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शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

जर्रे जर्रे में अपनी पहचान ढूंढ़ती हूँ

जो हो मुझसा वैसा जहान  ढूंढ़ती हूँ 
जर्रे जर्रे में अपनी पहचान ढूंढ़ती हूँ 
मेरा ह्रदय वह अथाह सागर है 
कितनी हीं भावनाओं कि नदियाँ 
आ मिली हैं इसमें 
अतल गहराइयों में दफ़न हैं 
कितने अरमानो के मोती 
भावों के लहरों में लहराता 
डूबता उतराता ह्रदय सागर 
उद्वेलित रहता हर पल 
अनंत के चरणों में 
उड़ेलकर सारे भाव 
हो जाना चाहता है शांत 
बिल्कुल शांत ..........
मेरी आँखें वह असीम आकाश 
कितने ही स्वप्न मेघ घिर आते हैं 
विधि के चरणों में बरस मिट जाते हैं 
आकाश फिर हो जाता है सुना 
सपनों के लाखों तारे टिमटिमाते हैं 
घटता बढ़ता चंदा भी जगमगाता है 
पर हकीकत का सूर्य सब निगल जाता है 
ये आँखें पूरे संसार को ले लेना 
चाहती है अपने आगोश में 
और फिर पलकों कि चादर ओढ़े 
सो जाना चाहती है अनंत कि गोद में 
हमेशा हमेशा के लिए .............

रविवार, 2 जनवरी 2011

चाँद



ऐ चाँद, जाकर छिप जा
बादलों कि चुनर में
तुझे देख  कर ये
आँखें भर आती हैं
सालों पहले तू
कितना प्यारा था
परियों का देश
चंदा मामा था
तुझे निहारते हुए
कई सपने देखे थे
हर सपने कि लाश
सा नजर आता है तू
तेरी चाँदनी में
बैठ हम खेलें थे
चाँदनी अब यादों कि
चिताग्नि सी लगती है
तेरी रौशनी पसंद नहीं
अँधेरा हीं अब भाता है
खिड़की खोलते तू
क्यूँ सामने आ जाता है ?
जाकर छिप जा तू
क्यूँ मुझको रुलाता है ?
थिरक कर ये चाँदनी
क्यूँ मुझको जलाती है ?
तुझमे परियों कि रानी नहीं
 भयावह दैत्य नजर आता है
ऐ चाँद छिप जा तू
तुझे देख दिल दहल जाता है

बुधवार, 29 दिसंबर 2010

वो बचपन हीं भला था




ख्वाबों के टुकड़ों से ,

वो टुटा खिलौना हीं भला था |
इस हारे हुए मन से ,
खेल में हारना हीं भला था |
वक़्त कि मार से ,
वो छड़ी का डर हीं भला था |
टूटते हुए रिश्तों से ,
दोस्तों का रूठना हीं भला था |
खामोश सिसकियों से ,
रोना चिल्लाना हीं भला था |
कडवी सच्चाइयों से ,
झूठा किस्सा हीं भला था |
मन में फैले अंधेरों से ,
वो रात में डरना हीं भला था |
हर टूटे सपने से ,
भूतों का सपना हीं भला था |
निराशाओं के घेरे से ,
वो बचपन हीं भला था |

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

काँच के रिश्ते



रिश्ते काँच से ,

नाजुक होते हैं |
धूप कि गर्माहट मिले ,
हीरों से चमक जाते हैं |
रंगीन चूड़ियाँ बनकर ,
जीवन को सजाते हैं |
इनके गोल दायरों में 

हम बंध  कर रह जाते हैं |
हाथ से जो छूटे ,
चकनाचूर हो जाते हैं |
बटोरना चाहो तो ,
कुछ जख्म दे जाते हैं |
आगे बढ़ना चाहो तो ,
पाँव को छल्ली कर जाते हैं |
रिश्ते बड़े जतन से ,
संभाले जाते हैं |

