर्च निकल जाएगा? मैं ये बिलकुल नहीं कह रही कि इस राशि को बढ़ाया जाय मैं क्या कोई भी नहीं कहता. कहना तो ये है कि बंद हो जाए ये पैसे लेकिन बदले में हमें हमारे मौलिक अधिकार मिले. स्कूल, कॉलेज, दफ्तर सभी सार्वजनिक स्थल ऐसे हों कि हम अपनी मर्ज़ी से स्वाभिमान के साथ कहीं भी जाएँ, अपनी प्रतिभा, अपने हुनर से अपनी जीविका के लिए खुद कमा सकें. किसी एक अंग के कमज़ोर या न होने के कारण हम ‘निशक्त’ हैं यह एक ग़लतफ़हमी है.

कहने के लिए तो ट्रेन में सफर करने के लिए किराए में छूट दी जाती है पर इस छूट का क्या फायेदा जब ट्रेन के डब्बे ऐसे हों जिनमें हम खुद जा हीं न सके, जिसका शौचालय हमारे उपयोग के लायक हो हीं नहीं? ट्रेन में सफर करने के लिए भी बाकी लोगों के टिकट तो घर बैठे ऑनलाइन बनाये जा सकते हैं पर विकलांगो का टिकट तो काउंटर पर जा कर ही बनेगा. मेधा छात्रवृति की बात हो तो भी बाकी छात्र तो अपने अपने कॉलेज में हीं फॉर्म भर लेते हैं लेकिन विकलांग छात्रों को एक दूसरी जगह से फॉर्म मिलता है वो भी जमा करने खुद जाना होता है. क्या इसी को बराबरी का अधिकार कहते हैं? कहने को तो अभी बहुत कुछ है पर कहूँगी सिर्फ इतना कि मेरे सारे मौलिक अधिकार ढूंढ के ला दीजिए. हर जगह देख लिया नहीं मिला लेकिन अब रहा नहीं जाता कहीं से भी मुझे मेरे अधिकार चाहिए.   

...आलोकिता  

गुरुवार, 17 अक्तूबर 2013

तेरी हर याद ........

Drawn by me

हो प्यार का सुर जिसमें, वो गीत सुनाती है 
तेरी हर याद मुझे, तेरी ओर बुलाती है

जिसकी धुन सुन कर, दिल रोज़ धड़कता है.
मुझे प्यार की मीठी सी, संगीत सुनाती है

तेरी हर याद मुझे, तेरी ओर बुलाती है.

