शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

ज़ेर-ए-लब भी हम शिकायत कर ना सके


दर्द-ए-दिल कागज़ पर हम रचते रहें
वे खुश होकर पढ़ते, तारीफ़ करते रहे 
                                                                         
कह कह कर कातिलाना हमारी गजलों को 
हँस के तारीफों से क़त्ल हमारा करते रहें

कसीदे पढ़ते रहें हम उनकी अदाओं के 
वे बस कलम की कारसाजी पर मरते रहे 

कायल थे वे हमारी हीं दास्तान-ए-दर्द के 
तभी तो फ़सुर्दगी के आलम भेंट करते रहे

ज़ेर-ए-लब भी हम शिकायत कर ना सके
पर वे तो भरे बज्म में भी तंज़ कसते रहे 

आशियाँ तो वे कहीं और हीं बसा चुके थे 
और हम दर पे उनके इंतज़ार करते रहें 

सोचा मर जाएँ उनके संग-ए-आस्तां पर 
 क्या करें उनकी रुसवाइयों से डरते रहे