शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

पशु अदालत

जानवरों का अदालत था सजा हुआ 
लोमड़ी जी ने एक  मुजरिम  पेश किया
 गरजकर पूछा राजा  शेर ने, 
क्या किया है इस मानुष ने ?
गर्दन ऊँची कर बोले जिराफ भाई 
इसने पशुओं पर गोलियां चलाई 
पेड़ों का भी इसने किया कटाई 
इसने पशुओं पर गोलियां चलाईं
पेड़ों का भी इसने किया कटाई 
हमें फंसाने के लिए जाल भी बिछाई 
इतने में मानव चिल्लाया 
शेर पर हीं तोहमत लगाया 
तुम भी तो करते हो शिकार 
जानवरों को बनाते अपना आहार 
गुस्से में मंत्री बाघ उठ खड़ा हुआ 
गुस्साया दहाडा और फिर कहा 
ऐ मानुष! नहीं है यह गुनाहगार 
प्रकृति ने दिया इन्हें यही आहार 
कभी नहीं करते हैं शिकार 
गुफा का करने के लिए श्रृंगार  
नहीं चुराते हाथी दाँत
बनाने के लिए कंठहार 
हाथी, सुन मानव मुस्कुराया 
इसबार उसपर हीं इल्जाम लगाया 
कहा हाँ मैंने वृक्ष को नुक्सान पहुँचाया है 
हाथी भी जंगल उजड़ा करता है 
भोला हाथी बोला मैं पत्ते खता हूँ 
वृक्ष को नुक्सान नहीं पहुँचाता हूँ 
महाराज इसने मुझे जाल में फंसाया था 
तब कितनी मुश्किल से बन्दर ने छुड़ाया था 
उसके भोलेपन ने सबको हंसाया 
पर मानव मन ही मन झल्लाया 
शेर ने मानव को देख और गुर्राया 
डर से बेचारे को पसीना आया 
शेर गरजा, मानकर तुम्हे वन का मेहमान 
जाओ दिया हमने जीवनदान 
मगर दोबारा इधर का रुख न करना 
बहुत पछताओगे बाद में वरना
शेर के न्याय देख मानव मुग्ध हुआ 
जानवरों का प्यारा जंगल मानव मुक्त हुआ

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

विभावरी की गोद में निमग्न सोया है
सब चिंताएं छोड़ मधुस्वप्न में खोया है
ख्वाबों में हीं देखकर मुझे मचलता है
हाथ बढ़ा कर पा लेने को तड़पता है
ख्वाबों से निकल देख मैं यथार्थ में हूँ
द्वार पर खड़ी कब से तुझे पुकारती हूँ
जिसकी तुझे तलाश थी मैं सुअवसर हूँ वही
आज खड़ी तेरे द्वार पर तुझे ज्ञात  हीं  नहीं
अरे ओ द्वार तो खोल तुझसे हीं कहती हूँ
चल उठ मैं तुझे मंजिल तक ले चलती हूँ


मैं जाती हूँ गर मुझसे प्यारी है नींद तुझे
प्रातः जब नींद  खुलेगी मत  ढूँढना  मुझे
देखकर  मुझे  किसी  और  के  साथ
अपनी मंजिल देख किसी और के हाथ 
मत रोना भाग्य पर मत कोसना मुझे
कोसना आलस्य को उठने न दिया तुझे 

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

कलम


सूर्य सम है इसमें तेज़ प्रबल 
तू इसको निस्तेज न कर 
कलम रही सदा निश्छल 
तू इससे छल छद्म न कर 
कलम से निकली जो शब्द सरिता 
वही काव्य का रूप हुई 
उद्वेलित, स्वच्छ सी यह सरिता 
तू इसकी स्वच्छता न हर 
प्रकृति सम साहित्य के रूप अनेक 
हर रूप की सुन्दरता विशेष 
भावनाओं में सागर सी गहराइयाँ 
आशाओं में गगन सी उचाइयां 
निबंध कहीं समतल सुघड़ है 
गद्य कहीं पर्वत सा अटल है 
प्रेम में अरण्य सी सघनता 
विरह में सूने मैदान सी वीरानी 
द्वेष व्यंग के कंक्रीटों से
अनुपम  छटा बर्बाद  न कर 
कलम को कलम रहने दे 
तू इसको कृपाण न कर 
कलम चला है जब भी तो 
देश के सम्मान हेतु 
मानवता उत्थान हेतु 
निर्बलों के त्राण हेतु 
इसका गलत उपयोग न कर 
अपने स्वार्थ हेतु 
इसकी तू महानता न हर 
सूर्य सम है इसमें तेज़ प्रबल 
तू इसको निस्तेज न कर 

शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

वर्षा



जाने किस पनघट से 

भर अमृत कलश 
चली जा रही थी 
किसने मारा कंकड़ ?
फूटे मेघ घट 
बही रसधार 
धरा पी पी सुधा 
तृप्त हुई जाती है 
भीगने को व्याकुल 
सकल नर नारी 
नन्हों की खिल उठी 
किलकारी 
नदियाँ बाँहें फैलाये 
मांग रही दो बूंद 
पाकर सुधांश 
दे आई सागर को 
आई जो सूर्यकिरण 
उपहार मिले कुछ 
जल  कण
फिर से भर आई वह 
पनघट 
फिर से भर गए 
मेघों के जल घट
 

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

बधाई हो घर में लक्ष्मी आई है

उन्हें कभी एकमत
होते नहीं देखा था 
उस दिन जब वह 
जन्मी थी 
कुछ जोड़े नयन 
सजल थे 
कुछ की आँखें 
चमक रही थी 
कोई आश्चर्य नहीं था 
क्यूंकि 
उन्हें कभी एकमत 
होते नहीं देखा था 
पर एक आश्चर्य 
उस दिन सबने 
सुर मिलाया 
शुभचिंतकों ने ढाँढस
दुश्चिन्तकों ने व्यंग्य कसा 
बधाई हो 
घर में लक्ष्मी आई है 

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

नन्ही सी लड़की



 एक नन्ही सी प्यारी लड़की थी
बड़े महलों में वो रहती थी
सबकुछ था महलों में लेकिन
एक खालीपन सा लगता था
उसकी न कोई सहेली थी
वो तो बिलकुल अकेली थी
बगिया में फुल उगाती थी
तितली संग खेला करती थी
रातों को जागा करती थी
चंदा से बातें करती थी
कहती ओ चंदा मामा आ
मुझको परियों का देश दिखा
एक दिन वो गुडिया सोयी थी
ख्वाबों में अपने खोई थी
सपने में एक चिड़िया आई
जो चीं चीं करके गाती थी
सतरंगी से पर थे उसके
आँखें भी चमकीली थी
जब भी वो हाथ बढाती थी
चिडिया फुर्र से उड़ जाती थी
जब चिडिया रानी भाग गयी
तब नींद से गुडिया जाग गयी
आँखें खोला तो सामने हीं
वो चिड़ियाँ रानी बैठी थी
बोली ओ नन्ही गुडिया सुन
मैं एक संदेशा लाई हूँ
चंदा ने भेजा है मुझको
परीलोक दिखाने आई हूँ
चल मेरी होकर संग अभी
पर किसी से कुछ भी कहना नहीं
मेरी बस हैं एक शर्त यही
वापस न तू आ पायेगी
अपनी दुनिया छोड़ चलूँ ?
मैं कैसे तेरे संग चलूँ ?
मम्मी को भूल न पाऊँगी
पापा की याद सताएगी
मुझे तेरे संग न चलना है
अपने हीं घर में रहना है
सुनकर चिडिया हंसने लगी
मैं यही संदेशा लायी थी
मम्मी से प्यारी परी नहीं
पापा जैसा न चंदा है
हँस कर मीठी बात करो
दोस्त भी फिर बन जायेंगे
बड़ों की बातें सदा मानो
वे प्यार से गले लगायेंगे
फिर न अकेली तुम होगी
समझ गयी प्यारी गुडिया ?
अब मुझको भी करदो विदा
मैं वापस फिर से आऊँगी
परियों से तुझे मिलाऊँगी

