शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

आखिर कब तक ?

हमारे देश में हमेशा से असमानता को हटाये जाने का प्रयास होता रहा है लेकिन यह 'असमानता' जाने कबतक हमारे देश के अस्तित्व से चिपकी रहेगी ? कब तक भेद भाव का सामना करना पड़ेगा समाज के विभिन्न वर्गों को ? कभी जातियता , कहीं लिंग तो कभी अमीरी और गरीबी का भेद भाव, खैर इन विषयों पर तो अक्सर विचार विमर्श होते हीं रहते हैं पर अक्षमता और सक्षमता के आधार पर भी भेद भाव होते रहते हैं लेकिन इस विषय पर चर्चाएँ भी काफी कम होती हैं |


 अभी हाल हीं का एक उदाहरण ले लीजिये जब जीजा घोष को हवाई जहाज में चढ़ के बैठ जाने के बाद सिर्फ इसलिए उतार दिया गया क्यूंकि वो एक अक्षम महिला हैं और उस जहाज का चालक उत्प्रभ तिवारी चाहता था कि उन्हें उतार दिया जाए | ये तो वही रंग भेद वाली जैसी बात हो गयी ना, या कहें उससे भी बढ़ कर, क्यूंकि गांधी जी को जब गोरों के डब्बे से उतारा गया था उस वक़्त अश्वेत लोगों के लिए अलग डब्बे होते थे रेल गाडी में, और इस बात की खबर भी होती थी उन्हें, कि उनके लिए अलग डब्बे निर्धारित किये गए हैं यहाँ तो वो भी नहीं है | यह दुर्व्यवहार की घटना महज जीजा घोष के साथ हीं नहीं हुई अपितु आये दिन अक्षम व्यक्तियों को ऐसे भेद भावों का सामना करना पड़ता है | 


महिला सशक्तिकरण, समाज में महिलाओं की हिस्सेदारी और भागीदारी की बात तो आज कल चर्चा-ए-आम है और उन्ही चर्चाओं में अक्सर कुछ वाक्यांशों का प्रयोग किया जाता है जैसे 'औरत कोई वस्तु नहीं' या 'औरत सिर्फ एक शरीर नहीं' ये बातें महज औरत नहीं बल्की हर इंसान पर लागू होती हैं | किसी भी इंसान के लिए वस्तु या बेजान शरीर मान कर किया गया व्यवहार उतना हीं कष्टकारी होता हैं | बेशक इंसान का मतलब केवल सक्षम व्यक्ति नहीं होता | विकलांगता प्रमाण पत्र धारी व्यक्ति भी कोई वस्तु नहीं जिसे किसी की भी मर्ज़ी से कहीं से भी हटा दिया जाए | विकलांग व्यक्ति मात्र एक विकृत शरीर नहीं वो भी एक इंसान है जिसमे सोचने की समझने की सुख दुःख महसूस करने की क्षमता है | जीवन के कदम कदम पर जब किसी विकलांग व्यक्ति को ऐसे भेद भावों का सामना करना पड़ता है तो एक आम इंसान की तरह उसका भी दिल दुखता है उसकी भी भावनाएं जख्मी होती हैं क्यूंकि उसके भी दिल में आम इंसान के जैसे हीं जज्बात होते हैं | 


जीजा घोष जैसी घटनाएं ना सिर्फ उस पीड़ित व्यक्ति के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाती हैं बल्की हज़ारों अक्षम लोगों के आत्मबल को तोड़ देती हैं | अपनी शारीरिक अक्षमता के बावजूद खुद को सामाजिक  मानदंडो पर सक्षम साबित कर देने के बावजूद भी जब किसी को आत्मसम्मान के साथ जीने का हक नहीं मिलता तो इसे मानवीय अधिकारों का हनन नहीं तो और क्या कहेंगे? ऐसी घटनाएं मात्र मानवीय नहीं अपितु कानूनी अधिकारों का भी हनन है | जीजा घोष इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ सेरेब्रल पाल्सी  की विकलांगता अध्ययन की अध्यक्षा हैं और उनके साथ हुआ यह दुर्व्यवहार साफ़ तौर पर हमारे समाज की पिछड़ी हुई मानसिकता को दर्शाता है | जब हमारे देश के इतने पढ़े लिखे और तथाकथित समझदार लोगों के बीच ऐसी घटनाएं होती हैं तो एक बार ध्यान अपनी शिक्षा प्रणाली पर जरुर जाता है क्यूंकि कहते हैं 'विद्या ददाति विनयम' , उत्प्रभ तिवारी जैसे लोगों को कैसी विद्या दी गयी है जिसमे विनय है हीं नहीं ? ऐसी शिक्षा का क्या फायेदा जो एक मानव के भीतर मानवीयता को हीं ना जगा पाए? 


ऐसी परिस्थितियों में कई सवाल मन में दस्तक देते हैं | आखिर कब तक शारीरिक रूप से अक्षम लोगों को अपना स्वाभिमान खोकर जीना पड़ेगा?कब आएगी वो संवेदनशीलता हमारे समाज में जब इंसान को इंसान के रूप में देखा जाएगा? कब आएगा वो दिन जब हर किसीको उसका अधिकार मिल पायेगा ? आखिर कब?  
       

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें