शनिवार, 4 दिसंबर 2010

एक दास्ताँ


 उन भुली बिसरी बातों में
खोई हूँ तुम्हारी यादों में
बीते थे वो सावन मेरे
बैठ के डाली पर तेरे
तुम्ही पर तो था प्यारा घोंसला मेरा
तुम्हारे हीं दम से था बुलंद हौंसला मेरा
तुम्ही पर रह मैंने चींचीं  कर उड़ना सीखा
जीवन की हर मुश्किल से लड़ना सीखा
काट कर कँहा ले गए तुम्हे इंसान ?
बन गए हैं ये क्यूँ हैवान ?
मुझे रहना पड़ता है इनके छज्जों पर
जीना पड़ता है हर पल डर डर कर 
मैंने तो खैर तुम पर कुछ साल हैं गुजारे
पर कैसे अभागे हैं मेरे बच्चे बेचारे
कुछ दिन भी वृक्ष पर रहना उन्हें नसीब न हुआ
कुदरती जीवन शैली कभी उनके करीब न हुआ
काश! वो दिन फिर लौट आये
हरे पेड़ पौधे हर जगह लहराए

16 टिप्‍पणियां:

  1. पर्यावरण जैसे ज़रूरी विषय पर आपका लेखन सार्थक है

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  2. ज़रूरी विषय पर
    बढ़िया प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.
    ढेर सारी शुभकामनायें.

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  3. यही ज़िन्दगी की त्रासदी है गया वक्त लौट कर नही आता मगर उसे पाने की चाह खत्म नही होती……………सुन्दर संदेश देती रचना।

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  4. अच्छी कविता के लिये बधाई स्वीकारें।

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