 मेरी छोटी बहन ३ साल छोटी है मुझसे, उसे कहानी सुनने का शौक था और मैं उसकी कहनियों का संग्रह | रोज़ कभी ३ तो कभी ५ कहनियों का आर्डर करती थी और मैं उसे सुनाती थी | कभी कहती राक्षस की कहानी सुनाओ और आधे रास्ते में उसे रोबोट की कहानी सुननी होती और मेरा रोबोट राक्षस वाली कहानी में घुस जाता था | मैं सारी कहानियां तो भूल गयी हूँ वही याद दिलाती रहती है की कितना मस्त कहानी सुनाती थी न तुम सारा नोट करली होती तो बाल कहानीकार बन गयी होती अब तो अजीब लिखती हो तुम फालतू सा | उसकी कहानियों की हर फरमाईस मैंने पूरी की है बस एक कमी रह गयी थी उसका कहना था की कोई गाना वाला कहानी सुनाओ जैसा मम्मी राजा हरीश चन्द्र की सुनाती है | अब तो मैं भी बड़ी हो गयी हूँ और वो भी पर बच्चों की कमी थोड़े है किसी और बच्चे को सुना दूंगी यह बाल गीत | काश लिख कर लय और धुन बताया जा सकता |

मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011





मेरे मन की हर बात मुझे आज तो कहने दो 
प्यार के सागर में  एक दरिया सी बहने दो


बेशक  ले जाओ  सबकुछ यादों  की कुछ  घड़ियाँ रहने  दो
अपनी खातिर इस दिल में फ़रियाद की लड़ियाँ तो रहने दो


दिल के वीरान कोने में एक टूटी तस्वीर रहने दो 
फिर से मुस्कुरा सकूँ ऐसी तक़दीर तो  रहने  दो  














जीवन की किताब में एक  पन्ना मेरे  नाम का रहने दो 
सभी काम की हीं चीजें हैं एक पन्ना बेकाम हीं रहने दो 


यादों की  डायरी  में सूखे  गुलाब सा रहने दो 
हिसाब भूलकर एक रिश्ता बेहिसाब हीं रहने दो 








दिल की राहों में अपने  पैरों की निशानी तो रहने दो 
मेरी खुशफहमी हीं सही, इसे प्रेम कहानी तो कहने दो 











सोमवार, 31 जनवरी 2011



तितली सी उड़ न सकूँ 
बागों में जा न सकूँ 
फूलों से रिश्ता नहीं 
पतझड़ में मैं हूँ पली 
दरिया सी बह न सकूँ 
ठहरी भी रह न सकूँ 
सागर से नाता नहीं 
पहाड़ों पे मैं हूँ पली 
चिड़ियों सी उड़ न सकूँ 
खुल के मैं गा न सकूँ 
गगन से नाता नहीं 
धरती पे मैं हूँ पली 
ज्योति सी जलती रही 
खुद हीं पिघलती रही 
तम से है नाता मेरा 
उससे हीं बचती रही 
फूलों सी खिलती रहीं 
काटों में हंसती रही 
इश्वर से नाता मेरा 
उसपे हीं चढ़ती रही 

रविवार, 30 जनवरी 2011

ए गाँधी बाबा


बहुत दिन क्या कई सालों से कविता लिख रही हूँ कुछ लोगों की सलाह थी अपनी भोजपुरी में भी लिखा करो यह पहली कोशिश है |

देखअ ए गाँधी बाबा देशवा बेहाल भ गइल
सबके ईमान के भ्रष्टाचार खा गइल
अहिंसा के सभे हथियार बदनाम भ गइल
हिंसा के नाया तरीका अब त हड़ताल भ गइल

चिंता रहे राउर की देशवा लुटाता
अभियो त पइसा ले के स्विस बैंक भराता
गरीबी लाचारी त अभियो बा देश में
गुलामी बहुते बा अभियो  इ  देश में

गोली तू खइले रहअ का इहे देश खातिर ?
अहिंसा सीखअवले रहअ इहे दिन खातिर ?
बैरिस्टर होके चरखा चलवले रहअ इहे देश खातिर ?
सबकुछ त्याग के धोती अपनवले रहअ इहे दिन खातिर ?