है मीलों की दूरी, पर हर पल साथ ही हो
साँसे बन कर यादें, मेरा दिल धड़काती हैं

तेरी हर याद मुझे, तेरी ओर बुलाती है

सपनो में रोज़ मेरे, एक तू ही तो आता है
मेरी सुनी आँखों में , नये ख्वाब सजाता है

गुज़री कितनी रातें , गुज़रे कितने ही दिन
एक पल भी लेकिन, यादें छूट ना पाती हैं

तेरी हर याद मुझे, तेरी ओर बुलाती है

बुधवार, 9 अक्तूबर 2013

एक खुशख़बरी है

कभी कविता तो कभी लेख, कभी ग़ज़ल तो कभी कहानी अलग अलग रूपों में अक्सर ही इस ब्लॉग पर 
आपसे अपने विचार, अपनी भावनाएँ, अपने जज़्बात सब साझा करती आई हूँ | आज एक खुशख़बरी साझा करनी है, कहते है ना बाँटने से खुशियाँ बढ़ती हैं| वैसे तो इस खुशख़बरी से मैं सीधे तौर पर जुड़ी हूँ लेकिन यह केवल मेरी निज़ी खुशी नही है, ये तो हमारे पूरे देश के लिए एक खुशी की खबर है| तो दोस्तों वो खुशी की खबर ये है कि हमारे देश में सकारात्मक बदलाव की एक ठंढी बयार बह रही है| हमारा देश, हमारा समाज बदल रहा है, बदल रहे हैं लोगो के सोच और उनका नज़रिया| पूर्णता और अपूर्णता के बीच की दीवार में पड़ने लगी है दरार और खुलने लगे हैं कुछ दरवाज़े सबके लिए जो कल तक समाज के एक ख़ास वर्ग के लिए बंद थे| पता है आपको इस साल से पहली बार हमारे देश में मिस इंडिया सौंदर्य प्रतियोगिता आयोजित की जा रही है शारीरिक रूप से अक्षम लड़कियों के लिए | पूरे देश की अक्षम लड़कियों को दिया जा रहा है ये मौका खुद को साबित करने का, ये एहसास करने का मौका क़ि वे भी खूबसूरत है | खूबसूरती केवल शारीरिक आकर्षण का नही, खूबसूरती जो छुपी है उनके अंदर- जज़्बातों की खूबसूरती, खयालतों की खूबसूरती | यह प्रतियोगिता केवल खूबसूरती नही बौद्धिक क्षमता का भी आंकलन करेगी | चौबीस नवंबर को मुंबई में होगा इस प्रतियोगिता का अंतिम चरण जिसके बाद चुन ली जाएगी हमारे देश की पहली मिस व्हीलचेयर इंडिया |

जैसा कि मैने पहले कहा कि इस खुशख़बरी से मैं भी सीधे तौर पर जुड़ी हूँ, तो चलिए वो निज़ी खुशी भी आपसे साझा कर लूँ| मेरे एक दो पुराने पोस्ट्स से शायद कुछ लोगो को ये मालूम होगा कि मैं भी व्हीलचेयर के बगैर खड़ी नही हो सकती| बचपन से कभी ये सोचा नही था की मैं 'आलोकिता' कभी किसी सौंदर्य प्रतियोगिता का हिस्सा भी बन सकती है, पर आज मैं उन छत्तिस लड़कियों में से एक हूँ जिनके लिए अभी जनता के मतदान लिए जा रहे हैं| मुंबई जाने के लिए अभी मुझे आप लोगो के सहयोग की आवश्यकता है| मेरा मानना है कि मेरी रचनाएँ हीं मेरी पहचान हैं और ये ब्लॉग जगत मेरी पहचान से भली-भाँति वाकिफ़ है | ना सिर्फ़ मेरी तस्वीर देख कर बल्कि मेरी रचनाओं के आधार पर आप ये सोच कर बताएँ की क्या मैं उस काबिल हूँ की भारत की पहली मिस व्हीलचेयर इंडिया बन सकूँ? अगर हाँ तो अपनी सहमति जताने के लिए voting.misswheelchair@gmail.com  इस आई डी पर एक छोटा सा मेल भेजें, जिसमें लिखना है आपका नाम(भेजने वाले का), जगह और Contestant no.12 जो की मेरा कोड है|
 

















आप अगर चाहें तो इस Link पर जा कर इस प्रतियोगिता की पूरी जानकारी ले सकते हैं ।

मंगलवार, 3 सितंबर 2013

ख़ामोशी की दीवार ढह जाती तो अच्छा था


कड़वी यादें बीते पलों संग हीं रह जाती तो अच्छा था 
वो यादें या फिर अश्कों के संग बह  जाती तो अच्छा था

 कुछ ख़ास नहीं हैं दूरियाँ ,  तेरे-मेरे दरमियाँ 
बस ख़ामोशी की दीवार ये ढह जाती तो अच्छा था 

नाकाम कोशिशें ख़ामोशी के सन्नाटे को और गहराती है 
इन खामोशियों से बेपरवाह हीं रह जाती तो अच्छा था 

मुश्किल है एहसासों को दिल में छिपाए रखना 
गिले-शिकवे तुम्ही से सब कह जाती तो अच्छा था 

महफ़िलों में मिले तन्हाई तो और भी खलती है 
बंद अपने कमरे में अकेली हीं रह जाती तो अच्छा था  

