शनिवार, 15 जनवरी 2011

बड़ा नादान है दिल



बड़ा नादान है दिल
ये हँसना चाहता है
बड़ी मुस्किल है राहें
ये चलना चाहता है
बड़ी प्यारी है मंजिल
जो पाना चाहता है
सभी रोके हैं राहें
ये उड़ना चाहता है
है ये आँसु का दरिया
उबरना चाहता है
बीत चुके जो मंज़र
भुलाना चाहता है
बड़ा नादान है दिल
धड़कना चाहता  है
बंधन हैं लाखों
हटाना चाहता है
तितली में रंग जितने
चुराना चाहता है
खुशी के गीत प्यारे
ये गाना चाहता है
नीला है जो अम्बर
ये छूना चाहता है
टिमटिमाता तारा
बनना चाहता है
आँखों में उमड़े जो आँसु
छिपाना चाहता है
बड़ा नादान है दिल
ये हँसना चाहता है
इससे रूठी जो खुशियाँ
मानना चाहता है
पूरा दरिया नहीं तो
कतरा चाहता है
गिरते हुओं को
उठाना चाहता है
जो भी दुखी हैं उनको
हँसाना चाहता है
छुटा है सबसे पीछे
बढ़ना चाहता है
ये हँसना चाहता है
बड़ा नादान है दिल

शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

जर्रे जर्रे में अपनी पहचान ढूंढ़ती हूँ

जो हो मुझसा वैसा जहान  ढूंढ़ती हूँ 
जर्रे जर्रे में अपनी पहचान ढूंढ़ती हूँ 
मेरा ह्रदय वह अथाह सागर है 
कितनी हीं भावनाओं कि नदियाँ 
आ मिली हैं इसमें 
अतल गहराइयों में दफ़न हैं 
कितने अरमानो के मोती 
भावों के लहरों में लहराता 
डूबता उतराता ह्रदय सागर 
उद्वेलित रहता हर पल 
अनंत के चरणों में 
उड़ेलकर सारे भाव 
हो जाना चाहता है शांत 
बिल्कुल शांत ..........
मेरी आँखें वह असीम आकाश 
कितने ही स्वप्न मेघ घिर आते हैं 
विधि के चरणों में बरस मिट जाते हैं 
आकाश फिर हो जाता है सुना 
सपनों के लाखों तारे टिमटिमाते हैं 
घटता बढ़ता चंदा भी जगमगाता है 
पर हकीकत का सूर्य सब निगल जाता है 
ये आँखें पूरे संसार को ले लेना 
चाहती है अपने आगोश में 
और फिर पलकों कि चादर ओढ़े 
सो जाना चाहती है अनंत कि गोद में 
हमेशा हमेशा के लिए .............

