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बुधवार, 21 मार्च 2012

बिहार अपनी नज़रों से . . . . .

 छलछलाई हुई आँखों के साथ जब आज अपने मन की बातें आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ तो मुझे शब्द हीं नहीं मिल रहे उनको व्यक्त करने के लिए . . . । कहाँ से शुरू करूँ और कहाँ विराम दूँ अपने शब्दों को ? कैसे समेट लूँ अपने सारे जज्बातों को चंद शब्दों में ? अपने सौवें वर्षगाँठ पर अपने बच्चों का उत्साह देखकर जो हर्ष की अनुभूति  हो रही है उस को व्यक्त कर पाना बहुत मुश्किल है । अपने सौ वर्ष की जिन्दगी में बहुत से उत्थान पतन देखे हैं मैंने , कई अनुभवों से गुज़रा हूँ । एक बात दिल में कई दिनों से दफ्न है जो आज व्यक्त कर देना चाहता हूँ । भले हीं मेरे नाम के साथ 'पिछड़ा और गरीब राज्य' का तमगा हो लेकिन गर्व है मुझे इस बात का की अभावों में जीने के बावजूद भी मेरे बच्चे किसी से कम नहीं और इस बात को सिद्ध करके उन्होंने हमेशा मुझे गौरवान्वित किया है । हर्ष होता है ये कहते हुए की पूरे देश को अगर कोई राज्य सबसे अधिक आई.ए.एस और आई.पी.एस देता है तो वो हूँ मैं "बिहार"। मेरे इन सपूतों से तो सभी वाकिफ हैं पर इनके अलावा और भी मेरी गोदी के लाल हैं जो खुद अंधेरों में होने के बावजूद औरों की जिंदगियों को आलोकित करते हैं । कई ऐसे हैं जिनके हाथ स्वयं खाली हैं पर फिर भी उनका रोम रोम समाज को समर्पित है । हर किसी से मिलवा पाना संभव नहीं पर आइये मिलवाता हूँ आपको मेरी अनंत गहराइयों के कुछ अनमोल मोतियों से . . . . .

आज पुरे विश्व में एक दुसरे से आगे बढ़ने के लिए गलाकाट प्रतिस्पर्धा मची हुई है , लेकिन ऐसे भी लाल हैं मेरी माटी के जो खुद आगे बढ़ तो सकते हैं पर मानवता उनके स्वार्थ पर हावी होती है और वो पीछे मुड़ कर दूसरों को आगे बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं । उदाहरण के तौर पर बनियापुर, सारण का छबीस वर्षीय शशांक और चकदरिया, वैशाली का सत्ताईस वर्षीय मनीष दोनों मित्र आई.आई.टी (क्रमशः दिल्ली और खड़गपुर )से पास होने के बाद मोटे वेतन को ठुकराकर लौट आये गाँव की राह पर और फ़ार्म एंड फार्म्स नाम से संस्था खोली जो न  सिर्फ गरीब किसानो को वैज्ञानिक खेती के गुर बताती हैं बल्कि उनकी उपज को बाज़ार भी मुहैया कराती हैं । सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, बांका, पूर्णिया और रोहतास जिला के सत्तर गावों के किसानो का एक सशक्त नेटवर्क तैयार किया है उन्होंने और आज उनके पास आई.आई.टी और एन.आई.