सोमवार, 31 जनवरी 2011



तितली सी उड़ न सकूँ 
बागों में जा न सकूँ 
फूलों से रिश्ता नहीं 
पतझड़ में मैं हूँ पली 
दरिया सी बह न सकूँ 
ठहरी भी रह न सकूँ 
सागर से नाता नहीं 
पहाड़ों पे मैं हूँ पली 
चिड़ियों सी उड़ न सकूँ 
खुल के मैं गा न सकूँ 
गगन से नाता नहीं 
धरती पे मैं हूँ पली 
ज्योति सी जलती रही 
खुद हीं पिघलती रही 
तम से है नाता मेरा 
उससे हीं बचती रही 
फूलों सी खिलती रहीं 
काटों में हंसती रही 
इश्वर से नाता मेरा 
उसपे हीं चढ़ती रही 

11 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुंदर प्रस्तुति....
    प्यारी कविता

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  2. बहुत ही सुंदर प्रस्तुति धन्यवाद.

    मेरी नई पोस्ट 1 2 2011 को आएगी

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  3. सुंदर प्यारी प्रस्तुति......

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  4. आलोकिता मन की उड़ान पर लगाम मनुष्य के बस मैं नहीं और मन का भ्रमर दशो दिशाओ की सुरभि चुरा लेना चहता हैं प्रतीकात्मक रूप से कविता की महत्वकांक्षा उर्जदायी ही हैं पर यही महत्वकांक्षा जीवन की जीवन्तता के लिए अवश्यम्भावी भी हैं
    बहुत स्नेह

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  5. फूलों सी खिलती रहीं
    कांटो में हंसती रही....
    वाह बेहतरीन प्रस्‍तुति।

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  6. सीधे सादे शब्दों में सुंदर कविता , बधाई

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