शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

अमर हो गए तुम




गुज़रे तुझे इन गलियों से 
यूँ तो इक ज़माना गुज़र गया 
पर यकीं है इतना 
गर आये तो 
आज भी इन्हें पहचान लोगे 
चका चौंध तो कुछ बढ़ी है 
नज़रें तुम्हारी पर इनपे टिकती कहाँ थी ?
इन गलियों की वो अथाह वेदना 
जो नम कर जाती थीं तुम्हारी आँखें 
वो दर्द जो झकझोर देते थे तुम्हे 
कहीं अन्दर तक 
वे सब तो आज भी वही हैं 
पंच बनके परमेश्वर भले हीं 
कोई अब बनता ना हो 
शराबखाने की भट्टी में 
कई बुधियाओं के कफ़न 
आज भी जलते हैं 
वो दरिद्र कृषक, वो अन्नदाता हमारे 
जिनकी व्यथा तुम्हारी कलम रोया करती थी 
आज भी व्यथित हो आत्मदाह करते हैं 
होरी की मेहनत आज भी 
पकते हीं खेतो में लुट जाती है 
पूस की रातों में आज भी 
हल्कू ठिठुरता है 
वो होरी, वो हल्कू, वो धनिया, वो मुन्नी 
सारे सजीव पात्र बिलखते हैं 
आज भी इस रंगभूमि पर 
सफेदपोश रातों के सहजादे 
घूमते हैं बेदाग 
और आज भी 
दालमंडी में बैठी सुमन 
अकेली हीं बदनाम हो जाती है
तथाकथित तुम्हारे वंशजों ने 
लिफाफे तो बदल दिए 
पर मजमून आज भी वही है 
ओ  कलम के सिपाही, प्रथम प्रेरणा मेरी 
और क्या क्या कहूँ तुमसे 
बस समझ लो 
अमर हो गए तुम और तुम्हारी कृतियाँ 
समाज कि इन विकृतियों के साथ 
सदा याद किये जाओगे किताबी पाठों में 
शायद सदा यही लिखते रहेंगे हम 
"वर्षों पूर्व लिखी ये कथाएं 
आज भी समाज का दर्पण सी लगती हैं 
सचमुच प्रेमचंद हीं कथा सम्राट है"


बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

प्रथम वेलेंटाइन डे


गलतियाँ तो हर इंसान से होती हैं | कभी वक़्त गलत होता है तो कभी हालात, कभी इंसान गलत होता है तो कभी उसके जज्बात | पर बंधुओं जिन्दगी में कभी कभी ऐसा भी होता है भले हमसे कुछ गलत हो जाए पर वक़्त और हालात इतने सही होते हैं कि हर गलती सही हो जाती है, और ऐसा जब जब होता है तो कसम है ऊपर वाले की, बड़ा मज़ा आता है | अब देखिये आज सुबह सुबह अगर सही वक़्त पर मुझसे गलती नहीं हुई होती तो इतनी मज़ेदार बात मुझे पता ना चलती और आप इसे पढ़ ना रहे होते | 
दरअसल हुआ ये कि आज सुबह सुबह हर रोज़ की तरह एक शिष्ट आधुनिक छात्रा बन के मैंने बुक खोला........... वही हम सबका सार्वजनिक बुक 'फेसबुक' | जैसे हीं पहला पन्ना खोला हरे सिग्नल के साथ मेरी एक महिला मित्र नज़र आयीं, अभी कुछ महीने पहले हीं परिणय सूत्र में बंधी हैं  तो सोचा चलो आज की पढाई इनकी हीं जिन्दगी से शुरू कि जाए | मैंने फटाफट लिख दिया "क्या हाल चाल है?" जैसे हीं इंटर दबाया ऐसा हीं एक प्रश्न मेरे सामने भी उछल कर आया और प्रश्नकर्ता थे मेरे एक मित्र जिनकी उम्र(53) कि वजह से मैं कहती हूँ उनको चचा जी | अदब से मैंने सलाम ठोका और लिख दिया मज़े में हूँ | इधर मेरे प्रश्न का भी काफी लम्बा चौड़ा उत्तर आ चुका था, उसे पढ़ कर नज़रें किबोर्ड पर गड़ाई और फटाफट अपने असली मकसद पर आई "तो फर्स्ट वेलेंटाइन डे, गिफ्ट शिफ्ट कि बारिश हुई होगी ? क्या क्या मिला?? कुछ अनुभव हमारे साथ भी शेयर कर लो" इतना टाईप करके खटाक से इंटर दबाया और जवाब के लिए कम्प्यूटर स्क्रीन को देखा तो मेरे तो होश हीं उड़ गए, मुँह से निकला "हाय राम शब्द किसको कहने थे मुझको किसको समर्पित हो गए" | खुद को हीं गाली देने का मन हो रहा था, क्या सोचेंगे अब चचा जी? अच्छा अच्छा शरीफ बच्चा वाला इम्प्रेसन गया खटाई में, पूरी इज्जत का फालूदा बन गया | सोचा सौरी लिख के स्थिति समझाउं पर तबतक उधर से जवाब लिखा जा चुका था "ह्म्म्म पहली बार कोशिश तो थी वेलेंटाइन डे मनाने की पर  गिफ्ट ? जूतों की बारिश हुई थी" | जवाब पढ़ के मैं तो बिल्कुल हिल गयी चार सौ चालीस वाट का झटका लगा | जूतों की बारिश? इससे अधिक कुछ लिख ना सकी आगे उन्होंने ही सारा माजरा बताया | उन्होंने क्या क्या बताया अब मैं क्या बोलूँ चलिए पढ़ लीजिये उनकी कहानी उन्ही कि जुबानी उनके अपने शब्दों में ........... 
""मैंने ना कभी ऐसा सोचा था ना इस बार सोचता पर क्या कहें हमारी औरकुट फेसबुक की दुनिया में दोस्ती के लिए उम्र का कोई प्रतिबन्ध तो है नहीं, मैंने भी बहुत से कम उम्र के लोगों से भी दोस्ती कर रखी है उन्ही में है एक, तृषा कुछ तेईस चौबीस साल की होगी | अक्सर बात होती है उससे, अभी दस दिन से पीछे पड़ी थी वेलेंटाइन डे का क्या प्रोग्राम है ? मैंने कहा था कि ये हमारे उम्र के लोगों के लिए नहीं है तो कहने लगी प्यार के इज़हार में उम्र कहाँ से आ गया प्यार तो अज़र अमर है वगैरह वगैरह | मैं भी उसकी बातों में आ गया, सोचा सही हीं तो कह रही हैं | पेपर में, फेसबुक में जहाँ जहाँ मिला हर जगह से टिप्स पढ़ पढ़ के पूरी तैयारी कर ली ये भी ठान लिया कि कुछ भी हो जाए चौदह को झगडा बिल्कुल भी नहीं करूँगा | सबसे पहले तो रात को बारह बजे श्रीमती जी को जगाने की कोशिश की तो जोरदार झाड पड़ी "आपकी तरह आराम से आठ बजे तक सोते नहीं रहना है, मुझे भोर से हीं उठ के झाड़ू पोछा करना है रसोई का काम अलग से, ज़रा सी नींद लगी नहीं कि पता नहीं क्यूँ जगाने लगे " मैं चुपचाप सो गया सुबह उठा तो उसका मूड अच्छा था काफी खुद हीं शर्माती हुई सी आई और मुझे एक ख़ूबसूरत से पैक किया हुआ गिफ्ट देती हुई बोली " ए जी है...