मंगलवार, 16 नवंबर 2010

जीवन पथ

था एक अन्जाना अजनबी सा रास्ता
जहाँ न किसी से किसी का कोई वास्ता
अचानक एक नारी आई भीड़ से निकलकर
गोद में एक प्यारे से शिशु को लेकर
गोद से आया वह शिशु उतरकर
कदम बढाया माँ की ऊँगली पकड़कर
जमीन पर गिर गया वह लड़खड़ाकर
माँ ने कुछ  साहस दिया उसे उठाकर
चलते चलते उसने चलना सिख लिया
मासुम मुस्कान से माँ का ह्रदय जीत लिया
जीवन पथ पर एक मोड़ आया तभी
जिसके बारे में उसने सोचा न था कभी
माँ बोली जा जीवन पथ पर खोज ले मंजिल का पता
व्यर्थ तेरा जन्म नहीं दूनिया को इतना दे बता
जीवन के इस पथ पर अकेले हीं तुझे चलना है
यह एक संग्राम अकेले हीं तुझे लड़ना है
इस तरह और भी कुछ समझा बुझा कर
कहा उसने जा पुत्र अब देर न कर
सुगम थी राह , वह आगे बढ़ने लगा
निर्भीक, निडर सा वह आगे चलने लगा
मंजिल की राह होती इतनी आसान नहीं
इस बात का था उसे अनुमान नहीं
वह मार्ग अब दुर्गम होने लगा
साहस भी उसका खोने लगा
सामने माँ का चेहरा मुस्कुराने लगा
आगे बढ़ने की हिम्मत बढ़ाने लगा
फिर से आगे बढ़ने लगा ताकत बटोरकर
समस्याएँ आने लगीं और बढ़चढ़  कर
ठोकर खाकर अब वह नीचे गिर पड़ा
कुछ याद कर फिर से हो गया खड़ा
खुद हीं बोला आत्मविश्वास से भर कर
अब रुकना नहीं मुझे थककर
देखो पथ पर अग्रसर उस पथिक को
शक्ति पुत्र, साहस के बेटे, धरती के तनय को
भयंकर धुप अंधड़ और वर्षा उसने सब सहा
दामिनी से खेला, संकटों को झेला पर आगे बढ़ता रहा
कुछ साथी भी बने उसके इस राह में
संकटों को छोड़ा,तो कोई ठहर गए वृक्ष की छांह में
सीखा उसने मिलता नहीं कोई उम्र भर साथ निभाने को
यहाँ तो मिलते हैं राही बस मिल के बिछड़ जाने को
उस साहसी मन के बली को
तृष्णा मार्ग से डिगा न सकी
उस सयंमी चरित्र के धनि को
विलासिता भी लुभा न सकी
मंजिल पर ध्यान लगाय वह आगे बढ़ता रहा
मन को बिना डिगाए  संकटों से लड़ता रहा
आखिर जीवन में वह शुभ दिन आ हीं गया
वह पथिक अपने पथ की मंजिल पा हीं गया
सफलता उसके कदम चूमने लगी
खुशियाँ चारों ओर झूमने लगीं
कल तक थे अन्जान, आज उससे पहचान बनाने लगें
सम्मान का सम्बन्ध तो कोई ईर्ष्या का रिश्ता निभाने लगे
सबने देखा सफलता को उसका चरण गहते हुए
न देखा किसी ने मुश्किलें उसे सहते हुए
आज जो वह पथिक मंजिल तक आया है
भाग्य का नहीं उसने कर्म का फल पाया है
संसार का तो यही नियम चलता आया है
यूँहीं नहीं सबने कर्म को भाग्य से बली बताया है

सोमवार, 15 नवंबर 2010

'''''''''''''वसंत से पतझड़'''''''''''''''

देखो बागों का या यौवन आज खिल रहा
तभी तो मधुमास उसका आलिंगन कर रहा
नव पुष्पों से बागों का श्रृंगार हो रहा
तभी तो बसंत का दिल धड़क रहा
सुन्दर सुन्दर पुष्प आज खिल रहे
भँवरे आकर मधुर गुंजन कर रहे
पुष्प सुगंध चहु दिशा में फैला रहे
तभी तो तितलियों के झुण्ड दौड़े आ रहे
रूप रंग गंध सब का मज़ा  लेने को
मनोरम दृश्य को स्मृति में भर लेने को
मानव भी दौड़ा चला आया
बागों का रूप देखकर ललचाया
कल बागों में जब यौवन न होगा
मधुमास का तब आलिंगन न होगा
पुष्पों का श्रृंगार जब टूट जायेगा
वसंत बागों से तब रूठ जायेगा
सारे पुष्प जब मुरझा जायेंगे
भौंरे कहीं न नजर आयेंगे
पुष्पों में जब सुगंध न होगा
आसपास तब तितलियों का झुण्ड न होगा
मानव भी फूलों को रौंद चला जायेगा
उन बेचारों की तरफ उसका ध्यान न जायेगा
बागों में भयानक सूनापन तब छाएगा
पतझड़ का मौसम उसके समीप जब आएगा
                                               आलोकिता .....

रविवार, 14 नवंबर 2010

बालदिवस की वो यादें..........................

आज १४ नवम्बर है ना, चाचा नेहरु का जन्मदिन यानि की बालदिवस | आज मुझे अपने स्कूल की बहुत याद आ रही है, बहुत अधिक |यही तो वह दिन था जिस दिन बच्चा होना बुरा नहीं लगता था| बाकी साल के ३६४ दिन तो यही सोचा करते थे की हम बच्चे क्यूँ हैं ? काश की हम बड़े होते कितना अच्छा  होता | अरे यार अब तो हमारी हालत और ख़राब हो गयी है| ना बच्चों की तरह हमारी गलतियां ही माफ़ होती हैं ना बड़ो की तरह हम आज़ाद हीं हैं | खैर बचपन की बात करते हैं | कितना अच्छा लगता था वह बाल दिवस समारोह वो नाच गाना, भाषण बाजी, टॉफी चॉकलेट, वो चन्दन का टीका, वो गुलाब का फूल और सबसे अच्छा तो लगता था सालभर अपने इशारों पर नाचने वाले टीचर्स को ठुमका लगाते देखना | कई कारणों से मैं बहुत से स्कूलों में पढ़ी हूँ इसलिए मेरे पास तरह तरह की यादें हैं इस दिन की | हर जगह अलग अलग तरह से मनाया जाता था बालदिवस |बचपन में बच्चा होना तो बुरा लगता हीं था पर उससे भी बुरा लगता था बड़ों का ये मानना की बच्चों की जिन्दगी में कोई टेंशन नहीं होता | अजी हमारे पास भी तरह तरह के टेंशन हुआ करते थे | जब मैं ६ क्लास में पढ़ती थी मम्मी की इसी बात से मुझे गुस्सा आया था की बच्चों को टेंशन हीं नहीं होता | अब मैं कैसे कहती की हमारे सबसे बड़े टेंशन तो आप बड़े लोग हीं हो | मैं बड़े शालीन बच्चे की तरह चुपचाप वहाँ से चली गयी पर मैंने सोच लिया था की मुझे बच्चों को इन्साफ दिलाना है और इन लोगो की ग़लतफ़हमी को दूर करना है मैंने एक कविता लिखी और सचमुच उस दिन माँ मानगयी की बच्चों के पास भी टेंशन होता है| हाँ मैंने बड़ों के टेंशन होने वाली बात का जिक्र नहीं किया इतनी बेवकूफ थोड़े न थी मैं | दोस्तों का रूठना, पेंसिल का टूटना, गेम में हारना, क्लास में मार खाना ये सब तो मम्मी की नजर में टेंशन था नहीं सो मैंने सिर्फ पढाई की टेंशन के बारे में
लिखा | बताऊँ वह कौन सी कविता थी
बस्ते के बोझ से दबा बचपन 
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उफ़ यह इतना भारी भरकम बस्ता 
बचों की हालत को किया इसने पस्ता
हालत पस्त हुआ इसे उठाते उठाते 
घर से स्कूल, स्कूल से घर लाते लाते 
इसे लेकर थके हुए से जब बच्चे स्कूल पहुचे 
आप ही बताएँ पढाई में भला उनका जी कैसे लगे ?
शाम को थके हरे बच्चे जब घर आते 
जल्दी से होमवर्क करने  में जुट जाते 
रात को सोते हैं इसी टेंशन में 
उठनाहै जल्दी हीं कल सुबह में 
अरे हाय! यह क्या हो गया 
बस्ते के बोझ में बचपन कहीं खो गया 
दूरस्थ शिक्षा लेने के कारण अब मेरे पास बस्ते का बोझ तो नहीं रहा ( ई- बुक्स से ही काम चल जाता है ) ना हीं होमवर्क का टेंशन पर बचपन तो खो ही गया न | वक्त को बढ़ने से कौन रोक सकता है ??? पर इसमें एक सकारात्मक बात भी है की मेरे बचपन का सपना जो अभी अधुरा है वह पूरा जरूर होगा | कौन सा सपना ? अरे वही बड़ा होने वाला सपना |
एक दिन हम बड़े बनेंगे एक दिन
मन में है विश्वास पूरा है विश्वास
 हम बड़े बनेंगे एक दिन

शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

वह आखिरी तश्वीर

वह आखिरी तश्वीर 
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नहीं सुनी मैंने किसी और कि जबानी 
यह तो है मेरी आँखों देखी कहानी 
अपने अकेलेपन से ऊबी हुई सी 
अनजाने ख्यालों में डूबी हुई सी 
उस दिन मैं  तन्हा छत पर खड़ी थी 
आंखे बस राहों पर गडी थी 
पहली बार उस दिन मैंने' उसकी' झलक पायी थी 
पड़ोस में रहने 'वह' और उसकी बूढी माँ आई थी 
मुझे मालूम नहीं क्या नाम था उसका 
दुर्बल,साँवला पर आकर्षक चेहरा था उसका 
खिड़की से एक दिन देखा उसे चित्र बनाते हुए 
बदरंग कागज़ पर बेजान तुली से जीवन सजाते हुए 
हाँ एक उम्दा कलाकार था वह 
शांत, संजीदा चित्रकार था वह 
उन मनमोहक चित्रों को देखने के लालच से 
उसके घर गई यूँ एक दिन  हीं बहाने से  
गजब का आकर्षण था उसकी सभी चित्रों में 
सचमुच जान भर दिया था उन बेजान चीजों में 
अपनी कृतियाँ दिखाता और बस मुस्कुराता जाता था 
मैं तारीफ करती पर वह तो बस हँसता जाता था 
उन चित्रों में ऐसी खोई नाम पूछने की भी सुध ना रही 
पाँच घंटे पता नहीं कैसे बस उन चित्रों में खोई रही 
जाते जाते मैंने कहा धन्य हैं ये हाथ जो बेजान चित्रों में जान डाल देते हैं 
पहली बार उसने कहा नहीं धन्य है वो इश्वर जो इन हाथों में कला देते हैं 
शायद घर पर मुझे उस दिन डांट पड़ी थी 
पूरे पाँच घंटे उस अजनबी के घर जो रही थी 
पहली बार डांट सुन मैं रोई नहीं थी 
मैं तो अब तक चित्रों में खोई हुई थी 
अगले दिन किसी के रुदन से मेरी नींद खुली थी 
पता चला उसकी माँ चिल्ला-चिल्ला कर रो रही थी 
मैंने सबको कहते सुना था, ये तो होना ही था 
कैंसर रोगी था उसे तो दुनिया से जाना ही था 
इस वज्रपात से मैं स्तब्ध खड़ी थी 
दुखी थी, किन्तु मैं रो भी न सकी थी 
व्यथित उस बूढी माँ को देखा तो कुछ याद आया 
उसका वह "आखिरी चित्र" आँखों में उतर आया 
बिल्कुल यही हाँ बिल्कुल यही दृश्य था उसमे 
आज भी मेरी यादों में जिन्दा है वो और वह आखिरी तश्वीर 
वह मार्मिक, हृदयविदारक, पीड़ा दायी आखिरी तश्वीर 
                .................आलोकिता 