टी के छात्र इंटर्नशिप के लिए आते हैं । ऐसा हीं एक उदाहरण है दरभंगा का चालीस वर्षीय यतीन के सुमन जो विदेश में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने के बाद लन्दन की नब्बे हज़ार पौंड और फाइव स्टार होटल में रहने का प्रस्ताव ठुकरा कर अपने प्रदेश के विकास और समृधि के लिए लौट आया और पूरी कर्मठता से इस काम में जुटा है । ऐसे हीं एक डॉक्टर दंपत्ति प्रभात दास एवं सौम्या दास हैं जिन्होंने विदेश में रह कर पढ़ाई की लेकिन फिर भी बड़े शहरों और देशों के सुख सुविधाओं को त्याग कर दरभंगा जैसी छोटी जगह पर आकर न सिर्फ लोगों को स्वास्थ सुविधाएं उपलब्ध करायी बल्कि अपनी कमाई का दो बटे सात हिस्से को सामजिक कार्यों में लगाते हैं ।आरा के साठ वर्षीय डॉक्टर एस के केडिया गरीब जन्मांध बच्चों का न सिर्फ खुद मुफ्त इलाज करते हैं बल्कि विदेश से अपने खर्चे पर विशेषज्ञ डॉक्टर को बुलाकर भी बच्चों की मदद करते हैं ।  
  
इन सब के पास तो कुछ था समाज को देने के लिए लेकिन ऐसे भी अनगिनत नामों की सूचि है जिनकी झोली खाली है फिर भी इतना कुछ दिया और दे रहे हैं समाज को जिन्हें शायद उनका समाज कभी भी लौटा न पाए । भागलपुर के पचपन वर्षीय वशिष्ठ मल्लाह जिनका काम मछली पकड़ना है और एक मात्र कला जो उन्हें आती है वो है तैराकी और उसी के दम पर कई घरों के मसीहा बन चुके हैं । सुबह चार बजे से देर रात तक गंगा में डूबने वालों की जिन्दगी बचाते हैं और जरुरत पड़ने पर उन्हें अस्पताल तक अपने खर्चे से पहुंचाते हैं ।रिंग बाँध, सीतामढ़ी के सडसठ वर्षीय बद्रीनारायण कुंवर कुष्ठ रोग की वजह से इनकी आँखे चली गयी, गाँव से निष्कासित कर दिए गए, दोनों बच्चे असमय चल बसे लेकिन इन्होने कुष्ठ कॉलोनी के हर बच्चे को अपना मान कर वहाँ ज्ञान की ज्योति जलाई । डुमरा, समस्तीपुर के पैंतालिस वर्षीय राजकिशोर गोसाईं जिनके पास मात्र दस डिसमिल जमीन थी जिसे उन्होंने गाँव के बच्चो की खातिर स्कुल बनवाने के लिए दान कर दिया । दोनों पैरों से विकलांग राजकिशोर जी डोरी-धागा बेच कर बड़ी मुस्किल से अपना जीवन यापन करते हैं पर उन्हें  अपनी ज़मीन का कोई अफ़सोस नहीं । जमालपुर, मुंगेर के पैंतालिस वर्षीय रेलवे तकनीशियन सहदेव पासवान ने हजारों बच्चे जिनकी पढाई अधूरी छुट गयी उनको मुफ्त पुस्तकालय दे कर आगे बढ़ने का राह दिखाया और इस पुस्तकालय की वजह से साढ़े तीन सौ से अधिक बच्चे सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं के अच्छे पदों पर आसीन हैं । समस्तीपुर के बयासी वर्षीय राम गक्खर पच्चीस वर्षों से लगातार हर रोज़ गरीब बच्चों को खिला रहे हैं ताकि वो भीख मांगने को विवश न हो, पापी पेट के लिए चोरी करना न सीखें । अगरवा मोतिहारी की पैंतीस वर्षीय सुगंधी देवी के जीविकोपार्जन का एक मात्र साधन है सदर अस्पताल के पास की उसकी छोटी सी चाय दूकान लेकिन खुद आर्थिक तंगी के बावजूद वो अस्पताल के बेसहारा मरीजों को हर संभव मदद देती हैं भले उसके लिए उन्हें उधार लेकर खुद क्यूँ न चुकाना पड़े । पुपरी, सीतामढ़ी के क्रमशः सैंतीस और चौंतीस वार्स के दिलीप कुमार तेम्हुआवला और अरुण कुमार