                                                                                                            … … … आलोकिता                                                                                       

गुरुवार, 1 अगस्त 2013

जीवन भर का साथी ....मेरा जीवन साथी


आज से करीब डेढ़ साल पहले मेरी जिन्दगी में एक बहुत अहम मोड़ आया।  एक मोड़ जिसने मेरी जिन्दगी में बहुत कुछ बदल दिया, जिन्दगी जीने का मेरा तरीका, अपने वर्तमान और भविष्य को देखने का मेरा नज़रिया। एक मोड़ जिसने मुझमें आत्मविश्वाश भर दिया, बेशक मैं कह सकती हूँ अबतक की मेरी ज़िन्दगी का सबसे हसीन मोड़, वह मोड़ जहाँ मिला मुझे मेरे जीवन भर का साथी ...…मेरा जीवन साथी।


हालाँकि अपनी जिन्दगी में उसे जगह देने से पहले एक अजीब सी झिझक थी मन में (शायद समाज के नज़रिये की वजह से) लेकिन आज मैं पूरे विश्वास के साथ और सच्चे दिल से कह सकती हूँ की पापा की रज़ामंदी के बगैर लिया हुआ मेरा वो फैसला गलत नहीं था क्यूंकि एक अच्छे जीवन साथी के सारे गुण मौजूद हैं उसमें और मैं उसके मेरे जीवन में होने से काफी खुश हूँ। गलत नहीं थी मैं, जब अपनी लगभग पूरी जमा पूँजी लगा दी व्हीलचेयर खरीदने में।


आज मैं साफ़ तौर पर बहुत बड़ा अंतर देख सकती हूँ उसके आने से पहले और उसके आने के बाद के अपने जीवन में।  मुझे याद है उसके मेरे जीवन में आने से पहले चार दीवारों से घिरा एक कमरा बस इतना ही तो था मेरा संसार लेकिन उसने ना सिर्फ उन दीवारों के बाहर की दुनिया खोल दी मेरे लिए बल्कि भविष्य के सुनहरे सपने देखने का भी अधिकार दिला दिया। पैरों की अक्षमता की वजह से जिन्दगी जो ठहर सी गयी थी, उसके आने से बेफिक्र सी नदी की तरह बहने लगी, रास्ते में आने वाले हर चट्टान को लाँघ जाने के जज्बे के साथ।

मुझे याद है वो वक़्त खड़े हो सकने की असमर्थता की वजह से जब ज़मीन पर घिसटती हुयी जिन्दगी काट रही थी हर वक़्त किसी के जूतों तले हाथ या पैर पड़ जाने का डर होता था जहन में, कोई परीक्षा या न टाले जा सकने वाले मौकों पर सार्वजनिक जगहों पर घिसटते हुए हाथों का छिल जाना, पान की पिक या और भी गंदगियों पर हाथ रखने की मज़बूरी या कई बार ना चाहते हुए भी किसी अजनबी(या पापा भी) के द्वारा गोद में उठाये जाने की ज़िल्लत(मदद के लिए) कितना बुरा लगता था ये सब, लेकिन उसके आने के बाद अब सब बदल गया। उसकी बाहों में इतनी सुरक्षित महसूस करती हूँ जितना और कहीं नहीं। भीड़ भरी जगहों पर भी अब बिना किसी के जूतों के डर या गोद में उठा लेने के प्रस्तावों की चिंता के बगैर आत्म विश्वाश और स्वाभिमान के साथ आज मैं जा सकती हूँ तो सिर्फ इसलिए की वो मेरे साथ है हमेशा। मेरा जीवन साथी, मेरा आत्म विश्वाश, मेरे स्वाभिमान का रक्षक, जिसके बगैर मैं अधूरी हूँ और जिसका होना मुझे पूर्णता का एहसास कराता है। वही तो है जिससे मैं प्यार भरी मुस्कान के साथ कह सकती हूँ "तेरा साथ है तो मुझे क्या कमी है,
अंधेरो से भी मिल रही रौशनी है।"



