यूँही मन में कुछ ख्याल आये और उन्हें लिखती चली गई कविता कुछ लम्बी हो गई |
वो कहते हैं पत्थरों की जुबाँ
पर तुम
खूब समझते हो
मेरी भाषा
तो क्यूँ न
दिल की बात
तुमसे कह लूँ ?
कृतार्थ हूँ
तुम्हारे हाथों में आ के
तो क्यूँ न
कृतज्ञता में
कुछ शब्द पुष्प
अर्पित कर दूँ
आह
कितना विशाल था
वह पर्वत
टूटकर मैं
जिससे गिरा था
शिखर से
लुढ़ककर
मैं
उसके तलवों में
पड़ा था
देखता था
कई राहियों को
आते जाते,
कुछ निकलते
कतरा के
तो कई आते थे
मतवाले
झूमते गाते से
अपनी मस्ती में
खुद हीं
ठोकर लगाते
मुझको
औ कहते
की ठोकर
मैंने लगाई है
यूँ हीं
होता बदनाम सदा
मैं मूक पत्थर
तुम्ही कहो
क्या थी मेरी
बिसात
की ठोकरें
लगता उन्हें ?
रहमत खुदा की
जो नज़रें तुम्हारी
मुझपर पड़ी
और उन नज़रों में
देखा मैंने
अपना एक साकार रूप
तुम्हारी
अपेक्षाओं के साँचे में
ढलना
बहुत कठिन है
लेकिन
साकार होने का सुख
इन कष्टों से
बहुत बड़ा है
और उसपर भी
तुम्हारा
स्नेहिल स्पर्श
हर लेता है
छैनी हथौड़े
के प्रहारों से
उत्पन्न हर कष्ट को
पर कभी कभी
व्याकुल
कर जातीं हैं
हथौड़े से घायल
तुम्हारी उंगलियाँ
और
सजल से दो नैन
मानव होकर
मानव समाज से
बिलकुल पृथक
क्यूँ दीखते हो ?
ऐसा सोचता था
कल हीं
जाना मैंने
पूर्वी सभ्यता
और कला को
ढोने वाले
तुम जैसे
कारसाज़
पाश्चात्य लालित
सभ्य
मानव-समाज
का हिस्सा
ना रहे
लेकिन
एक प्रश्न अब भी है
मन में
डरता हूँ
जो साकार
हो भी गया
तो क्या चूका
पाऊंगा
तुम्हारे ............
नहीं
एहसान कहकर
निश्छल स्नेह को
कलंकित
नहीं कर सकता
लेकिन
मान लो
साकार न हो सका,
टूट गया मैं
तो ???
एक बार
बस एक बार
सिने से लगाके
संग मेरे
रो लेना
मेरे अवशेषों पर
नेह नीर
का एक कतरा
तब भी तो
दोगे ना ?
ओ सृजक मेरे