बुधवार, 1 जून 2011
गुरुवार, 26 मई 2011
ओ सृजक मेरे
यूँही मन में कुछ ख्याल आये और उन्हें लिखती चली गई कविता कुछ लम्बी हो गई |
वो कहते हैं पत्थरों की जुबाँ
पर तुम
खूब समझते हो
मेरी भाषा
तो क्यूँ न
दिल की बात
तुमसे कह लूँ ?
कृतार्थ हूँ
तुम्हारे हाथों में आ के
तो क्यूँ न
कृतज्ञता में
कुछ शब्द पुष्प
अर्पित कर दूँ
आह
कितना विशाल था
वह पर्वत
टूटकर मैं
जिससे गिरा था
शिखर से
लुढ़ककर
मैं
उसके तलवों में
पड़ा था
देखता था
कई राहियों को
आते जाते,
कुछ निकलते
कतरा के
तो कई आते थे
मतवाले
झूमते गाते से
अपनी मस्ती में
खुद हीं
ठोकर लगाते
मुझको
औ कहते
की ठोकर
मैंने लगाई है
यूँ हीं
होता बदनाम सदा
मैं मूक पत्थर
तुम्ही कहो
क्या थी मेरी
बिसात
की ठोकरें
लगता उन्हें ?
रहमत खुदा की
जो नज़रें तुम्हारी
मुझपर पड़ी
और उन नज़रों में
देखा मैंने
अपना एक साकार रूप
तुम्हारी
अपेक्षाओं के साँचे में
ढलना
बहुत कठिन है
लेकिन
साकार होने का सुख
इन कष्टों से
बहुत बड़ा है
और उसपर भी
तुम्हारा
स्नेहिल स्पर्श
हर लेता है
छैनी हथौड़े
के प्रहारों से
उत्पन्न हर कष्ट को
पर कभी कभी
व्याकुल
कर जातीं हैं
हथौड़े से घायल
तुम्हारी उंगलियाँ
और
सजल से दो नैन
मानव होकर
मानव समाज से
बिलकुल पृथक
क्यूँ दीखते हो ?
ऐसा सोचता था
कल हीं
जाना मैंने
पूर्वी सभ्यता
और कला को
ढोने वाले
तुम जैसे
कारसाज़
पाश्चात्य लालित
सभ्य
मानव-समाज
का हिस्सा
ना रहे
लेकिन
एक प्रश्न अब भी है
मन में
डरता हूँ
जो साकार
हो भी गया
तो क्या चूका
पाऊंगा
तुम्हारे ............
नहीं
एहसान कहकर
निश्छल स्नेह को
कलंकित
नहीं कर सकता
लेकिन
मान लो
साकार न हो सका,
टूट गया मैं
तो ???
एक बार
बस एक बार
सिने से लगाके
संग मेरे
रो लेना
मेरे अवशेषों पर
नेह नीर
का एक कतरा
तब भी तो
दोगे ना ?
ओ सृजक मेरे
शनिवार, 14 मई 2011
हर मोड़ पर
पाँव लड़खड़ाते......... हर मोड़ पर
मिलते हैं चौराहे....... हर मोड़ पर
कदम दर कदम... बढती जिन्दगी
ठिठक सी जाती है.... हर मोड़ पर
कई विकल्प......... मुँह ताकते से
खड़े रहते हैं............ हर मोड़ पर
असमंजस में डालते......... चौराहे
एक फैसला होता..... हर मोड़ पर
मिल जाते....... राहों में कई लोग
बिछड़ हीं जाता. कोई हर मोड़ पर
छुटी परछाईं.... राहों में जाने कहाँ
तन्हाई मिलती है.... हर मोड़ पर
नई आशाएं जगतीं..... कभी कभी
बिखरते हैं सपने..... हर मोड़ पर
यूँ भी जिन्दगी... कुछ आसां नहीं
कठिनाइयाँ बढती... हर मोड़ पर
बुनती नियति....... नित नई राहें
उलझती जिन्दगी.... हर मोड़ पर
सोमवार, 9 मई 2011
मुझे आदत नहीं.... यूँ हार जाने की
आदत हो चुकी हैं गम को पी जाने की
आती नहीं अदा... खुशियाँ छिपाने की
हंस जो देती हूँ.......... जरा खुश होकर
नज़र लग ही जाती है....... ज़माने की
टिक गया है दर पे....... गम कुछ ऐसे
बात करता ही नहीं अब तो जाने की
अंधेरो में बहुत जी चुकी.... अब तक
अबकी कोशिश हैं... रौशनी लाने की
कभी अब न कांपेंगे......... मेरे कदम
ठान ली है मैंने कुछ कर दिखाने की
ग़मों ने सोचा था.. की मैं टूट जाउंगी
मुझे आदत नहीं..... यूँ हार जाने की
गुरुवार, 5 मई 2011
राजकुंवर हीं तो आया है