हैप्पी.......अम्मम्म......... आज जो है ना वही वाला डे जी, आप समझ गए ना मुझे बोलने में शर्म आ रही है" और हंसती हुई आँचल में मुँह छिपा लिया | उसे देख कर मुझे भी थोडा जोश आ गया मैंने बोला हाँ उसी लिए मैंने भी एक गिफ्ट ख़रीदा है और उसे मैंने वो नया जूता दिखाया जो मैंने ख़रीदा था, देखते हीं बिफर पड़ी अभी दो सेकेण्ड पहले नाज़ुक सी कली लग रही थी अचानक से अंगारा बन गयी | अब बताओ इसमें मेरी क्या गलती है अखबार में लिखा था 'अगर आप समझ नहीं पा रहे कि अपने साथी को क्या तोहफा दें, तो ध्यान दीजिये कि  उन्हें किस चीज़ की चाहत है, हो सकता है उन्होंने आपसे कुछ माँगा हो और आपने व्यस्तता की वजह से नज़र अंदाज़ कर दिया हो' मैंने भी सोचा तो पाया कई दिनों से वो रट रही थी "आपके जूते पुराने हो गए हैं नए ले लो लेलो" मैंने वही ले लिया तो अब उसके लिए गुस्सा हो गयी | इसके बाद वो हड़ताल पर चली गयी पर उसका हड़ताल हिन्दुस्तानी नहीं जापानी स्टाइल में होता है ज्यादा काम करने लगती है, नास्ते में रोटी पर रोटी डालती चली गयी और ऐसे मौके पर थाली में कुछ छोड़ना भी गुनाह है सात रोटियाँ खाने के बाद मुश्किल से उठ पाया | ऑफिस जाते वक़्त मैंने अपने  जूते  भी लौटा दिए दुकानदार से बहस हो गयी अलग | शाम को लौटते वक़्त बेटे का फोन आया मतलब साफ़ था सब जगह फोन करके खबर पहुँच चुकी थी कि मैं कितना ज़ालिम हूँ, बेदर्द हूँ सब कुछ हूँ | बेटे ने समझाया घर जा के मम्मी को मना लीजिये कहीं बाहर ले के जाइए | उसने फोन रखा तो बेटी का फोन आ गया क्या "पापा आप भी ना गज़ब हैं एक तो मम्मी के लिए कुछ लाये नहीं और उनका गिफ्ट खोल के देखा तक नहीं ? गलत बात है ना ?" सब के निर्देश सुनने के बाद घर जाने के रास्ते में सोच रहा था कहाँ ले जाऊं होटल जाने का कोई फायेदा नहीं पहले तो मुझे खाने नहीं देगी बी पी, कोलेस्ट्रोल, सुगर सबका नाम ले लेके, और मैं नहीं खाऊंगा तो खुद भी बिना खाए हीं वापस चली आएगी | सोचा घर पहुँच के पहले उसका तोहफा देखता हूँ है क्या | पता है उस सुन्दर से पैकेट में क्या निकला ? जूता वो भी आठ नंबर का जबकि मैं पहनता हूँ नौ नंबर | पूछने पर उसने कहा क्या! आठ नंबर!! ओह वो क्या है ना चश्मा मैं घर पर हीं भूल गयी थी तो आठ को नौ  पढ़ लिया होगा, जाके बदलना पड़ेगा वरना चार हज़ार डूब जायेंगे | सुबह वो शेरनी बनी थी अब दहाड़ने की बारी मेरी थी मै पूरी ताकत से चिल्लाया "क्या! चार हज़ार ? दिमाग तो ठीक है तुम्हारा ? अरे इतने महंगे जूते तो मैंने अपनी शादी में भी नहीं पहने | सुबह की शेरनी भीगी बिल्ली बनके खड़ी थी धीरे से बोली "स्कूटर निकालिए ना चल के बदल लेते हैं ऑटो से तो पचास रूपए लग जायेंगे, वो जो नया वाला मॉल खुला है ना वहीँ से लायी थी" | अब क्या कर सकता था स्कूटर से मॉल गए और वहाँ जा के पता चला मुझे तोहफे का मूल्य मालुम ना पड़े इसलिए उसने डब्बे पे से दाम वाले स्टीकर को हटा दिया था और कैश मेमो उसी दिन फेंक चुकी थी, मॉल की पॉलिसी के तहत अब उस माल को लौटाया नहीं जा सकता था | वो बेचारी तो पहले से हीं आत्मग्लानि के बोझ से दबी खड़ी थी और मैं चार हज़ार के झटके के बाद उस वक़्त कुछ कहने की स्थिति में नहीं था | मौन व्रत धारण किये हम दोनों घर आये और यूँही चार हज़ार के शोक में मौन व्रती हीं बने रह गए | यही रहा मेरे प्रथम वेलेंटाइन डे का अनुभव ""  