सोमवार, 27 दिसंबर 2010



न चाहो किसी को इतना ,
चाहत एक मजाक बन जाय |

न महत्त्व दो किसी को इतना ,
तुम्हारा अस्तित्व मिट जाए |

न पूजो किसी को इतना ,
वह पत्थर बन जाए |

न हाथ थामो किसी का ऐसे ,
सहारे कि आदत पड़ जाए |

न साँसों में बसाओ किसी को ऐसे ,
उसके जाते हीं धड़कन रुक जाए |

बनाओ खुद को कुछ ऐसा ,
हजारों चाहने वाले मिल जाए |

महत्त्व खुद का बढाओ इतना ,
लाखों सर इज्जत से झुक जाए |

शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

दोस्ती



खून का नहीं यह दिल का रिश्ता है |

यह रिश्ता बहुत हीं खास है |

दोस्ती एक प्यारा सा एहसास है |


इसमें जात धर्म का भेद नहीं ,

उम्र नहीं बड़ी बात |

रिश्तों का कोई बंधन नहीं ,

है यह एक जज्बात |

(आज मैं सात साल बाद अपने एक बहुत प्यारे दोस्त से मिली, उन्ही सात सालों के लिए एक एक पंक्ति )

बुधवार, 22 दिसंबर 2010

सब बदल गए




शब्दों के अर्थ बदल गए 
अर्थों के शब्द बदल गए 



 कुछ शक्लें थीं जानी पहचानी 
अब तो सारे चेहरे बदल गए 


दिखा देते थे सही चेहरा 
अब वे आईने बदल गए 


खुल कर कुछ कह नहीं सकती 
जाने क्या समझ बैठो 
हर शब्द के अब मायने बदल गए 


आसपास ढूंढ़ रहे थे हम 
हमे क्या पता था 
अब रिश्तों के दाएरे बदल गए 


नजरें अब भी वही हैं 
देखने के अंदाज़ बदल गए 


शब्द अब भी वही है 
बस उनके एहसास बदल गए 


हम तो अब भी वही हैं 
पर सबके जज्बात बदल गए 


ये देख कर सहम गयी 
अब तो समाज की सारी
व्यवस्था बदल गयी 


किसी ने समझाया 
बदला कुछ भी नहीं 
तुम्हारी अवस्था बदल गयी 

शनिवार, 18 दिसंबर 2010

चलो एक बार फिर से











चलो एक बार फिर से ,
गुम हो जाएँ उन अतीत के पन्नों में |
चलो एक बार फिर से ,
घूम आयें उन बीती गलियों में |
चलो एक बार फिर से ,
जी आयें उन गुजरे  लम्हों में |
चलो एक बार फिर से ,
हँस ले उन हसीन यादों को |
चलो एक बार फिर से ,
सुन आयें उन अनकही बातों को |
चलो एक बार फिर से ,
चूम आयें उन बुलंद इरादों को |
चलो एक बार फिर से ,
चलो दोहरा आयें उन वादों को |
चलो एक बार फिर से ,
रो आयें बैठ कर साथ में |
चलो एक बार फिर से ,
गा आयें मिलकर एक सुर में |
चलो एक बार फिर से ,
निश्छल भाव से भर जाएँ |
चलो एक बार फिर से ,
सारी कटुता भूल जाएँ |
चलो एक बार फिर से ,
सब मिलकर मौज मनाएं |
(missing my school days 2 much, so dedicated 2 all my frenz )

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

मेरी मंजिल

मेरी मंजिल आँखों से तो नज़र आती है
जितनी आगे बढूँ वह और पीछे हो जाती है
मृग तृष्णा सी मंजिल मुझे भगाती है
थक कर जो बैठूं आँखों से ओझल हो जाती है

क्षितिज पर जा बैठी है मंजिल मेरी
बुलाती है जल्दी आ कहीं  हो जाए न देरी
कहीं कोई और न पा जाये मंजिल तेरी
कहकर डराती है मुझको मंजिल मेरी

आँखें राहों पर रखूं तो मंजिल खो जाती है
मंजिल पर आँखे रखूं तो ठोकर से गिर जाती हूँ
वँहा पहुँचने का सही तरीका समझ नहीं पाती हूँ
मेरी दशा देख मंजिल मेरी मुस्कुराती है

मंजिल कभी थोड़ी हीं दूर नज़र आती है
अँधेरे से मन में आशा की ज्योत जलाती है
अगले छण बड़ी दूर नज़र आती है
आँखों में निराशा सी छा जाती है

मंजिल कभी जड़े की धूप सी खिलखिलाती है
कभी पंख खोल स्वप्न परिंदे सी उड़ जाती है
मुस्कुराकर वह साहस मेरा बढाती है
बान्हे फैलाये मंजिल मुझे बुलाती है 

मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

कितना बदल गया है न सबकुछ अचानक | मैं जिसके लिए लिखना सबसे कठिन काम होता था, जो ९ बजते बजते सोने के लिए बेचैन हो जाता था, वही मैं आज रात के १:३० बजे बैठ कर डायेरी  लिख रहा हूँ और वो भी क्यूँ ? क्यूंकि अपने दिल की बात अपने सबसे अच्छे दोस्त अपने पापा से नहीं कह पा रहा | मैंने अपनी जिन्दगी में हमेशा आपको एक दोस्त की भूमिका में पाया है फिर अचानक आप इतने ऊँचे कैसे हो गए ? अचानक आप पिता बन गए जिसके पास सारे अधिकार है, जिसके सामने कुछ नहीं कह सकता क्यूँ पापा ? अब तक आप मेरी हर छोटी से छोटी खुशी का ख्याल रखा है पर जब मैंने अपने जीवन की सबसे बड़ी खुशी मांगी तो आप मेरी खुशियों के दुश्मन बन बैठे क्यूँ पापा ?अगर मैं किसी से प्यार करता हूँ उसे अपनाना चाहता हूँ तो बीच में आपकी इज्ज़त और ये समाज कँहा से आ जाता है पापा? जिन्दगी मुझे गुजारनी है उसके साथ समाज को नहीं | आप ने और मम्मी ने तो कह दिया इतनी हीं पसंद है तो उसी के पास चले जाओ | उसमे और हममे से किसी एक को चुन लो | पर मेरे लिए ये इतना आसान नहीं है | धड़कन और सांसो में से किसी एक को कैसे चुन लूँ ? दोनों हीं जीवन के लिए उतने हीं जरुरी हैं | आप लोगों ने जब से कहा मैंने उससे बात भी नहीं की | देखिये न पापा उसका नाम तक नहीं लिख पा रहा| जेहन में उसका नाम आते हीं हाथ कांप जा रहे हैं |लेकिन मैं खुश नहीं हूँ पापा | जिन्दा तो हूँ पर मैं जी नहीं रहा हूँ |आप लोग कहते हैं की मैं बेशर्म हो गया हूँ, मेरी आँखों का पानी मर चुका है | लेकिन ऐसा नहीं है पापा| मेरी आँखों में पानी तो है पर गलती से, हाँ गलती से हीं इन आँखों ने कुछ सपने भी देख लिए हैं |
कई दोस्तों ने सलाह दी कि कोर्ट मैरेज कर लो तुम बालिग हो | वैसे देखा जाए तो सही हीं है न पापा मैं २४ साल का हो चुका हूँ वो भी तो २१ की है पर हम ये कदम नहीं उठा सके | न मैं आपके खिलाफ जा सका न वो अपने पापा की इज्ज़त को नज़रंदाज़ कर पायी | कैसी विडंबना है न पापा जिस माँ बाप ने हमे अधिकार का मतलब समझाया,अधिकारों के लिए लड़ना सिखाया वही माँ बाप हमारे सहज अधिकार को नकार रहे हैं और हम कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं क्यूंकि हम जकड़े हुए हैं उनके प्यार के मोह में, बंधे हुए हैं अपने so called संस्कारों में | खैर ये सब मैं लिख गया आवेग में आप से कह नहीं पाउँगा न हीं आप कभी ये पढ़ पाएंगे क्यूंकि अगर आप इसे पढ़ भी लें तो क्या फ़ायदा ? कुछ पल के लिए एक पिता का दिल पिघल भी जाय तो क्या आपने अपने चारों ओर जो इज्ज़त और प्रतिष्ठा के ऊँचे ऊँचे दिवार खड़े कर रखे हैं उनको मैं नहीं हिला सकता | मैंने जो भी लिखा बस अपने मन की शांति के लिए लिखा है | उम्मीद तो नहीं पर शायद मन शांत हो जाए |मेरे अरमानो की तरह मेरी डायेरी का यह पन्ना भी राख हो जायेगा | फर्क सिर्फ इतना है की अरमानो को आपने जलाया इस पन्ने को मैं जलाऊंगा |यह तो जलकर राख हो जायेगा पर मेरे अरमान जलकर भी तड़प रहे हैं |   