जाने कब...... बूंदों सा बरसोगे मेरे आँगन में
जाने कब.......फूलों सा हंसोगे मेरे आँगन में
इंतज़ार है मुझे अब...... हर पल उस घडी का
जब होगा आगमन तुम्हारा.... मेरे आँगन में
माँ तुम हर पल कुछ यूँ हीं तो सोचा करती थी
जाने क्यूँ... उस अंजाने की प्रतीक्षा करती थी
देख ना माँ,...वह अजनबी तेरे घर आ हीं गया
तू स्वागत में जिसके तैयारी किया करती थी
देख न माँ वह सजीला राजकुंवर हीं आया है
बैंड-बाजा-बारात सब कुछ तो संग में लाया है
माँ अब भी क्यूँ हैं इतनी तेरी ये आंखे सजल
तेरा वर्षों का ख्वाब अब पूरा होने को आया है
कुछ क्षण ही बरसेंगी अब ये बूंदे तेरे आँगन में
कुछ पल ही मुस्कुराएंगे ये पुष्प तेरे आंगन में
ले जायेगा साथ फिर वो तेरे जिगर के टुकड़े को
छूट जाएँगी वो बरसों की यादें ही तेरे आंगन में
कुछ पल ही मुस्कुराएंगे ये पुष्प तेरे आंगन में
ले जायेगा साथ फिर वो तेरे जिगर के टुकड़े को
छूट जाएँगी वो बरसों की यादें ही तेरे आंगन में
सोमवार, 25 अप्रैल 2011
आशा की किरण
आसमान के काले आँचल में
टाँका गया एक सितारा हूँ मैं
उस आँचल का साथ ताउम्र
बदा नहीं है भाग्य में
अक्सर हीं
टूट कर झर जाता हूँ
और टूटता देख मुझे
हँस पड़ता है पूरा विश्व
आँखें मिचे
मांगता दुआएं
ख्वाबों के पुरे होने की
अश्रु भरे नैनों से
देखता हूँ उन्हें
शायद
ये मुझसे भी
बदनसीब होंगे
तभी तो मांगते
मुझसे दुआएं
और मैं अभागा
कैसे कह दूँ
कैसे
कह दूँ उन्हें
की
मैं तो खुद किसी का
टुटा ख्वाब हूँ
आसमान ने ठुकराया
मुझको
देखता हूँ
धरा की फैली बाहें
पर
अफ़सोस
आज तक न पा सका मैं
वो स्नेहिल गोद
रास्ते में हीं
हो जाता हूँ नष्ट
बिखर जाता है
मेरा पूरा अस्तित्व
हाँ पर एक ख़ुशी है
नाश में भी मेरे है
एक सृजन
मेरी अस्त होती
जिन्दगी
दे जाती है
लाखों दिलों में
एक नयी
आशा की किरण
रविवार, 24 अप्रैल 2011
कैनवास
कैनवास पर चित्र बनाते हुए
बरबस याद आया बचपन
वो बचपन जब चित्र बनाना
पसंदीदा काम हुआ करता था
वो कथई सेब और
लाल गुलाबी सा आम हुआ करता था
वो ड्राइंग कॉपी हीं होती थी
हमारा खज़ाना
याद है अब भी मुझे
आते जाते हर मेहमान को
अपनी चित्रकारी दिखाना
गलती से आम को भूरा कर देना
और फिर "सडा हुआ है" बोल के
मैम से गुड ले लेना
याद आ गया वो बचपन जब
हर रंग अपनी मर्ज़ी के होते थे
गुलाबी बादलों से हरे रंग बरसते थे
चमकीली सी होती थी चिड़ियाँ
परियों के सतरंगी से बाल होते थे
नीला पहाड़ और पीला रास्ता था
हाँ सब रंग अपनी मर्ज़ी का था
दीवारों परदों पर भी
करती थी चित्रकारी
घर का कोई कोना अछूता न था
मेरी तुलिका के रंगों से
अजब गज़ब सी थी वो रंगीली दुनिया
और उस दुनिया के सपने
जब सोचती थी की जल्दी से बड़ी हो जाऊं
ताकि बुक जैसा सेम टु सेम
ड्राइंग बनाऊं
काश फिर से ऐसा कर पाऊं
कोना कोना अपनी तुलिका से रंग पाऊं
बुझे बुझे हैं कई चेहरे
होठों पर उनके
गुलाबी मुस्कान खिंच पाऊं
अँधेरे में घुटती जिंदगियों को
आशा के सतरंगी रंग से रंग दूँ
पराश्रित जीवों को
आत्मनिर्भरता का
सुनहरा रंग दूँ
जिसके पास जो भी रंग न हो
हर किसी को वो
प्यारा सा रंग दे दूँ
जीवन के काले धब्बों को
कमसकम सफ़ेद हीं कर दूँ
पर ...........नहीं ...............
शायद
इश्वर ने
सबकुछ मोम से रचा है
जिस पर मेरी तुलिका का रंग
चढ़ता हीं नहीं
चढ़ता हीं नही
गुरुवार, 21 अप्रैल 2011
ग़ज़ल (भोजपुरी )
कहीं भूख से केहू............ बच्चा रो रहल बा
कहीं रोजे अन्न............. बर्बाद हो रहल बा
पापियन के अब स्वर्ग नरक के चिंता नइखे
नोटवा के गंगा में.... पाप कुल्हे धो रहल बा
खड़ा बा जौन बनके नेता......, सबके मसीहा
धरम के नाम पे. फसाद के बिया बो रहल बा
बेईमनिये के त अब......... सगरो सासन बा
इमान्दारे के मुँह............ काला हो रहल बा
अब आपन अजदियो त..... बूढ़ा गइल बिया
संसद के गलिआरा में लोकतंत्र खो रहल बा
###############################
हिंदी अनुवाद
******************
कहीं भूख से......... कोई बच्चा रो रहा है
तो कहीं रोज़....... अन्न बर्बाद हो रहा है
पापी को स्वर्ग नर्क की...... चिंता न रही
नोटों की गंगा में...... पाप सारे धो रहा है
खड़ा है जो बनके नेता..... सबका मसीहा
धर्म के नाम पर फसाद के बीज बो रहा है
बेईमानी का हीं........ हर तरफ शासन है
इमानदारों का हीं..... मुँह काला हो रहा है
बूढी हो चुकी है अब... आज़ादी भी अपनी
लोकतंत्र संसद की गलिओं में खो रहा है
कहीं रोजे अन्न............. बर्बाद हो रहल बा
पापियन के अब स्वर्ग नरक के चिंता नइखे
नोटवा के गंगा में.... पाप कुल्हे धो रहल बा
खड़ा बा जौन बनके नेता......, सबके मसीहा
धरम के नाम पे. फसाद के बिया बो रहल बा
बेईमनिये के त अब......... सगरो सासन बा
इमान्दारे के मुँह............ काला हो रहल बा
अब आपन अजदियो त..... बूढ़ा गइल बिया
संसद के गलिआरा में लोकतंत्र खो रहल बा
###############################
हिंदी अनुवाद
******************
कहीं भूख से......... कोई बच्चा रो रहा है
तो कहीं रोज़....... अन्न बर्बाद हो रहा है
पापी को स्वर्ग नर्क की...... चिंता न रही
नोटों की गंगा में...... पाप सारे धो रहा है
खड़ा है जो बनके नेता..... सबका मसीहा
धर्म के नाम पर फसाद के बीज बो रहा है
बेईमानी का हीं........ हर तरफ शासन है
इमानदारों का हीं..... मुँह काला हो रहा है
बूढी हो चुकी है अब... आज़ादी भी अपनी
लोकतंत्र संसद की गलिओं में खो रहा है
केहू - कोई
रहल बा - रहा है
रोजे - रोज
नइखे - नहीं है
कुल्हे (कुले भी कहा जाता है ) - सब, सारे
जौन - जो
बिया - बीज,(बिया स्त्रीलिंग के लिए 'है' के रूप में भी प्रयोग होता है इस रचना में दोनों 'बिया' का प्रयोग है )
बेईमनिये - बेईमानी का हीं
सगरो - सब ओर, हर जगह
सासन - शासन
आपन - अपनी या अपना
अजदियो - आज़ादी भी
बूढ़ा गइल बिया - बूढी हो चुकी है
गलिआरा - किसी बिल्डिंग के अन्दर बना हुआ संकरा रास्ता
रोजे - रोज
नइखे - नहीं है
कुल्हे (कुले भी कहा जाता है ) - सब, सारे
जौन - जो
बिया - बीज,(बिया स्त्रीलिंग के लिए 'है' के रूप में भी प्रयोग होता है इस रचना में दोनों 'बिया' का प्रयोग है )