गुरुवार, 11 नवंबर 2010


नमस्कार दोस्तों
हार्दिक स्वागत है आपका मेरे ब्लॉग पर | बहुत दिनों से सोचते सोचते आज मैंने ब्लॉग लिखना प्रारंभ किया है | ऐसा नहीं है कि क्या लिखुँ मैं समझ नहीं पाती दिक्कत यह है कि क्या क्या लिखुँ सोचकर उलझ जाती हूँ| आपने उस गाने को तो सुना हीं होगा
"मैं कहाँ जाऊं होता नहीं फैसला
एक तरफ उसका घर एक तरफ मयकदा "
शायर कि परेशानी यह है कि वह निर्णय नहीं कर पा रहा कि अपनी माशूका के घर जाए या फिर मयखाने ? ठीक वही हालत मेरी है कभी कोई बात अपनी तरफ मेरा ध्यान आकृष्ट करता है तो तो उसी छण किसी दूसरी बात का नशा मुझे अपनी तरफ खींचता है | चूँकि आज मैं पहली बार यंहा लिख रही हूँ तो सोचती हूँ अपने संछिप्त परिचय से ही शुरू करूँ | नाम तो आप जानते ही होंगे 'आलोकिता ' जिसका अर्थ है अँधेरे पथ को रौशन करने वाली |मेरी जिन्दगी सदा से एक खुली किताब रही है और दोस्तों कि इसमें  विशेष जगह रही है | कहते हैं वक्त के आगे बड़े बड़े नहीं टिक पाते| उसी वक्त कि आंधी ने एक तिनके की तरह उड़ा कर मुझे दोस्तों से दूर एक वीराने में फेंक दिया | आज जब अपने  अब तक के जीवन का सारांश लिखना चाहती हूँ तो मेरे जेहन में बस ये आठ पंक्तियाँ ही उभरतीं हैं |
"सपनों को हकीकत के खाक में मिलते देखा है |
चाहत को अपनी तड़प कर मरते देखा है |
अरमानों की चिता जली है हमारी |
ग़मों को खुशीकी झीनी चादर में लिपटे देखा है |
अश्क पीकर हमने मुस्कुराना सीखा है |
ग़मों के दलदल में हमने जीना सीखा है |
जीने क लिए हर पल मरते हैं हम |
खुशी की आहट से भी अब डरते हैं हम |"
उपरोक्त पंक्तिओं का एक- एक लफ्ज मेरे दिल से निकला है |सचमुच खुशी से डरती हूँ कि जाने ये छोटी सी खुशी अपने पीछे ग़मों का कितना बड़ा पहाड़ लेकर आ रहा है अपने पीछे मेरी खातिर |पर इसका मतलब यह कतई नहीं कि खुशियों कि तलाश हीं बंद कर दूँ |अपने अनुभव के आधार पर ही आपसे एक बात कहना चाहूंगी जिन्दगी में कितने भी गम आये सदा हंसते-मुस्कुराते रहिये इससे आपका दुःख ख़त्म तो नहीं होगा पर हाँ दुःख को सहने कि क्षमता जरूर मिलती है | रोने से उदास होने से शक्तियां क्षीण पड़ जाती है |बस आज इतना ही कहना चाहूंगी आगे अब अगली बार अपनी कवितायें लिखूंगी |