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

ज़ेर-ए-लब भी हम शिकायत कर ना सके


दर्द-ए-दिल कागज़ पर हम रचते रहें
वे खुश होकर पढ़ते, तारीफ़ करते रहे 
                                                                         
कह कह कर कातिलाना हमारी गजलों को 
हँस के तारीफों से क़त्ल हमारा करते रहें

कसीदे पढ़ते रहें हम उनकी अदाओं के 
वे बस कलम की कारसाजी पर मरते रहे 

कायल थे वे हमारी हीं दास्तान-ए-दर्द के 
तभी तो फ़सुर्दगी के आलम भेंट करते रहे

ज़ेर-ए-लब भी हम शिकायत कर ना सके
पर वे तो भरे बज्म में भी तंज़ कसते रहे 

आशियाँ तो वे कहीं और हीं बसा चुके थे 
और हम दर पे उनके इंतज़ार करते रहें 

सोचा मर जाएँ उनके संग-ए-आस्तां पर 
 क्या करें उनकी रुसवाइयों से डरते रहे 




शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

एहसास

खुले आसमान में कभी विचरता बावरे बादल सा एहसास 


तन्हाई के अंधेरों में छिपकर बरसता तन्हा सा एहसास 

वक़्त तो लगता नहीं किसी भी वक़्त को गुज़र जाने में 


जिद्द करके ठहर जाता मन में नन्हे बालक सा एहसास 

अपनों में गम में नम हो हीं जाती है सबकी आँखें

बांधता रिश्ते गैरों से भी रेशम के धागे सा एहसास

सुकून देता दिल की तड़प को और हजारों सपने भी

लूट लेता रातों की नींद कभी बेवफा मनमीत सा एहसास

भुला दें एहसासों को तो जिंदगी के कोई मायने नहीं

अनचाहे भी बज उठता है दर्द भरी कोई गीत सा एहसास

बुधवार, 9 नवंबर 2011

चाँद न आता





चाँद न आता जो अँधेरी रात न होती 



जिन्दगी में हमारी फिर वो बात न होती 

यूँ तो तब भी भटकता चाँद गगन में 

पर नज़रों से उसकी मुलाक़ात न होती 

उजाला हीं उजाला रहता जो जीवन में 

मय्यसर हमें तारों की बारात न होती 

लील न जाता यदि अँधियारा सूर्य को 

तो जगमगाते जुगनुओं की ज़ात न होती 

खोये न होते जो अँधेरे सन्नाटों में कभी

अपने हीं दिल से हमारी बात न होती 

चाँद न आता जो अँधेरी रात न होती 

जिन्दगी में हमारी फिर वो बात न होती 

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

बेटी हूँ


















सुन लो हे श्रेष्ठ जनों 
एक विनती लेकर आई हूँ 
बेटी हूँ इस समाज की 
बेटी सी हीं जिद्द करने आई हूँ 
बंधी हुई संस्कारों में थी 
संकोचों ने मुझे घेरा था 
तोड़ के संकोचों को आज 
तुम्हे जगाने आई हूँ 
बेटी हूँ 
और अपना हक जताने आई हूँ 
