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सोमवार, 13 जनवरी 2014

गुब्बारे वाला


दायीं हथेली में मम्मी और बायीं हथेली में पापा की ऊँगली थामे, अपने नन्हे-नन्हे कदमो से चलती हुई सर्जना क्लास रूम तक पहुँची| शिक्षिका ने उसे अपने सामने देखते हीं गुस्से में कहा ‘फेल हुई हो तुम, दुबारा पढ़ना इसी क्लास में’ और कुछ बच्चे हँस पड़े| शिक्षिका का वह वाक्य और अपने सहपाठियों की हँसी उसके कोमल ह्रदय पर कठोर प्रहार से थे| अपने चारों ओर उसे खुद के लिए केवल तिरस्कार और उपेक्षा हीं नज़र आ रही थी, वह सहम गयी| वह चाहती थी कि पापा उसे गोद में उठा लें या मम्मी अपने आँचल में छुपा ले| वह सुरक्षित महसूस करना चाहती थी| उसने आशा भरी दृष्टी से अपने पिता को देखा, उन्होंने गुस्से में नज़रें फेर लीं, माँ के आँचल में लिपट जाना चाहा तो उन्होंने उसके कोमल से गाल पर एक ज़ोरदार तमाचा जड़ दिया| दोनों हीं आज सर्जना की वजह से शर्मिंदा थे, उनके सहकर्मियों के बच्चे अच्छे नंबरों से पास हुए थे और उनकी बेटी ने फेल होकर उनका सर शर्म से झुका दिया था (टिउसन में खर्च किये पैसे भी तो बर्बाद हुए)| उसकी हथेली से माँ-बाप की उँगलियाँ फिसल गयीं या उन्होंने खुद हाथ छुड़ा लिया उसे नहीं मालुम, पर क्या फर्क पड़ता है...| ठीक उसी तरह जैसे किसी को क्या फर्क पड़ता है कि सर्जना ने पास होने के लिए पूरी मेहनत की थी, क्या फर्क पड़ता है कि उसे भी फेल होना पसंद नहीं वह भी अपने सहपाठियों की तरह नयी कक्षा में जाना चाहती थी.......दुनिया परिणाम देखती है| परिणाम यह था कि सर्जना फेल हुई थी और वापस लौटते वक्त मम्मी-पापा के साथ तो थी पर उनकी उँगलियों का सहारा न था| वह अकेली हीं लौट रही थी....

घर पहुँचते हीं उसे उसकी सजा सुना दी गयी| उसके कमरे में उसे अकेले बंद कर दिया गया क्यूंकि उसे अकेले रहना पसंद नहीं था और नाहीं बंद कमरे में (अक्सर अपने लोग जानते हैं चोट कहाँ दी जाए)| कमरे में अकेले बैठी वह रोती रही, वह जानती थी कि उसने पूरी मेहनत की थी लेकिन याद किया हुआ वह कुछ भी तो याद नहीं रख पाती| वह दुखी थी, आत्मग्लानी से भरी हुई, उसके माता-पिता दुखी थे, गुस्से से भरे हुए, सबकी नज़रों में गुनहगार सिर्फ ‘सर्जना’ थी| उस छोटे से कमरे में बंद उस छोटी सी लड़की को क्या मालुम था कि बाहर बड़े-बड़े सम्मेलनों, अखबारों, व्याख्यानों में बड़े-बड़े लोग अक्सर ‘हर बच्चा खास है’ जैसी पंक्तियाँ बोल कर कितनी तालियाँ, कितनी वाह-वाहियाँ बटोर ले जाते हैं| उसे तो बस इतना पता था कि वह खास नहीं है और वह खास हो भी नहीं सकती| वह तो केवल साधारण से अंक लेकर पास होने वाले सभी आम बच्चों की तरह आम होना चाहती थी पर वह तो आम भी नहीं थी|

घंटो रोती-रोती सर्जना चुप हुई और उसी वक्त उसकी माँ उसके लिए खाना लेकर आई और उसे चुपचाप बैठा देख कर बोली ‘कुछ शर्म बाकी है तो अब भी तो पढ़ ले’ और उसके सामने खाना रख कर चली गयी| आत्मग्लानी और बेबसी से वह फिर सिसकने लगी| माँ ने तो अपनी खीझ उसपर निकाल ली (और शायद पापा ने माँ पर) लेकिन वह किसको कुछ कह सकती थी...

कुछ देर बाद कमरे में फिर सन्नाटा पसर गया और बाहर सड़कों पर हलचल बढ़ गयी| खिडकी बंद थी, शायद शाम ढलने को थी क्यूंकि शाम को हीं तो इतनी चहल पहल और शोर बढ़ जाता है...हर रोज़| टन-टन टन-टन घंटी बजाता हुआ कोई गुज़रा, वह पहचानती थी उस आवाज़ को समझ गयी ‘हवा मिठाई’ बेचने वाला था| ‘मुन्नी बदनाम हुई’ गाना बजाता हुआ ‘कुल्फी’ वाला गुज़रा, फिर थोड़ी देर बाद ढब-ढब की आवाज़ करता आइस-क्रीम वाला, गोल्डेन होगा या फिर रौलिक वाला भी हो सकता है| हर बच्चे की तरह उसका मन भी इन चीजों के लिए ललचाता था लेकिन वह मूर्तिवत बैठी रही| थोड़ी देर बाद एक और आवाज़ आई जिसे वह पहचान नहीं पायी| हर क्षण वह आवाज़ पास आ रही थी फिर शायद वह जो भी था उसकी खिडकी के पास हीं ठहर गया| मन में उत्सुकता तो थी लेकिन वह कुछ भी ऐसा नहीं करना चाहती थी जिससे मम्मी-पापा को और बुरा लगे इसलिए उसने खिडकी खोल कर बाहर नहीं देखा| कुछ देर बाद वह आवाज़ फिर दूर जाने लगी और धीरे-धीरे खत्म हो गयी|


अगले दिन से उसे ज्यादा से ज्यादा देर तक पढ़ने की हिदायत मिली और शाम को खेलना बंद कर दिया गया| वह पढ़ रही थी, काफी देर से पढ़ रही थी यहाँ तक शाम को जब सभी बच्चे खेल रहे थे वह तब भी किताब के साथ हीं बैठी थी| बाहर सबकुछ रोज़ जैसा हीं था, उसके होने या न होने से बाहर की दुनिया को कोई फर्क नहीं पड़ा था| अचानक फिर वही जादुई सी आवाज़ जो कल उसने पहली बार सुनी थी, फिर कहीं दूर से पास आ रही थी| आज वह खुद को रोक नहीं पायी, पलंग के सिरहाने के पास वाली खिडकी पर चढ़ कर इधर-उधर देखने लगी(मम्मी तो ऐसे भी टी. वि देखने में व्यस्त थी अपने कमरे में)| आज उसे मालुम हुआ वह तो एक गुब्बारे वाला था जो कुछ बजाता हुआ आ रहा था, वह ‘कुछ’ क्या था उसका नाम तो सर्जना को भी नहीं मालुम पर शायद कहीं ऐसी तस्वीर देखि थी उसने| वह गुब्बारे वाला, गुब्बारे बेचता हुआ आकर उसकी खिडकी के बाहर पड़े पत्थरों के ढेर पर बैठ गया, शायद थक गया था आराम करना चाहता था| लेकिन छिः उन्ही पत्थरों के ढेर पर तो रात को कुत्ते सोते हैं और एक दिन तो सर्जना की चप्पल में वहीं खेलते वक्त डॉगी की पौटी लग गयी थी| अचानक उसने बोला ‘गुब्बारे वाले वहाँ मत बैठो, वहाँ तो डॉगी सोता है’(पौटी करता है बोलने वाली थी पर कुछ सोच कर चुप रह गयी)| उसकी तरफ प्यार से देखते हुए गुब्बारे वाला हँस कर बोला बड़ी प्यारी बच्ची है और वहीं बैठ गया| खैर वह कहीं बैठे गुब्बारे तो उसके पास बहुत तरह-तरह के थे, इतने रंग-बिरंगे कि शायद टीचर को भी इन रंगों के नाम मालुम न हो (यह ख्याल मन में आते हीं उसके होठों पर एक मासूम हँसी तैर गयी)| वह देख रही थी कुछ बच्चे आ-आ कर गुब्बारे वाले से अपनी-अपनी पसंद के गुब्बारे खरीद रहे थे| उसने सोचा अगर मम्मी उसे गुब्बारे खरीद दे तो वह कौन सा लेगी? उसे तो सभी पसंद हैं| थोड़ी देर बाद जब गुब्बारे वाला उठ कर जाने लगा तो सर्जना ने हाथ बढ़ा कर गुब्बारे छूने की कोशिश की और वह कामयाब रही| उसकी नन्ही हथेलियों को सहलाते हुए एक गुब्बारा गुज़रा......बिलकुल आसमान के रंग का...उसकी ड्राविंग बुक के आसमान के रंग का|


उस दिन से तो रोज़ का नियम हो गया....गुब्बारे वाले का इंतज़ार...| वह आता भी रोज़ था और वहीं बैठता था, सर्जना को देख कर मुस्कुराता और रोज़ उसे एक गुब्बारा देता, जिसे वह कभी भी खिडकी की सलाखों के बीच से अंदर नहीं ला पाती थी बस थोड़ी देर हाथ में ले कर लौटा देने में ही उसे अपार खुशी होती थी| गुब्बारा लेने या उससे खेलने से ज्यादा बड़ी खुशी इस बात की थी कि उसके सिवा गुब्बारे वाला किसी और बच्चे को बिना पैसे लिए गुब्बारे छूने भी नहीं देता था| एक दिन कारण पूछने पर उसने कहा था कि वह उसे उन सारे बच्चों से ज्यादा अच्छी लगती है, सबसे अलग| सर्जना को भी तो वह गुब्बारे वाला बहुत अच्छा लगता था, यूँही नहीं वह अपनी हर कॉपी के पीछे गुब्बारे वाले की चित्र बनाती रहती थी| सर्जना की  खुशी और गुब्बारे वाले के खास होने का कारण वो गुब्बारे नहीं बल्कि वह एहसास था जो उसे उस गुब्बारे वाले ने उसे दिया था.....’खास होने का एहसास’                   

बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

दरकती मान्यताएं





अस्पताल के बिस्तर पर पड़ा वह एक तक फर्श को सूनी आँखों से निहार रहा था | नज़रें फर्श पर थी, मन शर्मशार और व्याकुल था और दिमाग अतीत के पन्नो को पलटता हुआ जा पहुंचा था आज से पाँच साल पहले ........... हाँ उसी दिन तो वह आखिरी बार अपने गाँव नुमा छोटे से शहर गया था जिसे उसने  अपना  माना ही  नहीं  था  कभी  | और उस  दिन  तो  हद  ही  हो गई  जब   साफ़ साफ़ लफ्जों में उसने कह दिया था अपने माँ बाप से की वह उस छोटे से शहर में सड़ना नहीं चाहता | उनलोगों की तरह गृहस्थी के कोल्हू  में बैल बन कर नहीं जुतना चाहता | वह जीवन का पूर्ण आनंद लेना चाहता था, घर, बच्चों और जिम्मेदारियों की चिंता में खुद को नहीं फूंकना चाहता | बहुत कुछ समझाया था माँ बाप ने उसे उस दिन...पर सब व्यर्थ उनके हर तर्क को कुतर्क से काट दिया था  उसने | यँहा तक की जब उसके पिता ने कहा अगर हम भी तेरी तरह 'लिव -इन' के बारे में सोचते, अगर हमे भी बच्चे बोझ लगते तो क्या तू आज यह सब बकवास करने के लिए यँहा खड़ा होता ? तो उन्हें दो टुक जवाब मिल गया वो आपका शौक था आप जानें मैंने नहीं कहा था की मुझे ............... |  स्तब्ध!! खामोश!! रह गए थे  वो  उसके  इस  पलटवार से और उसकी माँ लगातार रोती जा रही थी | इन आंसुओं में बेटे को खोने का गम था या उसके सत्मार्ग से भटकने का यह तो बस उस माँ का ह्रदय हीं जानता था | 
उसके बाद वह दिल्ली आकर रहने लगा था ....कामिनी के साथ | कामिनी .....कामिनी  एक उन्मुक्त खयालातों वाली ख़ूबसूरत लड़की थी | अमीर घर की भी थी उसके घर में सदस्य कम और कमरे, नौकर  ज्यादा थे |माँ बाप का सालों पहले तलाक हो चुका था,उसने सदा से हीं अपने परिवार को टुकड़ों में जीते देखा था और उसे भी घर गृहस्थी से चिढ थी |यँहा दोनों के खयालात मिलते थे इसीलिए  दोनों ने शादी नहीं की थी क्यूँ की किसी भी रिश्ते की कैद नहीं चाहते थे | दोनों कमाते थे और अपनी मर्ज़ी से खर्च करते थे, चूँकि घर कामिनी का था इसलिए समीर को रेंट भी देना होता था | शरीर छोड़ कर दोनों की किसी चीज़ पर एक दुसरे का हक कम ही होता था क्यूंकि हक की बात तो वँहा आती है जँहा कोई रिश्ता हो आत्मिक सम्बन्ध यँहा तो दोनों अपनी जरुरत के लिए जुड़े थे, सिर्फ अपनी वासना पूर्ति के लिए | जब कोई रिश्ता, कोई हक था हीं तो फिर वफादारी और बेवफाई का तो सवाल हीं नहीं उठता | शुरू में दोस्तों की तरह कुछ बात भी होती थी दोनों में, पर धीरे धीरे यह दैहिक रिश्ता बस बिस्तर  तक हीं सिमट कर रह गया | कभी कभी समीर ने हक जताने की कोशिश की, जानना चाहा, टोकना चाहा की वह किस किस के साथ उठती बैठती है तो कामिनी ने उसे तुरंत याद दिला दिया की वह उसकी पत्नी नहीं है उसे कोई हक नहीं उससे सवाल जवाब करने का | और  उस  दिन  भी  कुछ  झड़प  हुई  थी  दोनों  की  समीर  चाहता था की  कामिनी  उसके साथ  रोमेश  की  पार्टी  मैं  चले  पर  कामनी  नहीं  आई   बहुत  शराब  पी  चुका  था  वह  और  वापसी  मैं  उसकी गाड़ी दुर्घटना ग्रस्त हो गयी तीन  दिन  बेहोश  रहा  वह   आज हीं उसकी आँख खुली थी | आँख खोलते हीं उसने खुद को अस्पताल के बिस्तर पर पाया और साथ वाली मेज़ पर फूलों का एक गुलदस्ता रखा था उसके साथ हीं एक गेट वेल सुन कार्ड और एक नोट रखा था | उस नोट में कामिनी ने लिखा था बहुत अफ़सोस है मुझे तुम्हारी हालात पर | डॉक्टर ने कहा है की शायद अब तुम अपने पैरों पर खड़े न हो पाओ कभी | देखो पिछले महीने जो उधार लिए थे मैंने तुमसे उतने तो यँहा तुम्हारे इलाज में खर्च हो गए तो वह हिसाब तो बराबर पर तुम्हे मेरा एहसान मानना चाहिए तुम्हारी गाड़ी को गराज तक पहुंचवा दिया मैंने उसका भी इलाज चल रहा है | हाँ और देखो बुरा मत मानना अस्पताल से छुटो तो मेरे घर से अपना सामन शिफ्ट करा लेना | प्रैक्टिकली सोचो तो तुम्हारे साथ जो हुआ उसका मुझे अफ़सोस है पर अब तुम्हारे लिए मैं तो अपनी जिन्दगी अपाहिज नहीं कर सकती न | टेक केयर एंड गेट वेल सून डिअर ............... कामिनी | झटका  सा  लगा  समीर  को  ग्लानी  से  भर  उठा  वह एक  पल  मैं  चकनाचूर  कर  गई  थी  कामिनी  उसे ..   ऐसे  मैं  समीर को अपने माँ बाप की याद आ रही थी | खुदा-न-खास्ता अगर उसके पिता के साथ ऐसा होता तो उसकी माँ ऐसा कर सकती थी ? कभी नहीं | उसे ऐसा एहसास हो रहा था उसकी माँ उसके सिरहाने हीं बैठी रो रही है वह भी चाहता था की उसकी गोद में सर रखकर जी भर रो ले लेकिन उसकी आँख से आंसूं का कतरा तक न निकला | क्यूंकि शायद उसकी आँखों का पानी बहुत पहले हीं मर चुका था .............. या फिर आज वह इतना मजबूर था की आंसूं भी उससे दामन बचाते हुए कतरा कर चले गए | लिव-इन  रिलेसन  की  धारणा एक गाली सी  लग  रही  थी  उसे  आज |