एक बार यु ट्यूब पर एक कविता सुनी थी(शायद प्रसून जोशी की) जिसमें एक लड़की की इच्छा दर्शायी गयी थी उसके जीवन साथी के बारे में, लड़की अपने पिता से मिन्नत करती हुयी कहती है मुझे न राजा के घर ब्याहना न सुनार के घर, मेरा हाथ लोहार के हाथों में दे देना जो मेरी बेड़ियों को काट सके, सुन कर लगा बिल्कुल ऐसा ही तो है न वो भी, उसने भी तो मेरी बेड़ियाँ काट कर सतरंगी सपनो की दुनिया में उड़ने के लिए आज़ाद कर दिया। जिन्दगी की राहों पर हर कदम मेरे साथ रहने वाला मेरे हिस्से के कंकड़, काँटे सब खुद झेल कर मुझे सुरक्षित रखने वाला। सुबह आँखे खोलते हीं पलँग के पास खड़ा नज़र आता है बाहें फैलाए सिर्फ मेरे लिए, मेरे साथ पूरा दिन गुज़ार देने के लिए, वो बना भी तो है सिर्फ और सिर्फ मेरे लिए। अब उसके बगैर जीने के बारे में सोचना भी मुझे गँवारा नहीं क्यूंकि मैं जानती हूँ भले ही पूरी दुनिया मेरा साथ छोड़ दे या मैं हीं खुद लोगों को छोड़ दूँ पर वो एक चीज़ जो जीवन भर मेरा साथ निभाएगी जिसके साथ पूरी जिन्दगी मेरी गुज़र जाएगी वो है मेरा 'व्हीलचेयर।' जानती हूँ मेरे और उसके रिश्ते का अंत अगर कहीं होगा तो वो इस जिन्दगी के बाद मौत के आगोश में। तभी तो कहती हूँ उसे जीवन भर का साथी ... मेरा जीवन साथी 











…आलोकिता 










शनिवार, 23 मार्च 2013

तो क्या करें???






झूठी हो हाथों की हर लकीर तो क्या करें 
बेवफ़ा हो अपनी हीं तकदीर तो क्या करें 

मंजिलें भले मालुम हों रास्ते भी हों खुले 
अपने हीं पैरो में हो ज़ंजीर तो क्या करें 

ज़ख्म की गहराई हमने दिखा तो दी 
उन्हें मालूम नहीं दर्द की तासीर तो क्या करें 

हँसते रहने की आदत यूँ तो बना ली है 
कलम से उतर हीं आये दिल का पीर तो क्या करें 

...................................................................आलोकिता 

गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012

कलयुग में अब तक रावण-दहन नहीं हुआ .........




लो दशहरा आया और चला भी गया। खूब पूजा-पाठ व्रत-उपवास किये गए, मौज-मस्ती भी खूब हुई और अंत में लंका दहन के नाम पर रावण के पुतले को जला कर पूरा समाज आत्म-संतुष्टि के भाव से भर गया। रावण-दहन केवल बुराई पर अच्छाई, असत्य पर सत्य, अनीति पर निति की विजय का प्रतीक नहीं बल्कि हमारे समाज के सकारात्मक सोच की पराकाष्ठा का भी ज्वलंत उदाहरण है। हर रोज़ नज़रों के सामने बुराई, असत्य, अनीति को जीतता हुआ देख कर भी हर साल सदियों पूर्व मिले एक जीत की ख़ुशी में हम जश्न मनाना नहीं भूलते इससे बेहतर सकारात्मक सोच का उदहारण क्या हो सकता है भला? 

 क्यूँ भूतकाल को पीछे छोड़ कर हम वर्तमान में नहीं आ पा रहे? आखिर कबतक हम पुतले को जला जला कर अपनी बहादुरी जताएंगे? क्यूँ नहीं समाज के असली रावणों को पहुंचा पा रहे हम उनके अंजाम तक? क्या इसलिए की हम सब बैठ कर फिर से उस राम के जन्म की प्रतीक्षा कर रहे हैं या फिर इसलिए की रावण की कमजोरी बता कर लंका दाहने वाले विभीषण अब जन्म नहीं ले रहे? 