तेम्हुआवला ने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया है कालाजार पीड़ितों के लिए । डुमरी गया के चौंतीस वर्षीय सच्चिदानंद सिंह उर्फ़ नंदा जी ने नक्सल बस्ती में मुफ्त स्कुल खोल कर हथियारों वाले हाथों में शिक्षा की मशाल थमा दी, महिलाओं के लिए ट्रेनिंग कैम्प चलाते हैं और जल्द हीं पटना के यारपुर डोमखाना में भी स्कुल खोलने वाले हैं । मो. निशांत, मो.शमशाद और मो. सुहैल जैसे भी लोग हैं जो बिना किसी अपेक्षा के मृत व्यक्तियों का साथ निभाते हैं , जी हाँ मृत व्यक्तियों का ऐसे मृत लोग जिनका दुनिया में कोई नहीं हर उस लावारिश लाश का अंतिम संस्कार  करते हैं ये लोग अपने खर्चे पर । मुसलमानों को सुपुर्द-ए-ख़ाक और हिन्दुओं का उनकी रीती रिवाज के अनुसार अंतिम संस्कार किया जाता है जिसमें इनकी मदद इनके कुछ हिन्दू मित्र करते हैं । बीवी मुहम्मदी जो खुद तो खड़ी भी नहीं हो सकती, ज़मीन पर घिसटती हुई गुज़ार रही है अपनी जिन्दगी पर अपनी अपंगता और गरीबी की वजह से जब वह स्कुल नहीं जा पायी उसी दिन उसने सोच लिया था की ऐसा किसी और के साथ नहीं होने देगी । अपनी मेहनत और लगन से घर पर हीं पढ़ कर आज सैंकड़ो गरीब बच्चों को शिक्षा प्रदान कर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होना सिखा रही है । उसके जज्बे को सम्मानित करने के लिए मुख्यमंत्री खुद स्टेज से उतर कर उसके पास आये  और लाखों लोग एक अक्षम कि सक्षमता के साक्षी बने । मधुबनी की बेटी तथा कटिहार की बहु अडतालीस वर्षीय शैलजा मिश्रा ने हुस्न के बाज़ार की उन बदनाम गलियों से जहाँ रात के अंधेरों में तो जाने से कुछ मर्दों को कोई गुरेज़ नहीं पर दिन के उजाले में हवा भी जहाँ से कतरा के गुजरती है, उस रेड लाईट एरिया से पैसठ महिलाओं को निकाल कर सम्मान से जीना सिखाया । आज वो महिलायें इज्जत से कमा भी रही हैं और अपनी बेटियों को शिक्षित करके एक सभ्य समाज का हिस्सा भी बना रही हैं । इससे पहले शैलजा ने कदवा प्रखंड के महली टोला के गरीब आदिवासियों के जीवन में उजाला फैलाया, ईंट भट्ठों पर काम करने वाले बच्चों को स्कुल से जोड़ा महिलाओं को बांस के उत्पादों से आत्मनिर्भर बनाया । बरारी प्रखंड के सुजापुर स्थित टेराकोटा गाँव को आत्मनिर्भर बनाया और कुम्हारों को उनके पुस्तैनी काम पर वापस ला कर अपनी संस्कृति को भी सम्मान दिया है ।

अभी तो बहुत लम्बी सूचि बाकी है मेरी मिट्टी के सपूतों की । ऐसे ऐसे लाल हों जिस गोदी में कोई उस गोदी को कंगाल कैसे कह सकता है ? अक्सर लोगों से सुना है और कहना चाहूँगा की गलत सोचते हैं वो लोग जो कहते हैं बिहार के पास सिर्फ उसका इतिहास है । आज गर्व से कह सकता हूँ मैं कि बिहार के पास सुनहरा इतिहास , सशक्त वर्तमान और उज्जवल भविष्य है ।

सोमवार, 19 मार्च 2012

प्रेम की निशानी,एक जादुई शहर..............