बेईमनिये - बेईमानी का हीं
सगरो - सब ओर, हर जगह
सासन - शासन
आपन - अपनी या अपना
अजदियो - आज़ादी भी
बूढ़ा गइल बिया - बूढी हो चुकी है
गलिआरा - किसी बिल्डिंग के अन्दर बना हुआ संकरा रास्ता
शनिवार, 9 अप्रैल 2011
खौफनाक रक्तिम मंजर
टुटा निराशा का प्याला
ख्वाब की हाला छलक गयी
सोचा बटोर लूँ ख्वाबों को
तो काँच सा कुछ चुभ गया
रक्त बहा और
आँसू भी टपक पड़े
ख्वाब, निराशा, रक्त,आँसू
सब मिलके एक हुए
कुछ और नहीं अब कमरे में
बस यही मंजर बचा है
रक्तरंजित निराशा पर
बहता मेरा ख्वाब
और मेरे
खून में लथपथ से अश्क
जाने कब ओझल होगा
आँखों से
ये खौफनाक
रक्तिम मंजर
गुरुवार, 7 अप्रैल 2011
तुम्हे..... मेरी याद कभी आती तो होगी
ये जज्बाती हवा वहाँ भी जाती तो होगी
घबराते न हों भले हीअंधेरों में अब तुम
उजाले में अपनी परछाई डराती तो होगी
तन्हाई मैं गुमसुम तुम होते होगे जब भी
मेरी अल्हड़ बातें तब याद आती तो होगी
कितना बोलती होतुम कहा करते थे न
और अब मेरी ख़ामोशी सताती तो होगी
छूकर मेरी गजलों को.गुजरती हैं जो हवा
तुम्हारे कानों में कुछ गुनगुनाती तो होगी
अश्कों के मेघ बन आँखों में छा से जाते हो
ये बारिश तुम्हारे मन को भिगाती तो होगी
तुम्हारी शर्मीली मुस्कान पर मेरा हँस देना
वो यादें शायद तुम्हे भी.. चिढाती तो होगी
तुम चाहे मानो या न मानो पर यकीं हैं मुझे
यूंही मेरी याद अक्सर तुम्हे आती तो होगी
मंगलवार, 5 अप्रैल 2011
हर शख्श..... बेगाना यहाँ
हर शख्श..... बेगाना यहाँ
हर चेहरा..... अंजाना यहाँ
बरसो में... पहचाना जिसे
वो भी है... अफसाना यहाँ
रास न आई.. दोस्ती मुझे
दोस्त कोई... रहा ना यहाँ
क्यूँ न गई.... चुपचाप वो
छोड़ गई.... बहाना यहाँ
न पूछना की हुआ क्या है
आम है बदल जाना यहाँ
हर शख्श..... बेगाना यहाँ
हर चेहरा..... अंजाना यहाँ
शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011
उलझी लकीरें
जिन्दगी है ये मेरी या कोई पहेली हैं
बहारों में खिलती हैं कलियाँ सुना है
हाथों कि लकीरें ये क्यूँ ऐसी उलझी
अंधेरों ने मुझको... कुछ ऐसे है घेरा
मगर ये सूरज फिर से होगा जवाँ जब
उलझी लकीरों में... कुछ तो लिखा हैं
दरारों में किरणे कभी.. जाती हीं होंगी
तनहाइयों कि महफ़िलें सजती हीं होंगी
हजारों में बैठी, क्यूँ तन्हा अकेली हैं
बहारों में खिलती हैं कलियाँ सुना है
काँटों नेही जाने क्यूँ मुझको चुना है
हाथों कि लकीरें ये क्यूँ ऐसी उलझी
समझने में इसको.. हूँ मैं भी उलझी
अंधेरों ने मुझको... कुछ ऐसे है घेरा
छूटा है मुझसे वो... साया भी मेरा
मगर ये सूरज फिर से होगा जवाँ जब
फिर होगा दर पे यारों का कारवां तब
उलझी लकीरों में... कुछ तो लिखा हैं
ये हम ना समझे पर.. समझा खुदा हैं
दरारों में किरणे कभी.. जाती हीं होंगी
शैल शिखरों पे बहारे भी आती हीं होंगी
तनहाइयों कि महफ़िलें सजती हीं होंगी