नवरात्रि में देवी के पूजन होंगे 
हमेशा की तरह 
फिर से कुवांरी कन्याओं के 
पद वंदन होंगे 
सदियों से प्रथा चली आई 
तुम भी यही करते आये हो 
पर क्या कभी भी 
मुझसे पूछा ?
बेटी तू क्या चाहती है ?
चाहत नहीं 
शैलपुत्री, चंद्रघंटा बनूँ 
ब्रम्ह्चारिणी या दुर्गा हीं कहलाऊं 
चाहत नहीं कि देवी सी पूजी जाऊं 
कुछ हवन पूजन, कुछ जगराते 
और फिर .....
उसी हवन के आग से 
दहेज़ की भट्टी में जल जाऊं 
उन्ही फल मेवों कि तरह 
किसी के भोग विलास  को अर्पित हो जाऊं
चार दिनों की चांदनी सी चमकूँ
और फिर विसर्जीत  कर दी जाऊं
नहीं चाहती
पूजा घर के इक कोने में  सजा दी जाऊं 
असल जिन्दगी कि राहों पर 
मुझको कदम रखने दो 
क्षमताएं हैं मुझमें 
मुझे भी आगे बढ़ने दो 
मत बनाओ इतना सहनशील की 
हर जुल्म चूप करके सह जाऊं 
मत भरो ऐसे संस्कार की 
अहिल्या सी जड़ हो जाऊं 
देवी को पूजो बेशक तुम 
मुझको बेटी रहने दो 
तुम्हारी थाली का 
नेह  निवाला कहीं बेहतर है
आडम्बर के उन फल मेवों से 
कहीं श्रेयष्कर है 
तुम्हारा प्यार, आशीर्वाद 
झूठ मुठ के उस पद वंदन से  

गुरुवार, 8 सितंबर 2011

मैं वहीँ मिलूंगी



परछाईं नहीं जो अँधेरे में खो जाऊं 
उमंग नहीं जो उदासी में सो जाऊं

रक्त की धारा सी  ह्रदय में रहती हूँ 
मैं अनवरत तुझमें हीं तो बहती हूँ

हूँ तुझमें हर पल भले स्वीकार न कर 
रहूंगी भी सदा भले अंगीकार न कर

अन्तःसलिला फल्गु सी बहती रहूंगी
ह्रदय से रेत हटाना मैं वहीँ मिलूंगी 

.......................................आलोकिता 

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

चलो झूठा हीं सही कोई फ़साना तो मिला



चलो झूठा हीं सही कोई फ़साना तो मिला
दूर हमसे जाने का अच्छा बहाना तो मिला

राहत चलो हमे इतनी तो दी जिन्दगी ने

हमे न सही तुम्हे कोई ठिकाना तो मिला

हम कदम कोई गर अब रहा नहीं तो क्या

बीते कल की यादों का नजराना तो मिला

कमसकम खाली हाथ तो न रही जिन्दगी

 ख़ुशी न मिले गम का खज़ाना तो मिला

ग़मों को ढाल के शब्दों में गुनगुनाते हैं 

चलो हमे अंदाज़ वो शायराना तो मिला  

गुरुवार, 11 अगस्त 2011

वह हादसा फिर सरे-आम हो गया















वह हादसा   फिर सरे-आम हो गया 

बेगुनाह था वह जो बदनाम हो गया
हौसलों की उसे कुछ कमी तो न थी 
कायर वो घोषित सरे-आम हो गया 

आगाज़ कभी  इतना बुरा भी न था 
न जाने कैसे ऐसा अंजाम हो गया ?