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

समुद्र मंथन और अमृत वितरण





शुक्राचार्य से शक्ति ले दैत्य हो रहे थे प्रबल 
दुर्वासा के शाप ने देवराज को किया निर्बल 
असुरों,दैत्यों का हो रहा था अभ्युथान 
देवत्व का होता जा रहा था पतन 
सारे देवगन हो गए परेशान 
फिर नारायण को किया आह्वान 
श्री नारायण ने मंथन का राह दिखाया 
अमृत पान का गुरु मन्त्र सुझाया 
अमृत कि खातिर एक हुए दैत्य दैत्यारी 
समुद्र मंथन कि हो गयी तैयारी 
पर्वत मंदराचल कि बनी मथनी 
वासुकी नाग बन गया नेती
श्री विष्णु ने लिया कच्छप अवतार 
आधार बन संभाला पर्वत का भार
देव दानव सबमें शक्ति का संचार किया 
गहन निद्रा दे वासुकी का कष्ट हर लिया 
वासुकी कि मुख का भाग दैत्यों ने थाम लिया
देवताओं ने उसकी पूंछ कि ओर स्थान लिया 
समुद्र मंथन कि क्रिया हो गयी प्रारंभ 
मंदराचल का घूमना हुआ आरम्भ 
जल का हलाहल विष निकला सर्वप्रथम 
इतनी दुर्गन्ध कि घुटने लगा सबका दम 
उसके प्रभाव में सभी क्रांति खोने लगे 
दुर्गन्ध,जलन सभी असह्य होने लगे 
तभी शिव शंकर औढरदानी वँहा आये 
कालकूट विष पीकर नीलकंठ कहलाये 
भोले शंकर ने सबको पीड़ा से उबार दिया 
विष कंठ में धर सबका उन्होंने उद्धार किया 
कहते हैं कुछ बूंद विष जो गिरा धरती पर 
उसी से जन्मे सर्प,बिच्छु सारे विषधर 
विष पीड़ा काल हुआ संपन्न 
पुनः प्रारंभ हुआ समुद्र मंथन 
निकली कामधेनु नामक गोधन 
उस गाय को ऋषियों ने किया ग्रहण 
उच्चः श्रवा नामक जो अश्व आया 
दैत्यराज बलि ने उसे पाया 
फिर आया कल्पद्रुम औ आई रम्भा अप्सरा 
दोनों को देवलोक में स्थान मिला 
फिर मंथन ने माता लक्ष्मी को उत्पन्न किया 
लक्ष्मी ने खुद हीं श्री विष्णु का वरण किया 
फिर कन्या रूप वारुणी हुई उत्त्पन्न 
दैत्यों ने किया उसे ग्रहण 
यूँ हीं उद्भव हुआ चंद्रमा,पारिजात वृक्ष और शंख का
अंत में आये धन्वन्तरी लेकर घट अमृत का 
दैत्यों ने अमृत घट छीन लिया 
स्वभाववश  फिर आपस में युद्ध किया 
देख कर घट दैत्यों के पास 
देवता बेचारे खड़े थे उदास
तत्काल विष्णु ने मोहिनी रूप धरा
जिसने देखा उसे बस देखता ही रहा 
सुन्दरता को भी लजाने वाली वह रूपसी 
छम छम करती दैत्यों के पास चली 
मोहित हो दैत्य करने लगे वंदन 
हे सुमोहिनी,हे शुभगे,हे कमल नयन 
हम पर अपनी सौन्दर्य कृपा बरसा दो 
इन कर कमलों से अमृतपान करा दो 
वह मुस्काई तो सबके दिल में हुक उठी 
आखिर वह कोकिल बयनी कुक उठी 
हे कश्यप पुत्र,हे वीर कुछ सयाने भी लगते हो 
फिर भी मुझ सुंदरी,चंचला पर विश्वाश करते हो ?
इस अमृत घट से मेरा क्या प्रयोजन ?
आपस में खुद हीं कर लो न वितरण 
कामांध वे दैत्य कुछ समझ नहीं पाते थे 
उस ठगनी पर और विश्वास जताते थे 
मोहिनी ने दैत्य देवों को दो पंक्ति में बिठा दिया 
देवों को अमृत दैत्यों को तो बस झांसा दिया 
 (एक दैत्य ने भी अमृत पिया था जो राहू केतु बना पर उसका जिक्र इस कविता में नहीं है क्यूंकि वह दूसरी कहानी शुरू हो जाती )

बुधवार, 5 जनवरी 2011

अंतर्द्वंद


अँधेरे में पड़े रोने से अच्छा
आशा के दीप जला लो
अंधेरों में खोने से तो अच्छा
छोटी सी किरण अपना लो

पर सब रोशन कर दे 
ऐसा कोई दीप तो मिले 
देखो अँधेरा है यँहा 
हर जलते दीप तले 

छोटे से अँधेरे को छोड़ो
ऊपर देखो कितना रोशन है
मार्ग दीखाने को तुम्हे
क्या इतना उजाला कम है ?

चलते चलते आधे रास्ते में
यह दीपक बुझ जायेगा
मार्ग और भी दुर्गम होगा
और अँधेरा हो जायेगा 

जितना भी हो आगे बढ़ो तो सही
मंजिल नहीं रास्ते,तय करो तो सही
सोचो यँहा गर दीपक बुझ जायेगा 
 यह तिमिर और गहन हो जायेगा

हाय! इतनी दूर अभी चलना है 
और इतना समय गंवा दिया 
रास्ता इतना तय करना है 
ग़मों में यह भी भुला दिया 

जो बीता अब वापस न आएगा
टुटा जो संवर नहीं जायेगा
यह पल जो खो दिया तुमने
फिर इस पर भी रोना आएगा