पहेलियाँ जिन्दगी की सुलझती हीं होंगी
सोमवार, 28 मार्च 2011
ओ शीतल शीतल पवन के झोकों
**********************************
ओ शीतल शीतल पवन के झोकों
बहने दो संग में..... आज न रोको
शीतलता मुझे खुद में भर लेने दो
कुछ पल, मन शीतल हो लेने दो
अपनी मोहकता में मुझे खोने दो
आज.... बाँहों के झूलों में सोने दो
जी करता है , मैं बदली बन जाऊं
ले जाये जहाँ , तेरे संग उड़ जाऊं
छू आऊं मैं चाँद को...... कुछ पल
अनंत में खो जाऊं ....... कुछ पल
ओ शीतल शीतल पवन के झोकों
बहने दो संग में..... आज न रोको
जी करता, मैं भी पवन बन जाऊं
हर दामन को, शीतल कर जाऊं
कहो तो रज कण सी उड़ चलूँ मैं
जिस ठौर ले जाओ, वहीँ चलूँ मैं
या की.. पुष्प पराग सी झर जाऊं
वातावरण , सुवासित कर जाऊं
तरु पात सी डोलूँ मैं तेरे छुवन से
या उनिग्ध हो जाऊं तेरे छुवन से
ओ शीतल शीतल पवन के झोकों
बहने दो संग में..... आज न रोको
.................................. ..................आलोकिता
बुधवार, 23 मार्च 2011
मैंने जीना सीख लिया है
हे इश्वर!
माँ के आँचल से निकलकर
कुल चार कदम चली थी मैं
तुने मुझे क्यूँ नजरों से गिरा दिया?
दरिया में गिरा, भवरों में फंसा दिया
उबरना चाहा उबरने न दिया
डूबना चाहा तो डूबने न दिया
सबकुछ तुझको हीं तो सौंपा था
तुझपर हीं सबकुछ छोड़ दिया
पर तुने
तुने क्या किया ?
पुर्णतः घायल हो चुकी थी मैं
न ताकत न हिम्मत थी की
उठकर मैं चल भी सकूँ
चलने का नाम हीं जिन्दगी है
और मैं जिन्दगी घिसट रही थी
अनायास आँखें फलक पर
टिक जाती थी
दुआ में दोनों हीं कर
उठ जाते थे
बेबसी से मैं दामन
फैला देती थी
हे ईश्वर, या खुदा
अपने पास बुला ले
ऐ गगन लील ले मुझको
धरती खुद में समां ले
पर था कौन सुनने वाला यँहा ?
नक्कारखाने में तूती कि
आवाज़ थी मैं
अश्कों के अपने दरिया में
बस बह रही थी मैं
कब तक? आखिर कब तक?
बेरुखी सहती मैं
फ़रियाद हीं करना छोड़ दिया
तुने मुख मोड़ा था
अब मैंने मुख मोड़ लिया
अरमानो को जलाकर
रौशनी लाना सीख लिया
अश्कों कि दरिया में
कागज़ कि कश्ती बहा
दिल बहलाना सीख लिया
तेरे अभिशाप में भी
मैंने जीना सीख लिया
मैंने जीना सीख लिया है
माँ के आँचल से निकलकर
कुल चार कदम चली थी मैं
तुने मुझे क्यूँ नजरों से गिरा दिया?
दरिया में गिरा, भवरों में फंसा दिया
उबरना चाहा उबरने न दिया
डूबना चाहा तो डूबने न दिया
सबकुछ तुझको हीं तो सौंपा था
तुझपर हीं सबकुछ छोड़ दिया
पर तुने
तुने क्या किया ?
पुर्णतः घायल हो चुकी थी मैं
न ताकत न हिम्मत थी की
उठकर मैं चल भी सकूँ
चलने का नाम हीं जिन्दगी है
और मैं जिन्दगी घिसट रही थी
अनायास आँखें फलक पर
टिक जाती थी
दुआ में दोनों हीं कर
उठ जाते थे
बेबसी से मैं दामन
फैला देती थी
हे ईश्वर, या खुदा
अपने पास बुला ले
ऐ गगन लील ले मुझको
धरती खुद में समां ले
पर था कौन सुनने वाला यँहा ?
