गुज़रे तुझे इन गलियों से
यूँ तो इक ज़माना गुज़र गया
पर यकीं है इतना
गर आये तो
आज भी इन्हें पहचान लोगे
चका चौंध तो कुछ बढ़ी है
नज़रें तुम्हारी पर इनपे टिकती कहाँ थी ?
इन गलियों की वो अथाह वेदना
जो नम कर जाती थीं तुम्हारी आँखें
वो दर्द जो झकझोर देते थे तुम्हे
कहीं अन्दर तक
वे सब तो आज भी वही हैं
पंच बनके परमेश्वर भले हीं
कोई अब बनता ना हो
शराबखाने की भट्टी में
कई बुधियाओं के कफ़न
आज भी जलते हैं
वो दरिद्र कृषक, वो अन्नदाता हमारे
जिनकी व्यथा तुम्हारी कलम रोया करती थी
आज भी व्यथित हो आत्मदाह करते हैं
होरी की मेहनत आज भी
पकते हीं खेतो में लुट जाती है
पूस की रातों में आज भी
हल्कू ठिठुरता है
वो होरी, वो हल्कू, वो धनिया, वो मुन्नी
सारे सजीव पात्र बिलखते हैं
आज भी इस रंगभूमि पर
सफेदपोश रातों के सहजादे
घूमते हैं बेदाग
और आज भी
दालमंडी में बैठी सुमन
अकेली हीं बदनाम हो जाती है
तथाकथित तुम्हारे वंशजों ने
लिफाफे तो बदल दिए
पर मजमून आज भी वही है
ओ कलम के सिपाही, प्रथम प्रेरणा मेरी
और क्या क्या कहूँ तुमसे
बस समझ लो
अमर हो गए तुम और तुम्हारी कृतियाँ
समाज कि इन विकृतियों के साथ
सदा याद किये जाओगे किताबी पाठों में
शायद सदा यही लिखते रहेंगे हम
"वर्षों पूर्व लिखी ये कथाएं
आज भी समाज का दर्पण सी लगती हैं
सचमुच प्रेमचंद हीं कथा सम्राट है"