शनिवार, 22 जनवरी 2011

"रिश्तों की कश्मकश"

पुराना साल जाने वाला था और नए साल के स्वागत कि तैयारी हर तरफ जोर शोर से चल रही थी | संजय काफी खुश था दोस्तों रिश्तेदारों को फोन पर बताते बताते वो थक नहीं रहा था कि इस साल नए साल के स्वागत में हो रहे एक टी वी स्टेज शो में उसे भी गाने का मौका मिला है | उधर किचन में रोटी पकाती योषिता अपने हीं ख्यालों में डूबी हुई थी | कुछ हीं पलों में ये दो महीने जैसे उसकी आँखों के सामने से बीस बार गुजर चुकें हों | जितना सोचती उतनी हीं वह और उलझती जा रही थी अपने ही सवालों में | 
करीब दो साल हो गए थे उसे संजय कि दुल्हन बन इस घर में उतरे हुए | वह एक पेंटर थी और संजय को संगीत में गहरी रूचि थी | उनकी शादी के वक़्त सभी कहते थे कि खूब जमेगी इनकी जोड़ी दोनों कलाकार जो ठहरे | शादी के बाद सब ठीक ठाक चल भी रहा था | योषिता एक इंस्टिट्यूट से जुड़ी थी, वहाँ से उसकी पेंटिंग्स बिक जाया करती थी | संजय गायक तो अच्छा था पर कहीं अच्छी जगह उसे अब तक मौका नहीं मिला था | एक स्कूल में संगीत सिखाता और घर पर भी कुछ बच्चों को संगीत कि तालीम दिया करता था | जीने खाने भर पैसे कमा हीं लेता था | दोनों में झगडे भी होते थे पर फिर सब ठीक हो जाता था |
एक दिन योषिता कि पेंटिंग्स कि प्रदर्शनी लगी थी | वैसे तो संजय को अजीब सी चीढ़ थी इन प्रदर्शनियों से पर योषिता कि जिद्द से मजबूर होकर वह भी गया उस प्रदर्शनी में | अभी वहाँ पहुचे ही थे कि एक आदमी ने मुस्कुराते हुए योषिता से कहा "Hiiiii! योषि, क्या हाल है ?" योषिता आज अचानक इतने सालों बाद अपने कॉलेज के सबसे अच्छे दोस्त परिमल को देख चौंक गयी थी और 
खुशी से चहकती हुई बोली " अरे परि तू यहाँ कैसे ? UK से वापस कब आया यार ? परिमल ने कहा अरे यार अब तो परि बुलाना बंद कर लड़की टाइप लगता है |खैर UK में मन नहीं लगा तो अपने वतन वापस चला आया और तुम यहाँ कैसे से क्या मतलब ?आपकी पेंटिंग्स का दीवाना हूँ वही खिंच लायी हमे अहाँ! स्टुपिड offcourse तुमसे मिलने आया हूँ | पेपर में ऐड देख कर समझ गया था कि योषिता वर्मा अपनी योषि के अलावा कोई हो ही नहीं सकती | योषिता ने परिमल और संजय दोनों का परिचय कराया पर शायद दोनों को एक दुसरे से मिलने में कोई दिलचस्पी नहीं थी | परिमल को योषिता से बातें करनी थी और संजय किसी तरह उसे घर ले जाना चाहता था |परिमल का बार बार उसकी पत्नी को 'योषि' बुलाना खटक रहा था और योषिता के मुँह से परिमल के लिए निकला ' यार ' शब्द जैसे उसके तन बदन में आग लगा रहा था |
उस दिन के बाद से परिमल और योषिता का मिलना जुलना बढ़ गया और बातों हीं बातों में योषिता ने संजय के करिअर के बारे में चिंता जाहिर कर दी | उसे एक मौके के लिए संजय का दर बदर भटकना बहुत बुरा लगता था |परिमल ने कहा इतनी सी बात के लिए इतना परेशान हो गयी |परेशानी में तुम बिल्कुल भी सुन्दर नहीं लगती | जाओ बालिके! बाबा परिमल का आशीर्वाद तुम्हारे साथ है | कल हीं तुम्हे एक खुसखबरी मिलेगी | तुम्हारी चिंता अब बाबा कि चिंता है तुम चिंता मुक्त हो जाओ | योषिता इस मजाक पर हँस पड़ी | पर यह मजाक नहीं था | परिमल कि कम्पनी एक नए साल के जश्न कि मेगा स्पोंसर थी और उसके कहने पर उस जश्न में संजय को बतौर अपकमिंग सिंगर मौका दे दिया गया |
अगले दिन यह खुशखबरी लेकर संजय योषिता के पास आया तो गलती से योषिता के मुँह से निकल 
गया अरे वाह आपको मौका मिल गया, कल हीं परि.......... बोलती बोलती वह ठिठक गयी | पर संजय जिस मौके कि तलाश में था दो महीनो से उसे आज वह मौका भी मिल हीं गया | बोला " हाँ, हाँ  
बोलो क्या कहना चाहती हो मेरे हुनर से नहीं तुम्हारे उस "यार" कि वजह से यह मौका मिला है मुझे ?मुझे इतना बड़ा मौका दिलवाने के लिए तुम्हे भी तो कुछ कीमत चुकानी पड़ी होगी न अपने यार को |योषिता बोली " छिः शर्म नहीं आती तुम्हे ऐसी बातें कहते हुए | संजय ने कहा " बहलाओ मत, बच्चा नहीं हूँ, और मैं भी इसी धरती का प्राणी हूँ | यहाँ मुफ्त में कोई किसी को कुछ नहीं देता और फिर तुम्हारा वो परिमल वो एक बिजनेस मैन है और बिजनेस मैन सिर्फ और सिर्फ अपना फ़ायदा देखते हैं |योषिता के लिए यह सब बातें असह्य थी वह उठकर किचन में रोटी बनाने चली गयी | संजय के बचपन का सपना पूरा होने जा रहा था वह अपनी खुशी फोन पर सबको सुनाने लगा |
योषिता सभी बातों को सोचने के बाद इस नतीजे पर पहुंची कि उसे अपनी गृहस्थी बचानी है | उसका new year resolution यही होगा कि वो परिमल से बात नहीं करेगी, इस दोस्ती के बिना भी वह जी सकती है |फिर संजय के साथ सुखद जीवन कि कल्पना करने लगती है और उसे ध्यान नहीं रहता कि वह रोटी बना रही है | तवे पर पड़ी रोटी जल गयी, संजय आया और गैस बुझाते हुए हुए बोला "क्या हुआ ? कहाँ खोई हो, परिमल कि यादों में ? योषिता के मन में कहने को बहुत कुछ था पर जुबां आज उसका साथ नहीं दे रही थी | मन के सारे भाव आंसुओं के सैलाब बनकर उमड़ पड़े |