साल के दू दिन बाबा बहुते पूजा ल
पेपर आ टी.भी का सगरो छा जा ल
अउर दिनअ त नम्बरी दस नम्बरी सुझाला
नकली की असली खाली इहे बुझाला

............................... हिंदी अनुवाद  .................................

देखिये गाँधी जी देश की बदहाली को
भ्रष्टाचार ने सबके ईमान को निगल लिया है
अहिंसा के सभी हथियार बदनाम हो चुके हैं
हड़ताल भी अब हिंसा का हीं एक नया रूप है

आपकी चिंता थी की देश को लुटा जा रहा है
देश का पैसा तो अब भी स्विस बैंक में जा रहा है
गरीबी अउर लाचारी तो अब भी है यँहा
आजाद देश के नागरिक अब भी गुलाम हैं

क्या इसी देश के लिए आपने गोली खाई थी
अहिंसा का पथ इसी दिन के लिए पढाया था ?
बैरिस्टर हो कर भी आपने चरखा चलाया इसी देश के लिए ?
सबकुछ त्याग कर धोती को अपनाया क्या इसी दिन के लिए ?

साल के दो दिन तो आप काफी पूजे जाते हैं
पेपर टी वी हीं क्या हर जगह छाये रहते हैं
बाकी दिन तो नोट पर भी सौ या हज़ार हीं नज़र आता है
आपके फोटो पर भी ध्यान सिर्फ असली नकली की पहचान के लिए हीं जाता है 

शनिवार, 29 जनवरी 2011

तुम्ही मेरे .....




तुम्ही बंसी वाले , तुम्ही भोले बाबा 
तुम्ही मेरे साईं ,... तुम्ही मेरे दाता 

तुम्ही मेरे भावों का जलता दिया हो 
तुम्ही नीला अम्बर, तुम ही  धरा हो 

तुम्ही मेरे आँसु,.. तुम्ही तो हँसी हो 
तुम्ही मेरे दिल से ..निकली दुआ हो 

तुम्ही मेरी रचना, कल्पना में सजे हो 
तुम्ही मेरी गीतों की .. लय में बसे हो 

तुम्ही मेरे जीवन की भटकी सी नैया 
तुम्ही तार दोगे ,... तुम्ही हो खेवैया 

तुम्हीं मेरी  चिंता ,चैन भी तुम्ही  हो 
तुम्ही मेरी निंदिया,दिनरैन तुम्ही  हो 

तुम्ही मेरे जीवन की जलती  अगन हो 
तुम्ही तो पवन हो, ..तुम्ही तो पवन हो 

तुम्ही मेरी आशा की अंतिम  किरण हो
उबारो मुझे  यूं की.....तम का क्षरण हो 




मंगलवार, 25 जनवरी 2011


















चिड़िया रानी चिडिया रानी
क्यूँ तेरी आँखों में पानी ?
बतलाओ न अपनी कहानी
                क्या बतलाऊ  मछली बहना
                दुश्वार किया इंसानों ने जीना
                 पहले आश्रय स्थल पेड़ को छिना
                 अब जाल में फंसाते डाल कर दाना
कभी न सुनते हमारा कहना
हमे न इन  पिंजड़ों में रहना
उनकी कटोरी का दाना नहीं खाना
न हीं उनका मिनरल वाटर है पीना
                   हमे नहीं बनना है उनके घर का गहना
                    नील गगन में स्वछंद विचरण है करना
                   हमे तो बस प्रभु की इस दुनिया में है उड़ना
                   आकाश की हर ऊंचाई को है चूमना
हमे तो क्षितिज से हैं बाते करनी
इसी तरह खुशी से है जीना
और खुशी से हीं है मरना








सोमवार, 24 जनवरी 2011

स्वप्न परिंदे





अक्सर जब हम बेखबर से सोते हैं, कई सपने दस्तक देते हैं | कुछ हमे डरा देते हैं,कुछ हँसा देते हैं तो कुछ रुला भी देते हैं | उठते ही सभी विलुप्त हो जाते हैं | क्या वाकई ये सपने हीं होते हैं ? नहीं ये भ्रम होते हैं | सपने तो जीवित होते हैं और हमे भी जीवित रखते हैं |सपने वे होते हैं जो सोये हुए इंसान को भी जागृत रखते हैं, सजग रखते हैं |सपने वही होते हैं जो जिन्दगी की आसमां पर अमावास की काली रात के होते हुए भी ध्रुव की तरह अटल जगमगाते रहते हैं | जब घनघोर अँधेरे की वजह से कुछ नज़र नहीं आता उस वक़्त भी स्वप्न परिंदे अपनी सप्तरंगी छवि से हमे लुभाते रहते हैं | इन्हें देखने के लिए किसी भी रौशनी की आवश्यकता नहीं न सूर्य की रौशनी और न आँखों की |
ये स्वप्न परिंदे बेक़रार रहते हैं हमारे पास आने के लिए पर फिर भी उड़ते जाते हैं और हम उनके पीछे दौड़ते रहते हैं उन्हें पकड़ने के लिए | सच पूछो तो ये सपने हीं हमे गतिशील रखते हैं | आँखों में कोई सपना न हो तो इंसान ठहर जाता है | जब हम अपनी मेहनत का तिनका तिनका जोड़ कर उस स्वप्न परिंदे के रहने योग्य नीड़ तैयार कर लेते हैं तो वह स्वतः हीं आकर उसे अपना बसेरा बना लेता है |  

शनिवार, 22 जनवरी 2011

"रिश्तों की कश्मकश"

