तितली सी उड़ न सकूँ
बागों में जा न सकूँ
फूलों से रिश्ता नहीं
पतझड़ में मैं हूँ पली
दरिया सी बह न सकूँ
ठहरी भी रह न सकूँ
सागर से नाता नहीं
पहाड़ों पे मैं हूँ पली
चिड़ियों सी उड़ न सकूँ
खुल के मैं गा न सकूँ
गगन से नाता नहीं
धरती पे मैं हूँ पली
ज्योति सी जलती रही
खुद हीं पिघलती रही
तम से है नाता मेरा
उससे हीं बचती रही
फूलों सी खिलती रहीं
काटों में हंसती रही
इश्वर से नाता मेरा
उसपे हीं चढ़ती रही
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति....
जवाब देंहटाएंप्यारी कविता
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंमेरी नई पोस्ट 1 2 2011 को आएगी
सुंदर प्यारी प्रस्तुति......
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंआलोकिता मन की उड़ान पर लगाम मनुष्य के बस मैं नहीं और मन का भ्रमर दशो दिशाओ की सुरभि चुरा लेना चहता हैं प्रतीकात्मक रूप से कविता की महत्वकांक्षा उर्जदायी ही हैं पर यही महत्वकांक्षा जीवन की जीवन्तता के लिए अवश्यम्भावी भी हैं
जवाब देंहटाएंबहुत स्नेह
फूलों सी खिलती रहीं
जवाब देंहटाएंकांटो में हंसती रही....
वाह बेहतरीन प्रस्तुति।
बहुत प्यारी कविता ....
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर कविता।
जवाब देंहटाएंwaah.....
जवाब देंहटाएंbahut khub...
सीधे सादे शब्दों में सुंदर कविता , बधाई
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जवाब देंहटाएंबेहतरीन पोस्ट लेखन के लिए बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है - पधारें - ठन-ठन गोपाल - क्या हमारे सांसद इतने गरीब हैं - ब्लॉग 4 वार्ता - शिवम् मिश्रा