  
चलो दोस्तों आज आपको एक कहानी सुनाती हूँ | ये कहानी ना किसी राजा की है ना रानी की, नाहीं किसी जादुई दुनिया की बल्की ये कहानी है एक ऐसे शहर की जिसने अपनी गलिओं में ऐसी हजारों हज़ार कहानिओं को संगृहीत कर रखा है | ये कहानी है उस शहर की  जिसने कई प्राकृतिक, अप्राकृतिक आपदाओं को झेला पर आज भी हँसता हुआ खड़ा है कर्तव्य पथ पर अडिग एक सैनिक की भांति | भारत के गौरवशाली इतिहास में अति प्राचीन शहरों में गिना जाता है इस शहर को | पुरातात्विक विशेषज्ञों की माने तो आज से लगभग ढाई हज़ार वर्ष पूर्व जन्मा था यह शहर जिसे आज हम 'पटना' के नाम से जानते हैं | जी हाँ बिहार कि राजधानी 'पटना' हीं है वो शहर जिसका प्रमाणित इतिहास  शुरू होता है चार सौ नब्बे ईसा पूर्व यानि हर्यक वंश के शासक राजा अजातशत्रु के शासन काल से, जब उन्होंने रणनीतिक दृष्टिकोण से राजगृह (वर्तमान में राजगीर) से बदलकर अपनी राजधानी बनाया इस शहर को, लेकिन  इस शहर का वास्विक इतिहास तो और भी पुराना और रोचक है | 
दन्त कथाओं में पटना को जादू से उत्पन्न एक शहर के रूप में दर्शाया गया है जिसके जनक राजा पत्रक ने इसका निर्माण किया अपनी प्यारी रानी पाटली के लिए और इसी कारण इसे पाटलिपुत्र या पाटलिग्राम के नाम से जाना जाता था | इतिहास के पन्नो पर कई जगह इसका उल्लेख पुष्पपुर या कुसुमपुर के रूप में भी मिलता है क्यूंकि यहाँ दवा और इत्र के लिए गुलाब की खेती बहुतायत मात्रा में हुआ करती थी | सत्रह सौ चार ई० में मुग़ल बादशाह औरंगजेब ने अपने प्रिय पौत्र मुहम्मद अज़ीम जो कि उस वक़्त पटना का सूबेदार हुआ करता था के अनुरोध पर इसका नाम अजीमाबाद रखा |
इसके विभिन्न नामों से परिचित हो जाने के बाद आइये अब चलते हैं इतिहास कि गलिओं में और भी नज़दीक से जानने इस प्रेम की निशानी जादुई शहर को जो बसा है गंगा के किनारे सोन आर पुनपुन नदिओं के संगम पर | कहते हैं बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध ने अपने आखिरी समय में यहाँ से गुज़रते हुए कहा था कि इस शहर का भविष्य उज्जवल तो है पर कभी बाढ़, आग या आपसी संघर्ष की वजह से यह बर्बाद भी हो जायेगा | मौर्य साम्राज्य के उत्कर्ष के बाद से ही पाटलिपुत्र लगातार सत्ता का केंद्र बना रहा | मौर्य के बाद कई राजवंशों के राजाओ ने यहीं से पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर शासन किया | गुप्तवंश के शासनकाल को प्राचीन भारत का स्वर्णयुग कहा जाता है पर इसके बाद पाटलिपुत्र को वह गौरव प्राप्त नहीं हुआ जो मौर्य काल में प्राप्त था |गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद बख्तियार खिलजी ने यहाँ अपना आधिपत्य जमा लिया और कई आध्यात्मिक प्रतिष्ठानों को ध्वस्त कर दिया फलस्वरूप पटना अपने देश का राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्र ना रहा लेकिन फिर भी मुग़ल काल के सत्ताधारियों ने इस पर अपना नियंत्रण बनाये रखा | शेरसाह सूरी ने जीर्ण पड़े शहर का पुनर्निर्माण करने कि सोची, गंगा तीर उन्होंने किला बनवाया | उनका बनवाया एक भी दुर्ग तो अब नहीं है पर अफगान शैली में निर्मित एक मस्जिद अब भी है | अफगान सरगना दाउद से युद्ध के  दौरान मुग़ल बादशाह अकबर भी यहाँ आयें थे |