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

माँ और पिता

आज 2 दिसम्बर, मेरा जन्मदिन है | मुझे जन्म मेरे मम्मी पापा ने दिया है, आज उन्ही की वजह से मैं इस दूनिया में हूँ अतः उन दोनों को ही अपनी रचना समर्पित करती हूँ |
                   माँ
माँ  तो एक पहेली है |
      कभी ममतामई |
तो कभी गुस्से वाली है |
सख्त होती कभी इतनी,
कि चट्टान भी धरासाई हो जाए |
नर्म हो जाती कभी इतनी ,
गुलाब की पंखुड़ी भी सख्त पड़ जाए |
घर की आधारशीला हैं वो ,
बच्चों की भाग्य विधाता भी |
गंगा की निर्मल धारा है ,
कभी उसका रूप ज्वाला है |
इस अंधियारे जग में वही तो एक उजाला है |
माँ तो एक पहेली है |
     कभी ममतामई |
तो कभी गुस्सेवाली है |


               पिता 
माँ की सहृदयता को सबने जाना 
पिता को किसी ने नहीं पहचाना 
माँ अगर है जन्मदाता 
तो पिता भी हैं पालनकर्ता 
पिता की कठोरता में हीं तो है कोमलता 
गुलाब की रक्षा काटा  हीं तो है करता
यह कठोर दाँत न हो अगर भोजन कौन चबायेगा ?
काम करने क लिए उर्जा शरीर कँहा से पायेगा ?
होते हैं नारियल जैसे पिता 
अन्दर से कोमल ऊपर झलकती कठोरता 
पिता तो एक छाते से होते हैं 
इस  दूनिया की धूप पानी से हमे बचाते हैं
पिता के प्यार कुर्बानी आदि को हम झुठला नहीं सकते 
जिन्दगी में उनकी अहमियत को भुला नहीं सकते 