राम के जन्म का तो पता नहीं लेकिन अगर विभीषण का इंतज़ार है तो वो अब कभी नहीं आने वाला क्यूंकि अब कोई भी रावण किसीको विभीषण बनने नहीं देता, उस रावण के पास कमसकम इतना आत्म-स्वाभिमान तो था कि अगर सीता से उसकी वासना पूर्ति होती तो वो उसकी साम्रागी होती पर आज का रावण 'साम्रागी' नहीं 'सामग्री' मानता है वो भी सार्वजनिक, जिसका भोग वो मिल बाँट कर कर सकता है तभी तो गैंग रेप की प्रथा सी चल पड़ी है और इसलिए अब कोई विभीषण भी रावण के खिलाफ खड़ा नहीं होता। इन विभीषण-प्रिय-रावणों से थोडा नज़र हटायें तो और भी ऐसे एक से एक दुराचार-विभूतियाँ मिलेंगी जिन्हें अगर मैं रावण की संज्ञा दूँ तो अपना अपमान समझ कर रावण भी मुझपर मानहानि का दावा ठोंक देगा। जी हाँ मैं वैसे ही पिताओं की बात कर रही हूँ जो अपनी ही मासूम बेटियों को नहीं बख्शते चाहे वो छः माह की हो तीन या फिर चौदह वर्ष की इन लोगों के लिए तो शायद अब तक कोई शब्द किसी भी भाषा में बना ही नहीं। 

जिस प्रकार त्रेता युग में रावण का वध करने के पूर्व उसके सारे सहायकों का वध करना पड़ा था ठीक उसी तरह समाज से रावणों का समूल नाश करने के लिए उन विकृत सोच वाले लोगों को भी उचित दण्ड मिलना ही चाहिए जो गाहे बगाहे मेघनाद सा गर्जन करते हुए न सिर्फ सारा दोष स्त्री जाती पर मढ़ देते हैं बल्कि रावण का वेष धरे कामी पुरुषों को संरक्षण के साथ-साथ ये तसल्ली भी दे देते हैं कि जब तक मैं हूँ तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। जब तक रेप के कारणों को ढूंढने के नाम पर सारा दोष लड़कियों की पढाई, कभी उनके खुले विचार, कभी कपडे, कभी विवाह का उम्र, तो कभी बेबुनियादी तरीके से चाउमीन जैसी चीजों पर मढ़ने की छुट देते रहेंगे हम रावणों के पिछलग्गू मेघ्नादों को तबतक इनके पीछे छिप कर रावण अपनी कुकृत्यों को अंजाम देता रहेगा। हम सब बस परंपरा के नाम पर रावण का पुतला जलाएंगे और समाज में असली रावणों की संख्या बढती जायेगी, दहन होगा तो बस सीता और उसके परिजनों का। 












याद रखो ये त्रेता नहीं कलयुग है और कलयुग में अब तक रावण-दहन नहीं हुआ .........  














सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

माता ऐसा वर दे मुझको . . . . . . . . .




माता ऐसा वर दे मुझको,  सारे सदगुण मैं पा जाऊं 
छोड़ सकूँ दुर्गुणों को सारे, दुर्बलता को भी तज़ पाऊं 

अडिग रहूँ कर्तव्यपथ पर, लाख डिगाय न डिग पाऊं 
अचल-अटल हो सकूँ शैल सी, हे शैलपुत्री ऐसा वर दो  

रह सकूँ संयमित सदैव, संकल्प की दृढ़ता मैं पाऊं
उत्कृष्ट हो हर आचरण, हे ब्रह्मचारिणी ऐसा वर दो  

स्वीकृत न हो अन्याय, न्याय की पक्षधर बन पाऊं
जगत कल्याणमयी हर सोच हो, चंद्रघंटा ऐसा वर दो 

सूर्य किरणों सा तेज़ दो माता, अंधकारों से लड़ पाऊं 
त्याग-प्रेम की ऊष्मा हो मुझमें, कुष्मांडा ऐसा वर दो 

