बुधवार, 9 नवंबर 2011

चाँद न आता





चाँद न आता जो अँधेरी रात न होती 



जिन्दगी में हमारी फिर वो बात न होती 

यूँ तो तब भी भटकता चाँद गगन में 

पर नज़रों से उसकी मुलाक़ात न होती 

उजाला हीं उजाला रहता जो जीवन में 

मय्यसर हमें तारों की बारात न होती 

लील न जाता यदि अँधियारा सूर्य को 

तो जगमगाते जुगनुओं की ज़ात न होती 

खोये न होते जो अँधेरे सन्नाटों में कभी

अपने हीं दिल से हमारी बात न होती 

चाँद न आता जो अँधेरी रात न होती 

जिन्दगी में हमारी फिर वो बात न होती 

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

बेटी हूँ


















सुन लो हे श्रेष्ठ जनों 
एक विनती लेकर आई हूँ 
बेटी हूँ इस समाज की 
बेटी सी हीं जिद्द करने आई हूँ 
बंधी हुई संस्कारों में थी 
संकोचों ने मुझे घेरा था 
तोड़ के संकोचों को आज 
तुम्हे जगाने आई हूँ 
बेटी हूँ 
और अपना हक जताने आई हूँ 
नवरात्रि में देवी के पूजन होंगे 
हमेशा की तरह 
फिर से कुवांरी कन्याओं के 
पद वंदन होंगे 
सदियों से प्रथा चली आई 
तुम भी यही करते आये हो 
पर क्या कभी भी 
मुझसे पूछा ?
बेटी तू क्या चाहती है ?
चाहत नहीं 
शैलपुत्री, चंद्रघंटा बनूँ 
ब्रम्ह्चारिणी या दुर्गा हीं कहलाऊं 
चाहत नहीं कि देवी सी पूजी जाऊं 
कुछ हवन पूजन, कुछ जगराते 
और फिर .....
उसी हवन के आग से 
दहेज़ की भट्टी में जल जाऊं 
उन्ही फल मेवों कि तरह 
किसी के भोग विलास  को अर्पित हो जाऊं
चार दिनों की चांदनी सी चमकूँ
और फिर विसर्जीत  कर दी जाऊं
नहीं चाहती
पूजा घर के इक कोने में  सजा दी जाऊं 
असल जिन्दगी कि राहों पर 
मुझको कदम रखने दो 
क्षमताएं हैं मुझमें 
मुझे भी आगे बढ़ने दो 
मत बनाओ इतना सहनशील की 
हर जुल्म चूप करके सह जाऊं 
मत भरो ऐसे संस्कार की 
अहिल्या सी जड़ हो जाऊं 
देवी को पूजो बेशक तुम 
मुझको बेटी रहने दो 
तुम्हारी थाली का 
नेह  निवाला कहीं बेहतर है
आडम्बर के उन फल मेवों से 
कहीं श्रेयष्कर है 
तुम्हारा प्यार, आशीर्वाद 
झूठ मुठ के उस पद वंदन से  

गुरुवार, 8 सितंबर 2011

मैं वहीँ मिलूंगी



परछाईं नहीं जो अँधेरे में खो जाऊं 
उमंग नहीं जो उदासी में सो जाऊं

रक्त की धारा सी  ह्रदय में रहती हूँ 
मैं अनवरत तुझमें हीं तो बहती हूँ

हूँ तुझमें हर पल भले स्वीकार न कर 
रहूंगी भी सदा भले अंगीकार न कर

अन्तःसलिला फल्गु सी बहती रहूंगी
ह्रदय से रेत हटाना मैं वहीँ मिलूंगी 

.......................................आलोकिता 

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

चलो झूठा हीं सही कोई फ़साना तो मिला



चलो झूठा हीं सही कोई फ़साना तो मिला
दूर हमसे जाने का अच्छा बहाना तो मिला

राहत चलो हमे इतनी तो दी जिन्दगी ने

हमे न सही तुम्हे कोई ठिकाना तो मिला

हम कदम कोई गर अब रहा नहीं तो क्या

बीते कल की यादों का नजराना तो मिला

कमसकम खाली हाथ तो न रही जिन्दगी

 ख़ुशी न मिले गम का खज़ाना तो मिला

ग़मों को ढाल के शब्दों में गुनगुनाते हैं 

चलो हमे अंदाज़ वो शायराना तो मिला  

गुरुवार, 11 अगस्त 2011

वह हादसा फिर सरे-आम हो गया















वह हादसा   फिर सरे-आम हो गया 

बेगुनाह था वह जो बदनाम हो गया
हौसलों की उसे कुछ कमी तो न थी 
कायर वो घोषित सरे-आम हो गया 

आगाज़ कभी  इतना बुरा भी न था 
न जाने कैसे ऐसा अंजाम हो गया ?

इक नाम था अब तक ध्रुव सा अटल  
लाखों की भीड़  में गुमनाम हो गया 

बना तो रहे थे वो गैरों की फेहरिस्त 
शुमार उसमे मेरा भी नाम हो गया 

वह हादसा   फिर सरे-आम हो गया 
बेगुनाह था वह जो बदनाम हो गया

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

जीवन की पगडंडियों पर

जीवन की पगडंडियों पर 
चलो कुछ ऐसे 
क़दमों के निशाँ 
शेष रह जाएँ 
तुम रहो न रहो 
दिलों में स्मृतियाँ 
शेष रह जाएँ 
एक बार हीं गुज़रना है 
इन राहों से 
और वक़्त संग 
सबको गुज़र जाना है 
गुज़रना हीं है तो 
क्यूँ न कुछ ऐसे गुजरें 
हमारे गुजरने का एहसास 
बहुतों के लिए 
विशेष हो जाये 
बने बनाये रास्ते 
ढूंढोगे कबतक ? 
लीक से हटकर 
नयी राहें गढ़ो
बुलंद कर लो 
हौंसले के दमपर
खुद को इतना 
बस धर दो पग जिधर 
दुनिया का रुख 
हो जाये उधर 
ठोकरें, असफलताएं भी आएँगी 
बस होकर इनसे रु-ब-रु
मंजिल की ओर बढ़ चलो 
पर ध्यान रहे 
छोड़ चलो 
कुछ क़दमों के निशाँ 
जीवन की पगडंडियों पर ..... 

गुरुवार, 26 मई 2011

ओ सृजक मेरे


यूँही मन में कुछ ख्याल आये और उन्हें लिखती चली गई कविता कुछ लम्बी हो गई |
वो कहते हैं 
पत्थरों की जुबाँ
नहीं होती 
पर तुम 
खूब समझते हो 
मेरी भाषा 
तो क्यूँ न 
दिल की बात 
तुमसे कह लूँ ?
कृतार्थ हूँ 
तुम्हारे हाथों में आ के 
तो क्यूँ न 
कृतज्ञता में
कुछ शब्द पुष्प 
अर्पित कर दूँ 
आह 
कितना विशाल था 
वह पर्वत 
टूटकर मैं 
जिससे गिरा था 
शिखर से 
लुढ़ककर 
मैं 
उसके तलवों में 
पड़ा था
देखता था  
कई राहियों को
आते जाते, 
कुछ निकलते 
कतरा के 
तो कई आते थे 
मतवाले 
झूमते गाते से 
अपनी मस्ती में 
खुद हीं 
ठोकर लगाते
मुझको 
औ कहते 
की ठोकर 
मैंने लगाई है
यूँ हीं 
होता बदनाम सदा 
मैं मूक पत्थर 
तुम्ही कहो 
क्या थी मेरी 
बिसात 
की ठोकरें 
लगता उन्हें ?
रहमत खुदा की 
जो नज़रें तुम्हारी 
मुझपर पड़ी 
और उन नज़रों में 
देखा मैंने 
अपना एक साकार रूप 
तुम्हारी 
अपेक्षाओं के साँचे में 
ढलना
बहुत कठिन है 
लेकिन 
साकार होने का सुख
इन कष्टों से 
बहुत बड़ा है 
और उसपर भी 
तुम्हारा 
स्नेहिल स्पर्श 
हर लेता है 
छैनी हथौड़े 
के प्रहारों से 
उत्पन्न हर कष्ट को 
पर कभी कभी 
व्याकुल 
कर जातीं हैं 
हथौड़े से घायल 
तुम्हारी उंगलियाँ 
और 
सजल से दो नैन 
मानव होकर 
मानव समाज से 
बिलकुल पृथक 
क्यूँ दीखते हो ?
ऐसा सोचता था  
कल हीं 
जाना मैंने 
पूर्वी सभ्यता 
और कला को 
ढोने वाले
तुम जैसे 
कारसाज़ 
पाश्चात्य लालित 
सभ्य
मानव-समाज 
का हिस्सा 
ना रहे 
लेकिन 
एक प्रश्न अब भी है 
मन में 
डरता हूँ 
जो साकार 
हो भी गया 
तो क्या चूका 
पाऊंगा 
तुम्हारे ............
नहीं 
एहसान कहकर
निश्छल स्नेह को 
कलंकित 
नहीं कर सकता 
लेकिन 
मान लो 
साकार न हो सका,
टूट गया मैं 
तो ???
एक बार 
बस एक बार 
सिने से लगाके 
संग मेरे 
रो लेना 
मेरे अवशेषों पर 
नेह नीर 
का एक कतरा 
तब भी तो 
दोगे ना ?
ओ सृजक मेरे   