रविवार, 28 नवंबर 2010

मेरी प्यारी सपना
हो सके तो मुझे माफ़ कर देना |वैसे मैंने अपनी इस छोटी जिंदगी में जितनी गलतियां , नहीं गलती कहना एक और गलती होगी मैंने जितने पाप किये हैं उसके लिए तो शायद भगवन भी माफ़ न कर सके | सच कहूँ तो मैं दौलत की लालच में अँधा हो गया था बिल्कुल अँधा |जानता हूँ आत्महत्या कायर लोग करते हैं पर मैं जीकर भी तो हरपाल मरता हीं रहूँगा, दिल पर इतना बोझ लेकर, इतनी आंहे लेकर मैं नहीं जी सकता | आत्महत्या कानून की नजर में अपराध है, तो मैं कानून पर चला हीं कितना हूँ ? मैं भी तो एक अपराधी हीं हूँ | इस दूनिया से जाने से पहले मैं अपने दिल की बात तुम्हे बताना चाहता था पर मैं कह नहीं सकता इसलिए
ये पत्र लिख रहा हूँ | इस इन्टरनेट के ज़माने में पत्र अजीब लगता है न पर सपना यह पत्र नहीं मेरे जीवन का सारांश है | बचपन से मुझे अच्छे स्कूल में पढाया गया वँहा बहुत से आमिर बच्चे भी थे जिनकी रईसी देख मैं ललच जाता था | बिल्कुल तुम्हारी तरह माँ भी समझाती रहती थी | मैं काफी तेज़ स्टुडेंट भी था ये तो तुम जानती हीं हो | मेरी महत्वाकांक्षाएं भी काफी बड़ी थीं | जिस दिन I.I.T के लिए मेरा सेलेक्सन हुआ था माँ इतनी खुश थीं मनो मैं विश्व विजय करके लौटा हूँ | आज जब अतीत के पन्नों पर झांकता हूँ तो लगता है जैसे मेरे जीवन का सबसे काला दिन वही था |कितने कोचिंग वालों ने contact किया था मुझसे| कोई ५० हज़ार तो कोई ७५ हज़ार देने को तैयार थे सिर्फ अपना फोटो और लिखित प्रमाण देने के लिए की मैंने उनकी कोचिंग से पढाई की है | पापा ने माना किया पर मैंने अपनी कसम देकर उन्हें मना लिया| उस दिन एक दिन में मैंने डेढ़ लाख कमाए थे | उसी दिन से मेरे सर पर दौलत का भुत स्वर हो गया | पहला सेमेस्टर ख़त्म हीं हुआ था की एक कोचिंग वाले सर ने फिर मुझसे कांटेक्टकिया और कहा आने वाले एंट्रेंस एक्साम में एक लडके की जगह तुम्हे परीक्षा देनी है ३ लाख मिलेंगे | एक परीक्षा और ३ लाख मैं बहुत खुश हुआ पर पापा मम्मी  की ईमानदारी का
सबक याद आ गया | मैंने अनमने ढंग से कहा सेटिंग  नहीं सर ये गलत है |शायद उन्होंने ३ लाख के नाम पर मेरी आँखों में आये चमक को भांप लिया था |मुझे समझाने लगे की ये तो समाज सेवा है बेचारे जो बच्चे खुद से पास नहीं कर पते उन्हें पास करना है और ऊपर से पैसे भी तो मिल रहे हैं |मुझे पुलिस के डंडे से भी बहुत डर लगता था | उन्होंने मेरे सिनिअर से मिलाया जो  पहले से इस काम में था, उसे ५ लाख मिल रहे थे | वह बड़े स्तर की परीक्षा  देने वाला था मुझे तो स्टेट लेवल देना था अनुभवी नहीं था न |उसके बाद मैं आगे बढ़ता गया या कह लो जुर्म की दलदल