मंगलवार, 4 जनवरी 2011

बगिया आज खिल उठी





कलियों के चटखने से 
बगिया आज महक उठी 
फूलों के मुस्कुराने से 
प्रकृति भी खिलखिला उठी



और भी रंगीन होती जा रहीं 
तितलियाँ रस पीकर 
दीवाने होकर देखो गा रहे 
सांवले सलोने भ्रमर 






गुजरा पवन इन्हें छूकर 
उसका रोम रोम महक उठा 
सहलाया बादलों को जाकर 
तो वह भी आज बहक उठा 


सारा स्नेह एकत्रित कर 
सर्वस्व अपना बरसा दिया 
कली को बूंदों से स्पर्श कर 
खुश हुआ औरों को हरसा दिया 


भीगी भीगी सी कलियाँ भी 
शर्मा कर झुक गईं 
जा रही थी जो हवा वह 
मंत्रमुग्ध होकर रुक गई 


मंद पवन का झोंका आया 
मुझको सारा हाल बताया 
शीतल सुवासित सुन्दरता से 
मेरा परिचय करवाया  













सोमवार, 3 जनवरी 2011

मेरी गली के आवारा कुत्ते



मेरी गली में रहते 
कुछ आवारा कुत्ते 
इंसानों के बीच रहते रहते 
अपना पराया सीख चुके 
गली में कोई उनका 
गैर नहीं 
बाहरी कुत्ते आये तो फिर 
उनकी खैर नहीं 
ये गली उनकी है 
पर इस गली में 
उनका कोई घर नहीं 
तभी कडकडाती सर्दी में 
कूँ..कूँ करते ठिठुरते 
ये आवारा कुत्ते 
कुछ सरकारी 
अलाव भी जलतें हैं 
पर इनसे पहले 
कुछ अधनंगे से 
दरिद्र उसे घेर लेते हैं 
बेबस खड़े देखते 
ये आवारा कुते 
ऊनी कपडे,बिस्कुट 
पालतू कुत्ते कि ठाट 
देख दंग रह जाते हैं 
गले में पट्टा देख 
खुशी से दौड़ लगाते 
या फिर शायद 
आजादी अपनी दिखाते हैं 
आकाश को देख, जाने 
अपना दुर्भाग्य गाते हैं 
या उस पालतू का 
दर्द सुनाते हैं 
ये आवारा कुत्ते 

रविवार, 2 जनवरी 2011

चाँद



ऐ चाँद, जाकर छिप जा
बादलों कि चुनर में
तुझे देख  कर ये
आँखें भर आती हैं
सालों पहले तू
कितना प्यारा था
परियों का देश
चंदा मामा था
तुझे निहारते हुए
कई सपने देखे थे
हर सपने कि लाश
सा नजर आता है तू
तेरी चाँदनी में
बैठ हम खेलें थे
चाँदनी अब यादों कि
चिताग्नि सी लगती है
तेरी रौशनी पसंद नहीं
अँधेरा हीं अब भाता है
खिड़की खोलते तू
क्यूँ सामने आ जाता है ?
जाकर छिप जा तू
क्यूँ मुझको रुलाता है ?
थिरक कर ये चाँदनी
क्यूँ मुझको जलाती है ?
तुझमे परियों कि रानी नहीं
 भयावह दैत्य नजर आता है
ऐ चाँद छिप जा तू
तुझे देख दिल दहल जाता है