मंगलवार, 18 जनवरी 2011

"अकेला चना भी भाड़ फोड़ सकता है"

दोस्ती हो तो ऐसी ..........| रिया और पूजा की दोस्ती को जो भी देखता अनायास उसके मुँह से यह बात निकल हीं जाती | बचपन से दोनों साथ खेली ,पढ़ी साथ में हीं बड़ी हुई | दोनों के अंकों में कुछ ज्यादा फासला भी नहीं होता था पर फिर भी आमतौर पर होने वाली प्रतिद्वंदता दोनों में नहीं थी | हर कोई दोनों की दोस्ती की मिसाल दिया करता था यँहा तक की दोनों को हंसों  का जोड़ा कहा जाता था | बचपन बीतते वक़्त हीं कितना लगता है ? समय तो मानो पंख लगा कर उड़ा जा रहा था और बढ़ते समय के साथ वे भी बड़ी हो गयीं |
कॉलेज का आखिरी साल था एक तरफ तो दोनों को अच्छी नौकरी की चिंता थी और दूसरी तरफ घर पर शादी ब्याह के चर्चे गर्म थे | उनके लिए काफी जद्दोजहद की स्थिति थी उस वक़्त, पहला तो अच्छी नौकरी गर वह मिल भी गयी फिर भी शादी के बाद कहीं और जाना होगा पाती और ससुराल के मुताबिक ................. इन चिंताओं के साथ रिया को एक और परेशानी थी की क्या वो अपने माँ बाप को मना पायेगी और नहीं मना पायी तो ....................? घर वालों से, दोस्तों से तो उसे दूर होना हीं पड़ेगा पर ........................समीर से ............... कैसे रहेगी वो ?क्या होगा उसके सपनों का ............. जिसका एक अहम् हिस्सा समीर है .............क्या माँ बाप के खिलाफ , समाज के विरुद्ध जाकर उसे अपना पायेगी ? और अगर नहीं तो क्या समीर के साथ और उस आत्मिक रिश्ते के साथ बेवफाई नहीं होगी ? इन्ही उलझनों के साथ दोनों सहेलियां interview देने जा रही थी तभी रास्ते में भिखारी मिल गया | पूजा ने फट्टाक से १० रु का नोट निकाल कर उसे दे दिया, रिया ने उसे मना किया तो कहने लगी पुण्य का काम है दुआ मिलेगी | इसी बात पर दोनों में बहस छिड़ गयी, रिया का मानना था की पैसे दे कर नहीं मदद करनी चाहिए बल्की ऐसे लोगों को इस काबिल बनाना चाहिए की अपनी जरुरत भर वे खुद कमा सके | इस बहस में जाने क्या क्या कह गयी दोनों एक दुसरे को, समाज और इसकी व्यवस्था 
पर जितनी खीझ थी दोनों ने एक दुसरे पर उतार दी | अबतक दोनों खिलौनों फिर किताबों कि दुनिया में जी रहीं थी, एक स्वप्निल दुनिया में | अब जिस व्यावहारिक, वास्तविक दुनिया में दोनों कदम
 रख रही थी इसमें उनकी सोच बिल्कुल अलग थी एक दुसरे से | पूजा रीती रिवाजों, पौराणिक अवधारणाओं को शब्दशः मानने वाली थी और रिया खुले विचारों वाली लड़की थी | वह संस्कारों को बंधन के रूप में नहीं अपनाना चाहती थी, उसका यही  मानना था कि नियम इंसानों के लिए बनाये गए हैं, इंसान नियमों के लिए नहीं |