में धंसता गया | बहुत बड़ा दल था, मेडिकल, इंजीनियरिंग, रेलवे सबका सेटिंग कराया जाता था और सेटिंग भी तरह तरह के |पता है मैं पहले सोचता था कि लडकियां रिस्क नहीं लेतीं पर उस दल में शामिल होने पर पता चला कि लडकियां यंहा भी पीछे नहीं है |हमारी शादी के बाद जब तुमने समझाया मैंने कोशिश की पर छोड़ नहीं पाया |तुमसे झूठ कह दिया कि मैंने गलत काम छोड़ दिया | अब मैं परीक्षा देता नहीं बस बच्चों को तैयार करता हूँ उस कोचिंग वाले सर कि तरह | तुमसे ज्यादा वफादारी मैंने उन लोगों के साथ निभाई है | सबसे हेड कौन है
ये तो मैं आज भी नहीं जानता पर कैसे कैसे सेटिंग होता है मैं सब जानता हूँ | जब हमे ज्यादा स्टुडेंट्स मिल जाते हैं उस बार पूरे सेंटरको हीं खरीद लिया जाता है| स्टुडेंट्स भी अपने, इन्विस्लेटर भी अपने और गार्ड्स भी अपने | जँहा एक दो स्टुडेंट्स होते हैं उनके लिए मेहनत ज्यादा करनी पड़ती है | उनके जैसे मिलते जुलते चेहरे वाले बच्चे को ढूंढा जाता है फिर हमारे फोटोग्राफर दोनों बच्चों के चेहरे को मिलाकर फोटो बनाते हैं |खैर मैं तुम्हे डिटेल में क्यूँ बताऊँ ? कंही तुम भी सेटिंग करने लगी तो ........हाहा हा हा just kidding yaar .जीवन में मेरी यह आखिरी हँसी है (हँसने का मुझे हक है भी नहीं ) कितने बच्चों का कैरिअर बर्बाद किया है | कितने हीं बच्चों ने आत्महत्या तक कर ली | सोचकर बुरा लगता था पर पैसे देख सब भूल जाता था मैं | जिन बच्चों को मैंने पास कराया उनके लिए भी तो गलत हीं किया | मैं सब भूल सकता हूँ पर रवि कि मौत नहीं | उसे इस दलदल में लेन वाला तो मैं हीं था | हम दोनों ने साथ में इन सब कामों को छोड़ना चाहते थे | हमारे खिलाफ बहुत सबूत थे उन लोगों के पास, मैं डर गया उन लोगों की धमकी से पर रवि नहीं डरा | उसने  आत्मसमर्पण कर दिया संयोग से ईमानदार इंस्पेक्टर भी मिल गया पर नतीजा क्या हुआ ?रवि को मार डाला गया और क़त्ल के इल्जाम में वह इंस्पेक्टर जेल गया | रवि इस दूनिया में नहीं रहा उसके गम में चाची मर गयी चाचा पागल हो गए सब की वजह मैं हूँ |उस इंस्पेक्टर के २ बच्चे अनाथों की जिन्दगी जी रहे हैं मेरी हीं वजह से | कहते हैं जब जागो तभी सवेरा पर हमारे जुर्म की दुनिया में जिसका जमीर जग जाता है उसके जीवन में अँधेरा छा जाता है | इतने सारे पापों का बोझ लेकर मैं नहीं जी सकता सपना नहीं जी सकता मैं | मेरे सारे गुनाहों की तो माफ़ी मिल नहीं सकती |तुम्हारे साथ तो मैं सात वचन तक निभा नहीं सका | हो सके तो मुझे माफ़ कर देना सपना |
तुम्हारा (कभी बन नहीं सका )
अविरल

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

क्या मैंने गलत किया ?