नक्कारखाने में तूती कि
आवाज़ थी मैं
अश्कों के अपने दरिया में
बस बह रही थी मैं
कब तक? आखिर कब तक?
बेरुखी सहती मैं
फ़रियाद हीं करना छोड़ दिया
तुने मुख मोड़ा था
अब मैंने मुख मोड़ लिया
अरमानो को जलाकर
रौशनी लाना सीख लिया
अश्कों कि दरिया में
कागज़ कि कश्ती बहा
दिल बहलाना सीख लिया
तेरे अभिशाप में भी
मैंने जीना सीख लिया
मैंने जीना सीख लिया है
सोमवार, 21 मार्च 2011
अपनी हीं हालात पे रोने लगी हूँ
दुनिया की भीड़ में खोने लगी हूँ
मधुता....... न रही अब जीवन में
कुछ कडवी........ सी होने लगी हूँ
ज़हन में.......बस गयी हैं जो यादें
अश्कों से..... उनको धोने लगी हूँ
यूं तो खुश थी.... ख्वाबों में पहले
अब तो .....उनमे भी रोने लगी हूँ
थी बहुतों से..अपनी बाबस्तगी
यूं तो खुश थी.... ख्वाबों में पहले
अब तो .....उनमे भी रोने लगी हूँ
थी बहुतों से..अपनी बाबस्तगी
अब अजनबी सी.... होने लगी हूँ
दर्द-ए-दिल..... जब्त कर रही थी
चुप्पी में खुद हीं कैद होने लगी हूँ
अपनी हीं हालात पे रोने लगी हूँ
दुनिया की भीड़ में खोने लगी हूँ
दर्द-ए-दिल..... जब्त कर रही थी
चुप्पी में खुद हीं कैद होने लगी हूँ
अपनी हीं हालात पे रोने लगी हूँ
दुनिया की भीड़ में खोने लगी हूँ
रविवार, 13 मार्च 2011
जीस्त का मज़ा ,कभी हम भी लिया करते थे
एक ज़माना था की हँस हँस के जिया करते थे
खुशी की एक आहट को....भी तरसते हैं अब
वक़्त था औरों को भी खुशियाँ दिया करते थे
चलते चलते अब गाम ... लरजते हैं मगर
बज़्म में रक्स मुसलसल भी किया करते थे
ख़ुशी के चिथड़ों पर.... पैबंद लगाते हैं हरदम
यूं भी था कभी गैरों के जख्म सिया करते थे
इस कदर टूट कर बिखरे हैं आज हम खुद ही
कभी औरों को भी .... हौंसला दिया करते थे
जीस्त का मज़ा कभी हम भी लिया करते थे
एक ज़माना था की हँस हँस के जिया करते थे
शनिवार, 12 मार्च 2011
हर बार नया एक रूप है तुझमे
हर बार नया एक रूप है तुझमे
हर बार नयी एक चंचलता
हर सुबह प्रेम की धूप है तुझमे
हर साँझ पवन सी शीतलता
हर शब्द निकलकर मुख से तेरे
मन वीणा झंकृत कर देते
मुस्कान बिखर कर लब पे तेरे
ह्रदय को हर्षित कर देते
सात सुरों का साज़ है तुझमे
जल तरंग सी है मधुता
गीतों का हर राग है तुझमे
कविता सी है मोहकता
हर बार नया एक रूप है तुझमे
हर बार नयी एक चंचलता
हर सुबह प्रेम की धूप है तुझमे
हर साँझ पवन सी शीतलता
रविवार, 6 मार्च 2011
बुधवार, 2 मार्च 2011
निशब्दता
न कहो कुछ आज, .....चुप हीं रहना
न सुनना हैं मुझे..... न कुछ हैं कहना
लफ्जों से परे मौन जगत में खोने दो
न रोको अश्कों को, जी भरके रोने दो
जैसे विचरता है जलद नील गगन में
चलो विचरें हम भी स्वप्न आँगन में
भूलकर कुछ देर को गतिहीन हो जाएँ
चलो ऐसा करे मौन जगत में खो जाएँ
चलो सूने में निहारे निर्बाध नयनों से
ढूंढे स्वयं का अस्तित्व भी अंतर्मन से
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