ममत्व नारी का सहज गुण, पराकाष्ठा उसकी बन पाऊं 
अपने-पराये का भेद न हो, हे स्कंदमाता ऐसा वर दो  

भटक जाऊं न राह कभी, गुरुर मातपिता का बन पाऊं 
दिल से निभा सकूँ हर रिश्ता, कात्यायनी ऐसा वर दो  

मानवता कल्याण कर सकूँ,पापियों का काल बन पाऊं
हो शक्ति पाप के नाश की मुझमें, कालरात्रि ऐसा वर दो

कर्तव्यविमुढ़ता ना आये कभी, परिस्थिनुरूप ढल पाऊं
कर्तव्यपरायणता सदा हो मुझमें, महागौरी ऐसा वर दो

छूटे न अधुरा संकल्प कोई, पूर्णता हर कार्य को दे पाऊं 
खरी उतरूँ आशाओं की कसौटी पे, सिधिदात्री ऐसा वर दो  

सार्थकता दे सकूँ नाम को अपने, आलोकिता मैं बन पाऊं
आलोकित करूँ अँधेरी राहों को, हे माता वो तेज़ प्रबल दे दो 

    
     

सोमवार, 10 सितंबर 2012

हकीकत से आँखें मूंद के जीना नासमझी नहीं





ना पूछ जिन्दगी में तेरी जरुरत क्या है 
जो तू नहीं तो फिर जिन्दगी की जरुरत क्या है 

हकीकत से आँखें मूंद के जीना नासमझी नहीं 
गर टूट भी जाए तो सपनो से खुबसूरत क्या है 

इश्क में डुबके जिसने खुद को भुलाया नहीं
क्या जाने वो की लज्ज़त-ए-मोहब्बत क्या है 

ख्वाब था इश्क, इबादत भी तू हो गया है 
कह दे जिन्दगी में तेरी मेरी अहमियत क्या है 

ना चाह के भी हर बार तुझे हीं लिख बैठती हूँ 
पूछ हीं देते हैं सब बेदर्द की शक्ल-ओ-सूरत क्या है  

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

बहन-रक्षा का प्रण लेने की जरुरत नहीं


अभी पिछले हीं दिन अखबार में छपी एक खबर में पढ़ा था बारहवीं की एक छात्रा के साथ हुए सामूहिक बलात्कार के मुख्य नामजद अपराधी प्रशांत कुमार झा तीन बहनों का भाई है, उसकी बहन के बयान से शर्मिंदगी साफ़ झलक रही थी और छोटी बहन तो समझ भी नहीं पा रही उसके भाई ने किया क्या है | बस यही सोच रही थी की आज राखी के दिन क्या मनः  स्थिति होगी ऐसी बहन की जिसका भाई बलात्कार के जुर्म में जेल गया हो ...............

तेरे हिस्से की राखी आज जला दी मैंने 
इस बंधन से तुझको मुक्ति दिला दी मैंने 
अफ़सोस तेरी बहन होने के अभिशाप से छुट ना पाउंगी 
अपनी राखी की दुर्बलता पर जीवन भर पछ्ताउंगी 
मुझ पर उठी एक ऊँगली, एक फब्ती भी बर्दास्त ना थी 
सोचती हूँ कैसे उस लड़की का शील तुमने हरा होगा ?
वर्षों का मेरा स्नेह क्यूँ उस वक़्त तुम्हे रोक सका नहीं? 
क्यूँ एक बार भी उसकी तड़प में तुम्हे मेरा चेहरा दिखा नहीं?
इतनी दुर्बल थी मेरी राखी तुझको मर्यादा में बाँध ना सकी 
शर्मशार हूँ भाई, कभी तेरा असली चेहरा पहचान ना सकी
उधर घर पर माँ अपनी कोख  को कोस कोस कर हारी है
तेरे कारण हँसना भूल पिता हुए मौन व्रत धारी हैं 
सुन ! तेरी छुटकी का हुआ सबसे बुरा हाल है 
अनायास क्यूँ बदला सब, ये सोच सोच बेहाल है
छोटी है अभी 'बलात्कार' का अर्थ भी समझती नहीं 
हिम्मत नहीं मुझमे, उसे कुछ भी समझा सकती नहीं 
पर भाई मेरे, तु तो बड़ा बहादुर है, मर्द है तु 
उसको यहीं बुलवाती हूँ , तु खुद हीं उसको समझा दे 
बता दे उसे कैसे तुने अपनी मर्दानगी को प्रमाणित किया है 
और हाँ ये भी समझा देना प्यारी बहना को, वो भी एक लड़की है 
किसी की मर्दानगी साबित करने का वो भी जरिया बन सकती है 
अरे ये क्या, क्यूँ लज्जा से सर झुक गया, नसें क्यूँ फड़कने लगीं ?
यूँ दाँत पिसने , मुठ्ठियाँ  भींचने से क्या होगा ?
कब-कब, कहाँ-कहाँ, किस-किस से रक्षा कर पाओगे?
किसी भाई को बहन-रक्षा का प्रण लेने की जरुरत नहीं 
खुद की कुपथ से रक्षा कर ले बस इतना हीं काफी है 
जो मर्यादित होने का प्रण ले ले हर भाई खुद हीं 
किसी बहन को तब किसी रक्षक की जरुरत हीं क्या है?  