मैं दुर्गा कई दिनों से एक कशमकश से जूझ रही हूँ | एक अंतर्द्वंद में पीसी जा रही हूँ |किस से कहूँ अपने दिल की हालत पर आज अगर खुद को व्यक्त न करूँ तो शायद यह अंतर्द्वंद मुझे मर हीं डाले | मैं सिर्फ यही सोच रही हूँ कि क्या मैंने गलत किया ? आज भी याद है मुझे अपना बचपन जब मैं कुछ भी कहती पापा मुझे वह खरीद कर देते थे और मैं पगली डरती थी कि कहीं दुकानदार अपनी चीज़ वापस न ले ले तब एक दिन पापा ने समझाया था कि मैंने जो चीज़ पैसे देकर खरीद दी  वह तुम्हारा हो गयी  | अब दुकानदार का उसपर कोई हक नहीं | पापा ने मेरी हर मांग पूरी की है मैंने भी उनका हर कहना माना है | मैं पापा की एकलौती संतान हूँ  इसलिए उनकी सारी आशाएं भी मुझसे हीं जुडी थी | उनका सबसे बड़ा ख्वाब  था मेरा I.A.S बनना ताकि जिन लोगों ने उन्हें बेटी का बाप होने पर ताने मारे थे और बेटों का घमंड दिखाया था उन लोगों का मुंह बंद हो सके | मैंने भी जी जान लगा दी और मेरे I.A.S बनते हीं लोगों के मुंह पर ताला भी पड़ गया | पापा फुले न समाते थे तब माँ ने याद दिलाया की मैं एक बेटी हूँ, पराया धन | पापा को भी एहसास होने लगा की जवान बेटी बाप के कंधे पर बोझ होती है और मुझ बोझ को उतारने का वक्त आ गया है | आत्मनिर्भर हो कर भी मैं एक बोझ थी | खैर मेरे लिए उपयुक वर की तलाश होने लगी | जल्द हीं यह तलाश ख़त्म हो गयी | मुझ से ३ बैच सीनियर एक I.A.S ढूंढा था मेरे पापा ने अपनी लाडो के लिए | सभी कह रहे थे लड़का हीरा है हीरा और उस हीरे की कीमत  उसके जौहरी माँ बाप ने  तय किया था २५ लाख | मैंने पापा से कहा दहेज़ .......ये गलत है पापा | उन्होंने कहा यही रीत है बेटी और फिर मेरी सारी कमाई तेरे लिए हीं तो है, तू ज्यादा सोच मत कुछ भी गलत नहीं है | माँ ने इज्जत, मान-मर्यादा बहुत कुछ समझाया जिसका सारांश था कि अपने पापा की परेशानी में परेशां होने का अब कोई हक नहीं था मुझे | पापा परेशान हो तो हो आँख बंद करके मुझे विवाह वेदी पर चढ़ जाना है  और किसी और के घर की खुशी बन कर अपने माँ बाप को भूल जाना है | इसी में मेरी भलाई और पापा की इज्जत है | अपनी भलाई का तो नहीं पता पर पापा की इज्जत के लिए मैं चुप रही |जिन्दगी भर स्वाभिमान से जीने वाले मेरे पापा को अपने भाई और न जाने किसके किसके
सामने हाथ फैलाना पड़ा | सबके मुंह पर मैंने जो ताले डाले थे वो खुल गए | तानों की झड़ी लग गयीमैं चुप रही |क्या मैंने गलत किया ?माँ को को रोता देख मैंने ठान लिया कि माँ के आँसु और पापा के अपमान सबका बदला लूँगी| उन दहेज़ लोभिओं के घर बहु नहीं काल बनकर जाऊँगी| क्या मैंने गलत किया ? आदरणीय ससुर जी को मैंने आदर नहीं दिया | पूज्य सासू माँ की मैंने पूजा नहीं की, उनकी हर ईंट का जवाब मैंने पत्थर से दिया | क्या मैंने गलत किया ? पैसे ले लेने के बाद जब २५ रु. की गुडिया पर दुकानदार का कोई हक नहीं रहता तो इस सजीव गुड्डे(मेरे पति) पर मैं उसके माँ बाप का हक कैसे रहने देती ? इसके लिए तो पापा ने २५ लाख दिए थे |ज्यादा परेशानी भी नहीं हुई क्यूंकि वो अब बच्चे नहीं थे जो उन्हें माँ की जरुरत होती, उनकी जवानी को बीवी की जरुरत थी, मेरी जरुरत थी | स्वार्थी मानव |एक माँ बाप से मैंने इकलौता बेटा छीन लिया | क्या मैंने गलत 
किया ? मैं उनसे (पति ) न डरती हूँ न दबती हूँ |पैसे का रौब वो नहीं झाड़ सकते मुझ पर क्यूंकि मैं आत्मनिर्भर हूँ |मैंने उनकी गुलामी कभी नहीं की, क्या मैंने गलत किया ?एक दिन मेरी सास ने कहा था "पराये घर की बेटी है, जाने क्या संस्कार ले कर आई है |" बहुत चुभी थी मुझे यह बात | मायेके के लिए मैं पराया धन थी और ससुराल के लिए पराये घर की बेटी | मैंने अपने सास ससुर को वृधाश्रम भेज दिया है | मैंने अपना घर पा लिया है |ये घर मेरा अपना है और मैं इस घर की अपनी | क्या मैंने गलत किया ? पापा ने जो भी कर्ज लिया था मैंने चुका दिया है | क्या मैंने गलत किया ? सब कहते हैं मैंने घर तोड़ दिया |हाँ सच है मैं अच्छी, आदर्श बहु नहीं बन पायी |माँ पापा को रुलाने वालों को अपना कर उनकी सेवा मैं नहीं कर पायी | पर क्या मैंने गलत किया ? यही सोच कर घुट रही हूँ की क्या मैंने गलत किया ?