शनिवार, 14 मई 2011

हर मोड़ पर



पाँव लड़खड़ाते......... हर मोड़ पर
मिलते हैं चौराहे....... हर मोड़ पर
कदम दर कदम... बढती जिन्दगी
ठिठक सी जाती है.... हर मोड़ पर
कई विकल्प......... मुँह ताकते से
खड़े रहते हैं............ हर मोड़ पर
असमंजस में डालते......... चौराहे
एक फैसला होता..... हर मोड़ पर
मिल जाते....... राहों में कई लोग
बिछड़ हीं जाता. कोई हर मोड़ पर
छुटी परछाईं.... राहों में जाने कहाँ
तन्हाई मिलती है.... हर मोड़ पर
नई आशाएं जगतीं..... कभी कभी
बिखरते हैं सपने..... हर मोड़ पर
यूँ भी जिन्दगी... कुछ आसां नहीं
कठिनाइयाँ बढती... हर मोड़ पर
बुनती नियति....... नित नई राहें
उलझती जिन्दगी.... हर मोड़ पर

सोमवार, 9 मई 2011

मुझे आदत नहीं.... यूँ हार जाने की

आदत हो चुकी हैं गम  को पी जाने की 
आती नहीं अदा... खुशियाँ छिपाने की 

हंस जो देती हूँ.......... जरा खुश होकर 
नज़र लग ही जाती है....... ज़माने की 

टिक गया है दर पे....... गम कुछ ऐसे 
बात करता ही नहीं अब तो  जाने की 

अंधेरो में बहुत जी चुकी.... अब तक
अबकी कोशिश हैं... रौशनी लाने की 

कभी अब न कांपेंगे......... मेरे कदम 
ठान ली है मैंने  कुछ कर दिखाने की  

ग़मों ने सोचा था.. की मैं टूट जाउंगी 
मुझे आदत नहीं..... यूँ हार जाने की 

गुरुवार, 5 मई 2011

राजकुंवर हीं तो आया है



जाने कब...... बूंदों सा बरसोगे मेरे आँगन में 
जाने कब.......फूलों सा  हंसोगे मेरे आँगन में 
इंतज़ार है मुझे अब...... हर पल उस घडी का 
जब होगा आगमन तुम्हारा.... मेरे आँगन में 

माँ तुम हर पल कुछ यूँ हीं तो सोचा करती थी
जाने क्यूँ... उस अंजाने की प्रतीक्षा करती थी 
देख ना माँ,...वह अजनबी तेरे घर आ हीं गया 
तू स्वागत में जिसके तैयारी किया करती थी 

देख न माँ वह सजीला राजकुंवर हीं  आया है 
बैंड-बाजा-बारात सब कुछ तो संग में लाया है 
माँ अब भी क्यूँ हैं इतनी तेरी ये आंखे  सजल 
तेरा वर्षों का ख्वाब अब पूरा होने को आया है 

कुछ क्षण ही बरसेंगी अब ये बूंदे तेरे आँगन में
कुछ पल ही मुस्कुराएंगे ये पुष्प तेरे आंगन में
ले जायेगा साथ फिर वो तेरे जिगर के टुकड़े को
छूट जाएँगी वो बरसों की यादें ही तेरे आंगन में 

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

आशा की किरण



आसमान के काले आँचल में
टाँका गया एक सितारा हूँ मैं
उस आँचल का साथ ताउम्र
बदा नहीं है भाग्य में
अक्सर हीं
टूट कर झर जाता हूँ
और टूटता देख मुझे
हँस पड़ता है पूरा विश्व
आँखें मिचे
मांगता दुआएं
ख्वाबों के पुरे होने की
अश्रु भरे नैनों से
देखता हूँ उन्हें
शायद
ये मुझसे भी
बदनसीब होंगे
तभी तो मांगते
मुझसे दुआएं
और मैं अभागा
कैसे कह दूँ
कैसे
कह दूँ उन्हें
की
मैं तो खुद किसी का
टुटा ख्वाब हूँ
आसमान ने ठुकराया
मुझको
देखता हूँ
धरा की फैली बाहें
पर
अफ़सोस
आज तक न पा सका मैं
वो स्नेहिल गोद
रास्ते में हीं
हो जाता हूँ नष्ट
बिखर जाता है
मेरा पूरा अस्तित्व
हाँ पर एक ख़ुशी है
नाश में भी मेरे है
एक सृजन
मेरी अस्त होती
जिन्दगी
दे जाती है
लाखों दिलों में
एक नयी
आशा की किरण