पाटलिपुत्र का प्रथम लिखित विवरण यूनानी इतिहासकार मेगास्थनीज़ ने दिया | कहते हैं शुरुआती दौर में पाटलिपुत्र पुर्णतः लकड़ियों का बना हुआ शहर था फिर सम्राट अशोक ने बाद में इसे शिलाओं कि संरचना में तब्दील किया | इन संरचनाओं का जिवंत विवरण चीन के फाहियान द्वारा लिखे भारत के उनके यात्रा वृतांत में मिलता है | कौटिल्य ने अर्थशास्त्र और विष्णु शर्मा ने पंचतंत्र कि रचना यहीं पर कि थी | अकबर के राज्य सचिव तथा आइन-ए-अकबरी के लेखक अबुल फज़ल ने पटना को कागज़, पत्थर तथा शीशे का संपन्न औद्योगिक केंद्र के रूप में वर्णित किया है | इन्ही विवरणों में यूरोप में प्रचलित पटना राईस नाम से चावल कि कुछ नस्लों कि  गुणवत्ता का भी वर्णन मिलता है | अंग्रेजों के शासनकाल के दौरान यहाँ रेशम तथा कैलिको के व्यापर के लिए फैक्ट्री खोली गई और जल्द हीं यह सौल्ट पीटर(पोटैसियम नाइट्रेट) के व्यापर का एक अहम् केंद्र बन गया | ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधीन जाने के बाद यह व्यापर का महत्वपूर्ण केंद्र बना रहा | उन्नीस सौ बारह में बंगाल विभाजन के बाद यह बिहार तथा उड़ीसा कि राजधानी बना | फिर उन्नीस सौ पैंतीस में जब उड़ीसा को भी विभाजित कर एक अलग राज्य बनाया गया तब भी पटना बिहार कि राजधानी बना रहा और आखिरकार दो हज़ार में जब बिहार पुनः बिहार और झारखण्ड दो राज्यों में बटा तब भी पटना ने अबतक राजधानी के रूप में अपना स्थान बरक़रार रखा है | 
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी नगर ने अहम् भूमिका निभाई है | नील कि खेती के विरोध में चंपारण आन्दोलन और उन्नीस सौ बयालीस का भारत छोडो आन्दोलन उलेखनीय है | इसी उन्नीस सौ बयालीस के भारत छोडो आन्दोलन के दौरान विधान सभा भवन के ऊपर तिरंगा फहराने की कोशिश में सात बहादुर स्कूली बच्चे भी शहीद हुए जिनकी स्मृति में पंद्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालिस को शहीद स्मारक कि नीव रखी गई और आज भी आदम कद कि ये मूर्ति इतिहास कि गवाह के रूप में विधान सभा के मुख्य द्वार पर खड़ी है |
इस शहर के वास्तु को ऐतिहासिक क्रम में तीन खंडो में बांटा जा सकता है :- मध्य पूर्व भाग अर्थात कुम्हरार के आसपास मौर्य तथा गुप्त सम्राटों का महल, पूर्वी भाग अर्थात पटना सिटी के आसपास शेरशाह तथा मुगलों के काल का नगर क्षेत्र तथा बांकीपुर और उसके पश्चिम में बतानी हुकूमत के दौरान बसाई गई नई राजधानी |
भारतीय पर्यटन मानचित्र पर भी पटना का प्रमुख स्थान है, आधुनिक के साथ साथ कई ऐतिहासिक दर्शनीय पर्यटन स्थल भी हैं यहाँ जो कि इतिहास कि कई घटनाओं के साक्षी हैं | अभी और भी बहुत कुछ है कई हज़ार कहानिओं के ताने बाने से जुडा है यह शहर जिन्हें एक बार में बता पाना बहुत मुश्किल है | सिर्फ पटना नहीं पुरे बिहार को नज़दीक से जानने के लिए पढ़ते रहिये लेखों की एक ख़ास श्रृखला जो बिहार शताब्दी वर्ष के ख़ास मौके पर समर्पित है मेरे बिहार को ........................
जय हिंद ! जय बिहार !! 
शहीद स्मारक