इक नाम था अब तक ध्रुव सा अटल  
लाखों की भीड़  में गुमनाम हो गया 

बना तो रहे थे वो गैरों की फेहरिस्त 
शुमार उसमे मेरा भी नाम हो गया 

वह हादसा   फिर सरे-आम हो गया 
बेगुनाह था वह जो बदनाम हो गया

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

जीवन की पगडंडियों पर

जीवन की पगडंडियों पर 
चलो कुछ ऐसे 
क़दमों के निशाँ 
शेष रह जाएँ 
तुम रहो न रहो 
दिलों में स्मृतियाँ 
शेष रह जाएँ 
एक बार हीं गुज़रना है 
इन राहों से 
और वक़्त संग 
सबको गुज़र जाना है 
गुज़रना हीं है तो 
क्यूँ न कुछ ऐसे गुजरें 
हमारे गुजरने का एहसास 
बहुतों के लिए 
विशेष हो जाये 
बने बनाये रास्ते 
ढूंढोगे कबतक ? 
लीक से हटकर 
नयी राहें गढ़ो
बुलंद कर लो 
हौंसले के दमपर
खुद को इतना 
बस धर दो पग जिधर 
दुनिया का रुख 
हो जाये उधर 
ठोकरें, असफलताएं भी आएँगी 
बस होकर इनसे रु-ब-रु
मंजिल की ओर बढ़ चलो 
पर ध्यान रहे 
छोड़ चलो 
कुछ क़दमों के निशाँ 
जीवन की पगडंडियों पर ..... 

गुरुवार, 26 मई 2011

ओ सृजक मेरे


यूँही मन में कुछ ख्याल आये और उन्हें लिखती चली गई कविता कुछ लम्बी हो गई |
वो कहते हैं 
पत्थरों की जुबाँ
नहीं होती 
पर तुम 
खूब समझते हो 
मेरी भाषा 
तो क्यूँ न 
दिल की बात 
तुमसे कह लूँ ?
कृतार्थ हूँ 
तुम्हारे हाथों में आ के 
तो क्यूँ न 
कृतज्ञता में
कुछ शब्द पुष्प 
अर्पित कर दूँ 
आह 
कितना विशाल था 
वह पर्वत 
टूटकर मैं 
जिससे गिरा था 
शिखर से 
लुढ़ककर 
मैं 
उसके तलवों में 
पड़ा था
देखता था  
कई राहियों को
आते जाते, 
कुछ निकलते 
कतरा के 
तो कई आते थे 
मतवाले 
झूमते गाते से 
अपनी मस्ती में 
खुद हीं 
ठोकर लगाते
मुझको 
औ कहते 
की ठोकर 
मैंने लगाई है
यूँ हीं 
होता बदनाम सदा 
मैं मूक पत्थर 
तुम्ही कहो 
क्या थी मेरी 
बिसात 
की ठोकरें 
लगता उन्हें ?
रहमत खुदा की 
जो नज़रें तुम्हारी 
मुझपर पड़ी 
और उन नज़रों में 
देखा मैंने 
अपना एक साकार रूप 
तुम्हारी 
अपेक्षाओं के साँचे में 
ढलना
बहुत कठिन है 
लेकिन 
साकार होने का सुख
इन कष्टों से 
बहुत बड़ा है 
और उसपर भी 
तुम्हारा 
स्नेहिल स्पर्श 
हर लेता है 
छैनी हथौड़े 
के प्रहारों से 
उत्पन्न हर कष्ट को 
पर कभी कभी 
व्याकुल 
कर जातीं हैं 
हथौड़े से घायल 
तुम्हारी उंगलियाँ 
और 
सजल से दो नैन 
मानव होकर 
मानव समाज से 
बिलकुल पृथक 
क्यूँ दीखते हो ?
ऐसा सोचता था  
कल हीं 
जाना मैंने 
पूर्वी सभ्यता 
और कला को 
ढोने वाले
तुम जैसे 
कारसाज़ 
पाश्चात्य लालित 
सभ्य
मानव-समाज 
का हिस्सा 
ना रहे 
लेकिन 
एक प्रश्न अब भी है 
मन में 
डरता हूँ 
जो साकार 
हो भी गया 
तो क्या चूका 
पाऊंगा 
तुम्हारे ............
नहीं 
एहसान कहकर
निश्छल स्नेह को 
कलंकित 
नहीं कर सकता 
लेकिन 
मान लो 
साकार न हो सका,
टूट गया मैं 
तो ???
एक बार 
बस एक बार 
सिने से लगाके 
संग मेरे 
रो लेना 
मेरे अवशेषों पर 
नेह नीर 
का एक कतरा 
तब भी तो 
दोगे ना ?
ओ सृजक मेरे