   

मंगलवार, 12 जून 2012

जलने और जलने में हीं कितना अंतर आ जाता है



















जलने और जलने में हीं कितना अंतर आ जाता है 

शमा भी जलती चिता भी जलती 
जलती अगन दोनों में है 
औरों को रौशनी देने को शमा जलती,
कतरा-कतरा पिघलती है 
भष्म करके कई खुशियों अरमानो को हीं 
चिता कि लपटों को शान्ति मिलती है 
ज्योत शमा की चमक लाती नयनो में 
चिता की दाह अश्रुपूर्ण कर जाती है

जलने और जलने में हीं कितना अंतर आ जाता है 

उसी आग से जलता चूल्हा 
उसी से जलती भट्टी शराब की 
एक चूल्हे का जलना 
कई दिलों में ख़ुशी होठों पे हंसीं लाता है 
जलती जब एक शराब की भट्टी 
कितनो का घर लुट जाता है 
चूल्हे का जलना छुधा को तृप्ति पहुँचाता 
भट्टी स्वयं कितनी जिंदगियां, कितने रिश्तों को पी जाती है 

जलने और जलने में हीं कितना अंतर आ जाता है 

जितनी पावन सात फेरों की अग्नि 
उतनी हीं पापिन दहेज़ की अग्नि 
जन्म-जन्मान्तर के रिश्ते में बांधती 
बनती सात वचनों की साक्षी फेरों की अग्नि 
रिश्ते हीं नहीं शर्मशार करती मानवता को भी 
बहुओं को जिन्दा जलाती दहेज़ की अग्नि 
इक गढ़ती नित नव रिश्ते
दूजी फूंकती प्रेम की डोरी 

जलने और जलने में हीं कितना अंतर आ जाता है 

बीड़ी-सिगरेट के सिरे पर जलती छोटी लाल सी चिंगारी 
और जलती पूजा घर के धुप में भी 
दम घोंटता बीड़ी-सिगरेट का धुआँ 
मौत का दूत बन जाता है 
सुवासित करता धुप चहु दिशाओं को 
मानसिक सुकून भी पहुँचाता है 
इक कदम दर कदम मौत की तरफ ले जाता 
दूसरा आस्था का प्रतीक बन टिमटिमाता है 

जलने और जलने में हीं कितना अंतर आ जाता है 

प्रेम की अग्नि जलती दिलों में 
विरहाग्नि दिलों को जलाती है 
मिलन भी उतपत करता जिस्मो-ओ-जिगर को 
विरह की ऊष्मा भी जलाती है 
हो इकतरफा भी लगी अगन तो
ताप दूजे तक भी जाती है 
जलना ये भी कहलाता है 
जलना वो भी तो होता है 

जलने और जलने में हीं कितना अंतर आ जाता है

.....................................................आलोकिता गुप्ता