गुज़रे तुझे इन गलियों से
यूँ तो इक ज़माना गुज़र गया
पर यकीं है इतना
गर आये तो
आज भी इन्हें पहचान लोगे
चका चौंध तो कुछ बढ़ी है
नज़रें तुम्हारी पर इनपे टिकती कहाँ थी ?
इन गलियों की वो अथाह वेदना
जो नम कर जाती थीं तुम्हारी आँखें
वो दर्द जो झकझोर देते थे तुम्हे
कहीं अन्दर तक
वे सब तो आज भी वही हैं
पंच बनके परमेश्वर भले हीं
कोई अब बनता ना हो
शराबखाने की भट्टी में
कई बुधियाओं के कफ़न
आज भी जलते हैं
वो दरिद्र कृषक, वो अन्नदाता हमारे
जिनकी व्यथा तुम्हारी कलम रोया करती थी
आज भी व्यथित हो आत्मदाह करते हैं
होरी की मेहनत आज भी
पकते हीं खेतो में लुट जाती है
पूस की रातों में आज भी
हल्कू ठिठुरता है
वो होरी, वो हल्कू, वो धनिया, वो मुन्नी
सारे सजीव पात्र बिलखते हैं
आज भी इस रंगभूमि पर
सफेदपोश रातों के सहजादे
घूमते हैं बेदाग
और आज भी
दालमंडी में बैठी सुमन
अकेली हीं बदनाम हो जाती है
तथाकथित तुम्हारे वंशजों ने
लिफाफे तो बदल दिए
पर मजमून आज भी वही है
ओ कलम के सिपाही, प्रथम प्रेरणा मेरी
और क्या क्या कहूँ तुमसे
बस समझ लो
अमर हो गए तुम और तुम्हारी कृतियाँ
समाज कि इन विकृतियों के साथ
सदा याद किये जाओगे किताबी पाठों में
शायद सदा यही लिखते रहेंगे हम
"वर्षों पूर्व लिखी ये कथाएं
आज भी समाज का दर्पण सी लगती हैं
सचमुच प्रेमचंद हीं कथा सम्राट है"
बहुत सुंदर .... छोटी सी रचना में प्रेमचंद को काफी समेटा है ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
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कल शाम से नेट की समस्या से जूझ रहा था। इसलिए कहीं कमेंट करने भी नहीं जा सका। अब नेट चला है तो आपके ब्लॉग पर पहुँचा हूँ!
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आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
सूचनार्थ!
बेहतरीन...
जवाब देंहटाएंसच में प्रेमचंद जी जैसा कथाकार मिलना नामुमकिन है।
बहुत सुन्दर ...
जवाब देंहटाएंबहुत बेहतरीन....
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
बहुत सुन्दर... प्रेमचंद को बहुत सुन्दर रचना में अभिव्यक्त किया आपने....
जवाब देंहटाएंसादर बधाई..
वाह क्या बात है .पात्र बदलें हैं हालात नहीं .ठंड से अब भी महानगरों में लोग मरतें हैं .वो नन्ने हाथ ज़हरीला कचरा बीनतें हैं ,जिनके हाथ कलम होनी थी .आहलुवालिया आंकड़े गिनातें हैं .रोज़ आर्थिक वृद्धि दिखलाते हैं .एंटीला धारावी का मुंह चिढाती है .....यहीं कहीं हैं प्रेम चंद ...
जवाब देंहटाएंbehatrin aur adhbut
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