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

अजन्मी बेटी

19 नवम्बर यानि आज का दिन हमारे देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण दिन है | आज के दिन हमारे देश में एक बेटी ने जन्म लिया था एक ऐसी बेटी ने जिसने सिर्फ अपने माँ बाप का हीं नहीं बल्कि पूरे देश का नाम रौशन किया | जी हाँ आज चाचा नेहरु की प्यारी इंदु और हमारे देश की प्रथम महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की जयंती है | बहुत बुरा लगता है कि जिस देश में इतनी महान बेटी  ने जन्म लिया हो उस देश में आज भी कन्या भ्रूण हत्या जैसे घृणित पाप को अंजाम दिया जाता है |गर्भपात के दौरान मारी जाने वाली बच्चियों कि जगह खुद को रखकर कल्पना कीजिये तो रूह तक कांप उठेगी | कैसा लगता होगा उन्हें ? क्या सोचती होंगी वे ?शायद वे भी कुछकहना चाहती होंगी अपनी माँ से ,अपने परिवार वालों से .......................................

अजन्मी बेटी  
~~~~~~~~~~
सुनो मुझे कुछ कहना है 
हाँ तुमसे हीं तो कहना है 
क्या कहकर तुम्हे संबोधित करूँ मैं ?
मैं कौन हूँ कैसे कहूँ मैं ?
एक अनसुनी आवाज़ हूँ मैं 
एक अन्जाना एहसास हूँ मैं 
एक अनकही व्यथा हूँ मैं 
हृदय विदारक कथा हूँ मैं 
एक अजन्मी लड़की हूँ मैं 
मैं हूँ एक अजन्मी लड़की 
हाँ वही लड़की जिसे तुम जीवन दे न सकी 
हाँ वही मलिन बोझ जिसे तुम ढो न सकी 
अगर इस दुनिया में मैं आती, तुम्हारी बेटी कहलाती 
कहकर प्यार से माँ तुम्हे गले लगाती 
माँ तुम्हे कंहूँ तो कैसे ? जन्म तुमने दिया ही नहीं 
बेटी खुद को कहूँ तो कैसे ?जन्म तुमने दिया ही नहीं 
तुम सब ने मिलकर निर्दयता से मुझे मार डाला 
मेरे नन्हे जिस्म को चिथड़े चिथड़े, बोटी बोटी कर डाला 
सिर्फ लड़की होने की सजा मिली मुझको 
फाँसी से भी दर्दनाक मौत मिली मुझको 
सोचो क्या इस सजा की हकदार थी मैं ?
 कहो तो क्या इतनी बड़ी गुनाहगार थी मैं ?
इंदिरा गाँधी, किरण बेदी मैं भी तो बन सकती थी 
नाम तुम्हारा जग में रौशन मैं भी कर सकती थी 
दलित, प्रताड़ित अबला नहीं सबला का रूप धर सकती थी 
तुम्हारे सारे दुःख संताप मैं भी तो हर सकती थी 
तुम्हारी तमनाएँ आशाएं सब को पूरा कर सकती थी 
न कर सकती तो बस इतना बेटा नहीं बन सकती थी 
बेटे से इतना प्यार तो बेटी से इतनी घृणा क्यूँ ?
दोनों तुम्हारे हीं अंश फिर फर्क उनमे इतना क्यूँ ?
काश ! तुम मुझे समझ पाती 
प्यार से बेटी कह पाती 
काश ! मैं जन्म ले पाती 
जीवन का बोझ नहीं प्यारी बेटी बन पाती 






                                                                                                

गुरुवार, 11 नवंबर 2010


नमस्कार दोस्तों
हार्दिक स्वागत है आपका मेरे ब्लॉग पर | बहुत दिनों से सोचते सोचते आज मैंने ब्लॉग लिखना प्रारंभ किया है | ऐसा नहीं है कि क्या लिखुँ मैं समझ नहीं पाती दिक्कत यह है कि क्या क्या लिखुँ सोचकर उलझ जाती हूँ| आपने उस गाने को तो सुना हीं होगा
"मैं कहाँ जाऊं होता नहीं फैसला
एक तरफ उसका घर एक तरफ मयकदा "
शायर कि परेशानी यह है कि वह निर्णय नहीं कर पा रहा कि अपनी माशूका के घर जाए या फिर मयखाने ? ठीक वही हालत मेरी है कभी कोई बात अपनी तरफ मेरा ध्यान आकृष्ट करता है तो तो उसी छण किसी दूसरी बात का नशा मुझे अपनी तरफ खींचता है | चूँकि आज मैं पहली बार यंहा लिख रही हूँ तो सोचती हूँ अपने संछिप्त परिचय से ही शुरू करूँ | नाम तो आप जानते ही होंगे 'आलोकिता ' जिसका अर्थ है अँधेरे पथ को रौशन करने वाली |मेरी जिन्दगी सदा से एक खुली किताब रही है और दोस्तों कि इसमें  विशेष जगह रही है | कहते हैं वक्त के आगे बड़े बड़े नहीं टिक पाते| उसी वक्त कि आंधी ने एक तिनके की तरह उड़ा कर मुझे दोस्तों से दूर एक वीराने में फेंक दिया | आज जब अपने  अब तक के जीवन का सारांश लिखना चाहती हूँ तो मेरे जेहन में बस ये आठ पंक्तियाँ ही उभरतीं हैं |
"सपनों को हकीकत के खाक में मिलते देखा है |
चाहत को अपनी तड़प कर मरते देखा है |
अरमानों की चिता जली है हमारी |
ग़मों को खुशीकी झीनी चादर में लिपटे देखा है |
अश्क पीकर हमने मुस्कुराना सीखा है |
ग़मों के दलदल में हमने जीना सीखा है |
जीने क लिए हर पल मरते हैं हम |
खुशी की आहट से भी अब डरते हैं हम |"
उपरोक्त पंक्तिओं का एक- एक लफ्ज मेरे दिल से निकला है |सचमुच खुशी से डरती हूँ कि जाने ये छोटी सी खुशी अपने पीछे ग़मों का कितना बड़ा पहाड़ लेकर आ रहा है अपने पीछे मेरी खातिर |पर इसका मतलब यह कतई नहीं कि खुशियों कि तलाश हीं बंद कर दूँ |अपने अनुभव के आधार पर ही आपसे एक बात कहना चाहूंगी जिन्दगी में कितने भी गम आये सदा हंसते-मुस्कुराते रहिये इससे आपका दुःख ख़त्म तो नहीं होगा पर हाँ दुःख को सहने कि क्षमता जरूर मिलती है | रोने से उदास होने से शक्तियां क्षीण पड़ जाती है |बस आज इतना ही कहना चाहूंगी आगे अब अगली बार अपनी कवितायें लिखूंगी |