पुराना साल जाने वाला था और नए साल के स्वागत कि तैयारी हर तरफ जोर शोर से चल रही थी | संजय काफी खुश था दोस्तों रिश्तेदारों को फोन पर बताते बताते वो थक नहीं रहा था कि इस साल नए साल के स्वागत में हो रहे एक टी वी स्टेज शो में उसे भी गाने का मौका मिला है | उधर किचन में रोटी पकाती योषिता अपने हीं ख्यालों में डूबी हुई थी | कुछ हीं पलों में ये दो महीने जैसे उसकी आँखों के सामने से बीस बार गुजर चुकें हों | जितना सोचती उतनी हीं वह और उलझती जा रही थी अपने ही सवालों में | 
करीब दो साल हो गए थे उसे संजय कि दुल्हन बन इस घर में उतरे हुए | वह एक पेंटर थी और संजय को संगीत में गहरी रूचि थी | उनकी शादी के वक़्त सभी कहते थे कि खूब जमेगी इनकी जोड़ी दोनों कलाकार जो ठहरे | शादी के बाद सब ठीक ठाक चल भी रहा था | योषिता एक इंस्टिट्यूट से जुड़ी थी, वहाँ से उसकी पेंटिंग्स बिक जाया करती थी | संजय गायक तो अच्छा था पर कहीं अच्छी जगह उसे अब तक मौका नहीं मिला था | एक स्कूल में संगीत सिखाता और घर पर भी कुछ बच्चों को संगीत कि तालीम दिया करता था | जीने खाने भर पैसे कमा हीं लेता था | दोनों में झगडे भी होते थे पर फिर सब ठीक हो जाता था |
एक दिन योषिता कि पेंटिंग्स कि प्रदर्शनी लगी थी | वैसे तो संजय को अजीब सी चीढ़ थी इन प्रदर्शनियों से पर योषिता कि जिद्द से मजबूर होकर वह भी गया उस प्रदर्शनी में | अभी वहाँ पहुचे ही थे कि एक आदमी ने मुस्कुराते हुए योषिता से कहा "Hiiiii! योषि, क्या हाल है ?" योषिता आज अचानक इतने सालों बाद अपने कॉलेज के सबसे अच्छे दोस्त परिमल को देख चौंक गयी थी और 
खुशी से चहकती हुई बोली " अरे परि तू यहाँ कैसे ? UK से वापस कब आया यार ? परिमल ने कहा अरे यार अब तो परि बुलाना बंद कर लड़की टाइप लगता है |खैर UK में मन नहीं लगा तो अपने वतन वापस चला आया और तुम यहाँ कैसे से क्या मतलब ?आपकी पेंटिंग्स का दीवाना हूँ वही खिंच लायी हमे अहाँ! स्टुपिड offcourse तुमसे मिलने आया हूँ | पेपर में ऐड देख कर समझ गया था कि योषिता वर्मा अपनी योषि के अलावा कोई हो ही नहीं सकती | योषिता ने परिमल और संजय दोनों का परिचय कराया पर शायद दोनों को एक दुसरे से मिलने में कोई दिलचस्पी नहीं थी | परिमल को योषिता से बातें करनी थी और संजय किसी तरह उसे घर ले जाना चाहता था |परिमल का बार बार उसकी पत्नी को 'योषि' बुलाना खटक रहा था और योषिता के मुँह से परिमल के लिए निकला ' यार ' शब्द जैसे उसके तन बदन में आग लगा रहा था |
उस दिन के बाद से परिमल और योषिता का मिलना जुलना बढ़ गया और बातों हीं बातों में योषिता ने संजय के करिअर के बारे में चिंता जाहिर कर दी | उसे एक मौके के लिए संजय का दर बदर भटकना बहुत बुरा लगता था |परिमल ने कहा इतनी सी बात के लिए इतना परेशान हो गयी |परेशानी में तुम बिल्कुल भी सुन्दर नहीं लगती | जाओ बालिके! बाबा परिमल का आशीर्वाद तुम्हारे साथ है | कल हीं तुम्हे एक खुसखबरी मिलेगी | तुम्हारी चिंता अब बाबा कि चिंता है तुम चिंता मुक्त हो जाओ | योषिता इस मजाक पर हँस पड़ी | पर यह मजाक नहीं था | परिमल कि कम्पनी एक नए साल के जश्न कि मेगा स्पोंसर थी और उसके कहने पर उस जश्न में संजय को बतौर अपकमिंग सिंगर मौका दे दिया गया |
अगले दिन यह खुशखबरी लेकर संजय योषिता के पास आया तो गलती से योषिता के मुँह से निकल 
गया अरे वाह आपको मौका मिल गया, कल हीं परि.......... बोलती बोलती वह ठिठक गयी | पर संजय जिस मौके कि तलाश में था दो महीनो से उसे आज वह मौका भी मिल हीं गया | बोला " हाँ, हाँ  
बोलो क्या कहना चाहती हो मेरे हुनर से नहीं तुम्हारे उस "यार" कि वजह से यह मौका मिला है मुझे ?मुझे इतना बड़ा मौका दिलवाने के लिए तुम्हे भी तो कुछ कीमत चुकानी पड़ी होगी न अपने यार को |योषिता बोली " छिः शर्म नहीं आती तुम्हे ऐसी बातें कहते हुए | संजय ने कहा " बहलाओ मत, बच्चा नहीं हूँ, और मैं भी इसी धरती का प्राणी हूँ | यहाँ मुफ्त में कोई किसी को कुछ नहीं देता और फिर तुम्हारा वो परिमल वो एक बिजनेस मैन है और बिजनेस मैन सिर्फ और सिर्फ अपना फ़ायदा देखते हैं |योषिता के लिए यह सब बातें असह्य थी वह उठकर किचन में रोटी बनाने चली गयी | संजय के बचपन का सपना पूरा होने जा रहा था वह अपनी खुशी फोन पर सबको सुनाने लगा |
योषिता सभी बातों को सोचने के बाद इस नतीजे पर पहुंची कि उसे अपनी गृहस्थी बचानी है | उसका new year resolution यही होगा कि वो परिमल से बात नहीं करेगी, इस दोस्ती के बिना भी वह जी सकती है |फिर संजय के साथ सुखद जीवन कि कल्पना करने लगती है और उसे ध्यान नहीं रहता कि वह रोटी बना रही है | तवे पर पड़ी रोटी जल गयी, संजय आया और गैस बुझाते हुए हुए बोला "क्या हुआ ? कहाँ खोई हो, परिमल कि यादों में ? योषिता के मन में कहने को बहुत कुछ था पर जुबां आज उसका साथ नहीं दे रही थी | मन के सारे भाव आंसुओं के सैलाब बनकर उमड़ पड़े |