शनिवार, 1 जनवरी 2011

नए साल में कुछ नया करें


चलो नए साल में कुछ नया करें ,
सबके जीवन में नए रंग भरें |


किसी के आँसु पोंछें,
किसी को मुस्कान दे दें |


धूप में किसी को साया ,
किसी गिरते को सहारा दे दें |


मानवता के उत्थान  हित,
कुछ और नहीं तो दुआ दे दें |


उपेक्षित जनों को ,
चाहत का दरिया दे दें |


लोभ, द्वेष को छोड़ ,
घृणा को तिलांजलि दे दें |


दुखी किसी जान को ,
खुशियों कि होली दे दें |


गुमनाम अंधेरों को ,
जगमगाती दिवाली दे दें |












दबे कुचलों को ,
बुलंद आवाज़ दे दें |


किसी मायूस जीवन को ,
मधुर सुरों का साज दे दें |





शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

ढलते सूर्य को मेरा नमन


पुराना साल जाने को है और नए साल का पदार्पण होने हीं वाला है | साल का आखिरी सूर्य अस्त होगा और नयी आशाओं को लिए बालारुण पूर्वी क्षितिज से उदीत होगा | क्या जा रहा है और क्या आएगा ? कुछ भी तो नहीं | अपनी सहूलियत के लिए बनाये गए इन सालों का आवागमन बस दर्शाता है गतिमान समय को, जो बढ़ता हीं जायेगा, बढ़ता हीं जायेगा |
उगते सूर्य को तो हम हमेशा सलाम करते हैं , अर्ध्य चढाते हैं | ऐ अस्त होते सूर्य जरा ठहर जा आज तुझे भी अर्ध्य चढ़ा लूँ | मुझे पता है तू न ठहरा है और न ठहरेगा पर अपनी मानव प्रवृति से लाचार मैंने तुझे ठहरने को कह दिया बस अपनी संतुष्टि  के लिए | इससे पहले कि तू पश्चिमी क्षितिज में जाकर विलीन हो जाए, मैं पूरे साल को संजो लेना चाहती हूँ अपनी यादों कि डायरी में | तू हीं जब साल का पहला सूर्य बन कर आया था तो हमने भव्य स्वागत किया था,और कल फिर जब तू नए साल का सूर्य बन कर आएगा तो तेरा स्वागत किया जायेगा | जब नए साल का आगमन हुआ तभी से पता था कि यह चला भी जायेगा | जाने फिर क्यूँ मान बेचैन हुआ जाता है | लगता है जैसे कुछ पीछे छुटा जा रहा है | सोचती हूँ कि मैं आगे बढ़ गयी, तू पीछे छुट गया या तू समय कि चाल से आगे बढ़ गया और मैं पीछे रह गयी ?
बहुत सी नयी खुशियाँ दी है तुने मुझे जिसे मैं कभी भूल नहीं सकती जाते हुए कुछ आँसु भी दिए उन्हें भी नहीं भुलाया जा सकता | तू पूरी तरह से बस गया है मेरी यादों में | ऐ जाते हुए साल, ढलते हुए सूर्य मेरा नमन स्वीकार कर | 

गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

बचा लो जान खतरे में है !!!!!

