रविवार, 24 अप्रैल 2011

कैनवास



कैनवास पर चित्र बनाते हुए
बरबस याद आया बचपन
वो बचपन जब चित्र बनाना
पसंदीदा काम हुआ करता था
वो कथई सेब और
लाल गुलाबी सा आम हुआ करता था
वो ड्राइंग कॉपी हीं होती थी
हमारा खज़ाना
याद है अब भी मुझे
आते जाते हर मेहमान को
अपनी चित्रकारी दिखाना
गलती से आम को भूरा कर देना
और फिर "सडा हुआ है" बोल के
मैम से गुड ले लेना
याद आ गया वो बचपन जब
हर रंग अपनी मर्ज़ी के होते थे
गुलाबी बादलों से हरे रंग बरसते थे
चमकीली सी होती थी चिड़ियाँ
परियों के सतरंगी से बाल होते थे
नीला पहाड़ और पीला रास्ता था
हाँ सब रंग अपनी मर्ज़ी का था
दीवारों परदों पर भी
करती थी चित्रकारी
घर का कोई कोना अछूता न था
मेरी तुलिका के रंगों से
अजब गज़ब सी थी वो रंगीली दुनिया
और उस दुनिया के सपने
जब सोचती थी की जल्दी से बड़ी हो जाऊं
ताकि बुक जैसा सेम टु सेम
ड्राइंग बनाऊं
काश फिर से ऐसा कर पाऊं
कोना कोना अपनी तुलिका से रंग पाऊं
बुझे बुझे हैं कई चेहरे
होठों पर उनके
गुलाबी मुस्कान खिंच पाऊं
अँधेरे में घुटती जिंदगियों को
आशा के सतरंगी रंग से रंग दूँ
पराश्रित जीवों को
आत्मनिर्भरता का
सुनहरा रंग दूँ
जिसके पास जो भी रंग न हो
हर किसी को वो
प्यारा सा रंग दे दूँ
जीवन के काले धब्बों को
कमसकम सफ़ेद हीं कर दूँ
पर ...........नहीं ...............
शायद
इश्वर ने
सबकुछ मोम से रचा है
जिस पर मेरी तुलिका का रंग
चढ़ता हीं नहीं
चढ़ता हीं नही