गुरुवार, 26 मई 2011

ओ सृजक मेरे


यूँही मन में कुछ ख्याल आये और उन्हें लिखती चली गई कविता कुछ लम्बी हो गई |
वो कहते हैं 
पत्थरों की जुबाँ
नहीं होती 
पर तुम 
खूब समझते हो 
मेरी भाषा 
तो क्यूँ न 
दिल की बात 
तुमसे कह लूँ ?
कृतार्थ हूँ 
तुम्हारे हाथों में आ के 
तो क्यूँ न 
कृतज्ञता में
कुछ शब्द पुष्प 
अर्पित कर दूँ 
आह 
कितना विशाल था 
वह पर्वत 
टूटकर मैं 
जिससे गिरा था 
शिखर से 
लुढ़ककर 
मैं 
उसके तलवों में 
पड़ा था
देखता था  
कई राहियों को
आते जाते, 
कुछ निकलते 
कतरा के 
तो कई आते थे 
मतवाले 
झूमते गाते से 
अपनी मस्ती में 
खुद हीं 
ठोकर लगाते
मुझको 
औ कहते 
की ठोकर 
मैंने लगाई है
यूँ हीं 
होता बदनाम सदा 
मैं मूक पत्थर 
तुम्ही कहो 
क्या थी मेरी 
बिसात 
की ठोकरें 
लगता उन्हें ?
रहमत खुदा की 
जो नज़रें तुम्हारी 
मुझपर पड़ी 
और उन नज़रों में 
देखा मैंने 
अपना एक साकार रूप 
तुम्हारी 
अपेक्षाओं के साँचे में 
ढलना
बहुत कठिन है 
लेकिन 
साकार होने का सुख
इन कष्टों से 
बहुत बड़ा है 
और उसपर भी 
तुम्हारा 
स्नेहिल स्पर्श 
हर लेता है 
छैनी हथौड़े 
के प्रहारों से 
उत्पन्न हर कष्ट को 
पर कभी कभी 
व्याकुल 
कर जातीं हैं 
हथौड़े से घायल 
तुम्हारी उंगलियाँ 
और 
सजल से दो नैन 
मानव होकर 
मानव समाज से 
बिलकुल पृथक 
क्यूँ दीखते हो ?
ऐसा सोचता था  
कल हीं 
जाना मैंने 
पूर्वी सभ्यता 
और कला को 
ढोने वाले
तुम जैसे 
कारसाज़ 
पाश्चात्य लालित 
सभ्य
मानव-समाज 
का हिस्सा 
ना रहे 
लेकिन 
एक प्रश्न अब भी है 
मन में 
डरता हूँ 
जो साकार 
हो भी गया 
तो क्या चूका 
पाऊंगा 
तुम्हारे ............
नहीं 
एहसान कहकर
निश्छल स्नेह को 
कलंकित 
नहीं कर सकता 
लेकिन 
मान लो 
साकार न हो सका,
टूट गया मैं 
तो ???
एक बार 
बस एक बार 
सिने से लगाके 
संग मेरे 
रो लेना 
मेरे अवशेषों पर 
नेह नीर 
का एक कतरा 
तब भी तो 
दोगे ना ?
ओ सृजक मेरे   

शनिवार, 14 मई 2011

हर मोड़ पर



पाँव लड़खड़ाते......... हर मोड़ पर
मिलते हैं चौराहे....... हर मोड़ पर
कदम दर कदम... बढती जिन्दगी
ठिठक सी जाती है.... हर मोड़ पर
कई विकल्प......... मुँह ताकते से
खड़े रहते हैं............ हर मोड़ पर
असमंजस में डालते......... चौराहे
एक फैसला होता..... हर मोड़ पर
मिल जाते....... राहों में कई लोग
बिछड़ हीं जाता. कोई हर मोड़ पर
छुटी परछाईं.... राहों में जाने कहाँ
तन्हाई मिलती है.... हर मोड़ पर
नई आशाएं जगतीं..... कभी कभी
बिखरते हैं सपने..... हर मोड़ पर
यूँ भी जिन्दगी... कुछ आसां नहीं
कठिनाइयाँ बढती... हर मोड़ पर
बुनती नियति....... नित नई राहें
उलझती जिन्दगी.... हर मोड़ पर

सोमवार, 9 मई 2011

मुझे आदत नहीं.... यूँ हार जाने की

आदत हो चुकी हैं गम  को पी जाने की 
आती नहीं अदा... खुशियाँ छिपाने की 

हंस जो देती हूँ.......... जरा खुश होकर 
नज़र लग ही जाती है....... ज़माने की 

टिक गया है दर पे....... गम कुछ ऐसे 
बात करता ही नहीं अब तो  जाने की 

अंधेरो में बहुत जी चुकी.... अब तक
अबकी कोशिश हैं... रौशनी लाने की 

कभी अब न कांपेंगे......... मेरे कदम 
ठान ली है मैंने  कुछ कर दिखाने की  

ग़मों ने सोचा था.. की मैं टूट जाउंगी 
मुझे आदत नहीं..... यूँ हार जाने की 

गुरुवार, 5 मई 2011

राजकुंवर हीं तो आया है



जाने कब...... बूंदों सा बरसोगे मेरे आँगन में 
जाने कब.......फूलों सा  हंसोगे मेरे आँगन में 
इंतज़ार है मुझे अब...... हर पल उस घडी का 
जब होगा आगमन तुम्हारा.... मेरे आँगन में 

माँ तुम हर पल कुछ यूँ हीं तो सोचा करती थी
जाने क्यूँ... उस अंजाने की प्रतीक्षा करती थी 
देख ना माँ,...वह अजनबी तेरे घर आ हीं गया 
तू स्वागत में जिसके तैयारी किया करती थी 

देख न माँ वह सजीला राजकुंवर हीं  आया है 
बैंड-बाजा-बारात सब कुछ तो संग में लाया है 
माँ अब भी क्यूँ हैं इतनी तेरी ये आंखे  सजल 
तेरा वर्षों का ख्वाब अब पूरा होने को आया है 

कुछ क्षण ही बरसेंगी अब ये बूंदे तेरे आँगन में
कुछ पल ही मुस्कुराएंगे ये पुष्प तेरे आंगन में
ले जायेगा साथ फिर वो तेरे जिगर के टुकड़े को
छूट जाएँगी वो बरसों की यादें ही तेरे आंगन में