जी हाँ आज वाकई में हमारी हिंदुस्तान कि भाषा हिंदी कि जान खतरे में है, और इसे बचाना हमारे हीं हाथों में है | किताबों में पढ़ा था कि हमारी हिंदी का स्वभाव बहुत ही सरल है ये दूसरी भाषाओं के शब्द भी खुद में मिला कर उसे अपना लेती है | इस चीज़ को सिर्फ पढ़ा नहीं अपितु व्यावहारिक जीवन में भी देखा है, लेकिन अब हम इसकी सरलता का उपयोग नहीं दुरूपयोग कर रहे हैं | 
आज कल हमारी भाषा कैसी हो गयी है :-
 कैसे हो ?
 fine. तू बता everything okay ?
yaa but थोडा परेशान हूँ job को लेकर 
और ऐसी ही वार्तालाप करके हमे लगता है कि हम तो हिंदी में बात कर रहे हैं | किसी भी भाषा का ज्ञान बुरा नहीं है | मैं अंग्रेजी के खिलाफ नहीं हूँ पर अंग्रेजी का जो कुप्रभाव पड़ रहा है हमारी हिंदी पर वह मुझे गलत लगता है | आज अंग्रेजी में राम बन गए हैं "रामा" बुद्ध बन गए हैं "बुद्धा" और टेम्स कि तर्ज़ पर गंगा हो गयी "गैंजेस" | अंग्रेजी माध्यम में पढने वाला कोई बच्चा अपने स्कूल में अगर गंगा कह दे तो मजाक का पात्र बन जायेगा | आज हम इतने पागल हो गए हैं अंग्रेजी के पीछे कि हिंदी का मूल्य हीं भूल गए हैं | अंग्रेजी को सफलता और विकास का पर्याय मान लिया गया है | क्या अंग्रेजी के बिना सफलता के मार्ग पर नहीं चला जा सकता ? वैसे तो बहुत से उदहारण हैं पर ज्यादा दूर जाने कि जरुरत नहीं हमारा पडोसी चीन क्या उसने अपनी भाषा छोड़ी ?नहीं | क्या वो हमसे पीछे रह गया ? नहीं | 
अंग्रेजी का इस्तेमाल हम मशीनी मानव कि तरह करते हैं, जो रटा दिया गया वही बोलते हैं, बिना किसी अहसास के | मगर हिंदी से हमारे अहसास जुड़े होते हैं | फ़र्ज़ कीजिये किसे ने हाल चाल पूछा तो हम कैसे भी हों कह देते हैं fine , लेकिन इसी बात को हम हिंदी में नहीं कह सकते कि बहुत बढ़िया हूँ | बहुत हुआ तो हम कह देंगे ठीक हूँ | कोई अन्जान भी मिले तो उससे बात करते हुए हम कह देतें हैं dear बिना ऐसा कुछ महसूस किये कि सामने वाला हमारे लिए dear है | पर क्या हिंदी में हम हर किसी को प्रिये कहते हैं ? नहीं , क्यूंकि ऐसा हम महसूस नहीं करते |    
तो जो भाषा हमारे अहसासों से जुड़ी हों उससे हम इतना दूर होते जा रहे हैं क्यूँ? सार्वजनिक जगहों पर हमे हिंदी का इस्तेमाल करने में शर्म आती है, ज्यादातर लोग अंग्रेजी का हीं इस्तेमाल करते हैं खुद को पढ़ा लिखा दिखाने के लिए | आज ज्यादातर युवा Chetan bhagat कि सारी पुस्तकें पढ़ चुके हैं पर हिंदी के उपन्यास के विषय में पुछो तो 'इतना टाइम किसके पास है' | इतनी दुरी क्यूँ आती जा रही है हिंदुस्तानिओं और हिंदी के बीच ? क्या इसका कोई हल है ? या यूँही दूर होते होते हिंदी और हिंदुस्तान का साथ छुट जायेगा ? क्या खतरे में पड़ी हिंदी कि जान को हम बचा पाएंगे ?
अगर हाँ तो गुजारिश है "बचा लो हिंदी कि जान खतरे में है |"              















बुधवार, 29 दिसंबर 2010

वो बचपन हीं भला था




ख्वाबों के टुकड़ों से ,

वो टुटा खिलौना हीं भला था |
इस हारे हुए मन से ,
खेल में हारना हीं भला था |
वक़्त कि मार से ,
वो छड़ी का डर हीं भला था |
टूटते हुए रिश्तों से ,
दोस्तों का रूठना हीं भला था |
खामोश सिसकियों से ,
रोना चिल्लाना हीं भला था |
कडवी सच्चाइयों से ,
झूठा किस्सा हीं भला था |
मन में फैले अंधेरों से ,
वो रात में डरना हीं भला था |
हर टूटे सपने से ,
भूतों का सपना हीं भला था |
निराशाओं के घेरे से ,
वो बचपन हीं भला था |

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

काँच के रिश्ते



रिश्ते काँच से ,

नाजुक होते हैं |
धूप कि गर्माहट मिले ,
हीरों से चमक जाते हैं |
रंगीन चूड़ियाँ बनकर ,
जीवन को सजाते हैं |
इनके गोल दायरों में 

हम बंध  कर रह जाते हैं |
हाथ से जो छूटे ,
चकनाचूर हो जाते हैं |
बटोरना चाहो तो ,
कुछ जख्म दे जाते हैं |
आगे बढ़ना चाहो तो ,
पाँव को छल्ली कर जाते हैं |
रिश्ते बड़े जतन से ,
संभाले जाते हैं |

सोमवार, 27 दिसंबर 2010



न चाहो किसी को इतना ,
चाहत एक मजाक बन जाय |

न महत्त्व दो किसी को इतना ,
तुम्हारा अस्तित्व मिट जाए |

न पूजो किसी को इतना ,
वह पत्थर बन जाए |

न हाथ थामो किसी का ऐसे ,
सहारे कि आदत पड़ जाए |

न साँसों में बसाओ किसी को ऐसे ,
उसके जाते हीं धड़कन रुक जाए |

बनाओ खुद को कुछ ऐसा ,
हजारों चाहने वाले मिल जाए |

महत्त्व खुद का बढाओ इतना ,
लाखों सर इज्जत से झुक जाए |