इस घटना के बाद कुछ ऐसे हालात बनते गए कि दोनों में दुरिया बढती गयी | पूजा कि शादी हो गयी और वह एक कुशल गृहणी कि तरह अपने घर संसार में खो गयी, उसके पती किसी छोटे से जिले में अधिकारी थे | रिया समीर के साथ थी विरोध तो बहुत झेला दोनों ने समाज का पर आखिर में जीत उनकी हीं हुई | दोनों सहेलिओं में अब सिर्फ नाम मात्र का हीं संपर्क रह गया था |एक दिन सरकारी छात्रवृत्ति बांटी जा रही थी जिले में काफी बड़ा जलसा था, बहुत 
बड़े बड़े लोग भी आने वाले थे | पूजा भी उस समारोह में गयी थी
 अपने पती और दोनों बच्चों के साथ | जब पुरस्कार वितरण शुरू हुआ 
तो जो पहला बच्चा आया इनाम लेने वह स्टेज पर जाते रोने लगा 
और फिर बोला कि मैं आज इस जगह परमैं जिसकी वजह से पहुंचा
 हूँ यह इनाम भी मैं उन्ही के हांथों लेना चाहूँगा | भीड़ कि काफी
 पीछे से एक औरत आई सभी उसकी ओर बड़ी उत्सुकता से देखने
 लगे और कोई पहचाने न पहचाने पूजा कैसे भूल सकती थी अपनी
 रिया को ? उस बच्चे ने कहा कि यँहा मौजूद जितने भी लोग हैं
 उनमेसे बहुत से लोगसंवेदनशील होंगे मुझे पता है पर आज मैं आप
 सब से हाथ जोड़ कर एक विनती करना चाहता हूँ किअपनी 
संवेदनशीलता को सही आयाम दीजिये | आज से ७ साल पहले
 जब मैं भीख मांगता था मुझे यही लगता था कि यही किस्मत है 
मेरी और शायद आप जैसे लोग भी यही समझते थे तभी तो मेरी 
कटोरी में सिक्के डालते जाते थे पर ये ऐसा नहीं सोचती थीं और इन्ही
 कि सोच ने मुझे आज यँहा पहुँचाया है | अगर हर कोई इनके जैसा
 सोचने लगे तो मेरे जैसे कितने हीं बच्चों कि जिन्दगी संवर जाएगी |
 पूजा आज मन हीं मन नतमस्तक हो गयी थी रिया के सामने,
 उसने आज तक भिखारिओं को कितने ही रु दे दिए थे इसका कोई 
हिसाब  नहीं पर वो सोच रही थी कि दे कर भीक्या दिया उसने ?वह
 हमेशा यही सोचती रही थी अब तक कि रिया कंजूस हो गयी है 
या तो सारी संवेदनाएं मर चुकी है उसके भीतर की | उसकी उस दिन 
की हर बात याद आ रही थी पूजा को जिसे वह महज भाषण बाजी
समझ रही थी | पूजा को यह लगता था की अकेले इससे क्या होगा ?
 पर आजवह यह मान गयी की "अकेला चना भी भाड़ फोड़ सकता है|
 दो सहेलियों के बीच यह फासला था विचारों का जो आज मिट चुका 
था जिसकी साक्षी थी पूजा के आँखों से बहते प्रेमाश्रु सिर्फ और सिर्फ
 रिया के लिए लेकिन यह आँसु दोस्ती के लिए नहीं थे ये आंसूं 
सम्मान के लिए थे एक सच्ची मानव सेवा के लिए | अपनी दोस्त 
रिया से तो उसे अभी जमकर लड़ाई करनी थी वह तो बेवकूफ थी 
पर रियातो इतनी समझदार थी उसेकिसी तरह से मानना चाहिए था
 न | 


अब लड़ना है तो लड़े इसमें हम आप क्या कर सकते हैं ? दो सहेलिओं
 के बीच का मामला है और फिर दोस्ती में लड़ने का हक तो बनता है 
यार ................

गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

एक लघु कथा

एक प्यारा सा बच्चा था | वह अपने पापा के साथ कहीं जा रहा था |गोद में लेकर उसके पिता ने जल्दी से रेलगाड़ी पर चढ़ा दिया और फिर खुद भी चढ़ गए | उनके पास ढेर सारा सामान था, उसे व्यवस्थित कर के रखने लगे | तभी उस प्यारे से मुस्कुराते हुए बच्चे की नज़र खिड़की से बाहर गयी | उसने देखा बाहर स्टेशन पर खड़ा एक आदमी फ्रूटी बेच रहा था | उसने कहा 'पापा में को फ्रूटी चाइए' | पापा ने कहा सामान रख लेने दो खरीद देता हूँ | पर तब तक फ्रूटी वाला आगे बढ़ने लगा और रेलगाड़ी भी दूसरी दिशा में बढ़ने लगी | बेचारा बच्चा रोने लगा, जोर जोर से रोने लगा | पापा चूप कराते, वह और जोर से रोने लगता | थोड़ी देर बाद एक दूसरा फ्रूटी वाला ट्रेन के अन्दर फ्रूटी बेचने आया | पापा ने फ्रूटी खरीदी और बच्चे को देने लगे पर वह बच्चा इतना रो रहा था कि उसने ध्यान ही नहीं दिया और हाथ पाँव पटकता रहा यहाँ तक कि उसके हाथ से लग कर फ्रूटी का डब्बा गिर गया | पैसे बर्बाद हो गए और उसके पापा को गुस्सा आ गया और उन्होंने एक जोरदार तमाचा जड़ दिया |


कहीं हम सब भी उस जिद्दी बच्चे वाली गलती तो नहीं कर रहे न ? अक्सर ऐसा होता है कि कुछ कारणों से हम जो चाहते हैं या जब चाहते हैं वह मिल नहीं पता और हम उस बच्चे की तरह रो-धो कर आने वाले अवसर को भी गवाँ देते हैं | जो लोग ऐसा करते हैं अंत में नियति उन्हें ऐसा जोरदार तमाचा मारती है कि रोने के सिवाए और कोई रास्ता नहीं बचता उनके सामने | उस बच्चे कि जिन्दगी के लिए यह तो एक छोटा सा सफ़र था | ऐसे बहुत से सफ़र और आयेंगे उसके जीवन में पर हमने अपने जीवन सफ़र में ऐसी गलती कर दी तो दोबारा मौका नहीं मिलने वाला | जो अवसर छुट गया सो छुट गया उसे छोड़ो, आगे बढ़ो | आने वाले अवसर के लिए तत्पर रहो | बीते मौके का मातम मनाओगे तो आने वाले मौकों की भी अर्थी उठ जाएगी |

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

कर्म बड़ा या भाग्य

सदियों से मानव सभ्यता कर्म और भाग्य इन दो शब्दों के इर्द गिर्द घूम रही है | कर्म बड़ा है या भाग्य ? भाग्य को कर्म का फल माना गया है | कर्म को तो सभी बड़ा मानते हैं पर न चाहते हुए भी भाग्य को मानना हीं पड़ता है | सबने अपने अपने अनुभव और सोच के आधार पर इन शब्दों को परिभाषित किया है | ज्यादा तो नहीं पर जीवन का मुझे जितना भी अनुभव है उसमे मैंने यही पाया है की भाग्य न सही दुर्भाग्य कर्म से ताकतवर जरुर है | ये मत समझिएगा कि मैं कर्महीन जीवन कि वकालत या पैरवी कर रही हूँ | कर्म तो सबसे बड़ा धर्म है इंसान का | सीधे सीधे लब्जों में कहूँ तो वास्तविक जीवन में भाग्य कर्म से ज्यादा बली है पर यही तो असली मज़ा है कर्मशील जीवन का | कमजोर से लड़कर तो कोई भी जीत सकता है बहादुरी तो इसी में है न कि हम खुद से बलवान को हरा दें | बिना कर्म किये अगर भाग्य से हार जाते हैं तो हम कायर कि मौत मरेंगे और कर्म करके भी हम हार गए तो कर्मपथ पर शहीद होंगे | अरे इसी बात पर मैंने कुछ सोचा है :- क्या हुआ जो तू लड़कर हार गया ,
                                                                                  उससे तो कहीं अच्छा जो डरकर हार गया |
महाभारत का कर्ण तो याद है न | जन्म से लेकर मृत्यु तक हर कदम पर दुर्भाग्य ने उसे घेरा अंततः वह हार भी गया पर वह लड़कर हरा डरकर नहीं तभी तो वह शहीद हुआ | महाबली कर्ण कहलाया | सन 1857 के सभी शहीद युद्ध तो हार गए थे न फिर भी आज तक उन्हें इज्जत से याद किया जाता है क्योंकि दासता उनका दुर्भाग्य था उनका कर्म उससे जीत न सका पर वे डरकर नहीं लड़कर हारे थे | तभी तो शहीद कहलाये | भाग्य तो हमारे हाथ में नहीं है पर कर्म तो है | भाग्य कर्म से बली भी है तो क्या हुआ ?जब अँगरेज़ हमारे देश में आये थे तो वे भी हमसे ज्यादा ताकतवर थे |उनके पास आधुनिक हथियार थे जो हमारे पास नहीं थे | 200 साल तक हमने उनकी दासता झेली थी वह दुर्भाग्य था हमारा उस दासता से मुक्ति के लिए हम लड़े ये कर्म था हमारा |
दुर्भाग्य से लड़कर कर्म जीत जाए यह जरुरी नहीं पर हम सदैव कर्मरत रहें यह अत्यांतावाश्यक है | हमारा आत्मविश्वास हमे जीत दिलाये ऐसा हमेशा नहीं होता पर आत्मविश्वास हमे निरंतर कर्मरत जरुर रखता है | बरसते पानी को हम बंद नहीं करा सकते वह नियति के हाथ में है पर उससे बच तो सकते है न | भाग्य ताकतवर है पर उससे लड़कर हमे यही तो सिद्ध करना है कि हम कायर नहीं हैं | खुद से बलवान से भी टक्कर लेने का जज्बा है हममे |    

मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

अल्पा या कमला ...................

शर्माजी बड़े हीं उत्साहित नज़र आ रहे थे और जब वे उत्साहित हों तो घर शांत कैसे हो सकता था | श्रीमती जी चिल्ला रहीं थी अरी कमला जल्दी कर नाश्ता ला बाबूजी को जरुरी काम से जाना है न |कुछ समझती नहीं कामचोर कहीं की, किसी काम का ढंग नहीं | पता नहीं माँ ने क्या सिखाया है | सोचा होगा सीखा के क्या फ़ायदा अपने साथ थोड़े रहने वाली है पड़ेगी जिसके पल्ले वह समझे | अरे भोगना तो हमे पड़ रहा है न | बाप ने समझा होगा १५ लाख दे दिया बेटी महारानी बनकर रहेगी | किचन से कमला चिल्लाई माँ जी मेरे मम्मी पापा पर मत जाइये समझीं आप | सुबह ४ बजे से उठ कर लगातार काम हीं तो कर रही हूँ | छोटी जी थीं तो मैंने भी देखा है आपने कितना काम सीखा कर भेजा है ससुराल | बहु न हो गयी गुलाम हो गयी | मैं भी इंसान हीं हूँ रोबोट नहीं जो आपके इशारों पर नाचती रहूँ | और नास्ता लाकर शर्मा जी को दे दिया ' बाबूजी नाश्ता' | छोटे शर्मा जी आँखे दिखाकर बोले तुम्हे नहीं लगता कमला तुम कुछ ज्यादा बोलती हो ? माँ बड़ी हैं तुमसे, तुम चुप भी रह सकती थी| कमला ने कहा आपका मतलब ...... बीच में हीं बात काटते हुए छोटे शर्मा जी बोले फिर से महाभारत मत शुरू करो | मुझे भी नाश्ता दो जल्दी से | सासु माँ का रेडियो तो अभी तक ऑन था | जाने कितनी हीं बार कमला के किन किन रिश्तेदारों को क्या क्या गालियाँ दे चुकी थीं फिर भी उनका स्टॉक ख़त्म नहीं हुआ था | शर्मा जी जो अब तक बाहर जाने के लिए उत्साहित थे बेटे की थाली देख कर उबल पड़े | वाह बहू क्या न्याय है तेरा | रिटायर्ड हूँ इसका मतलब ये नहीं तेरे पति की कमाई खता हूँ | पेंसन देती है सरकार मुझे और अगर अपने बेटे की कमाई खता भी हूँ तो तुझे क्यूँ बुरा लगता है, उसे इस लायक बनाया भी तो है मैंने | तेरे बाप से तो इतना तक न हो सका की लड़के को बिजनेस बढ़ाने के लिए १० - २० लाख दे दें |साफ़ मुकर गए की अभी तो शादी वाला हीं क़र्ज़ नहीं उतरा | श्रीमती जी को एक नया जोश मिला फिर फुल वोल्यूम पर रेडियो स्टार्ट | कमला:-  पर बाबूजी मैंने ...........| शर्मा जी:- अरे चुप रहो हमे रुखी रोटी और साहबजादे को आलू के पराठे | कमला;- आपको सुगर है न | छोटे शर्मा जी ने भी हामी भरी | शर्मा जी बोले तुम्ही लोग तो डॉक्टर हो न, बीमारी न मारे उससे  पहले तुम्ही लोग मार डालोगे और थाली पटक कर बाहर चले गए | छोटे शर्मा जी खाना तो चाह रहे थे (उन्होंने स्पेसिली बोल कर बनवाया जो था ) पर यह नहीं चाहते थे कि  माँ का तीर कमान उनकी तरफ घुमे और उन्हें कुपुत्र या बीवी का गुलाम जैसी उपाधियों से नवाजा जाय, उठकर दुकान चले गए | कमला खड़ी रो रही थी | सासु माँ चिल्लाईं मगरमच्छ के आँसु मत बहओ, मिल गयी शांति मर्दों को भूखा भेज कर | कमला पलटकर जाने लगी तो फिर उन्होंने कहा चली महारानी कोप भवन में | कमला ने जाते जाते कहा मैं चली गयी कोप भवन में तो उसके बाद तो भगवान हीं मालिक है इस घर का, आपका हीं नाश्ता लेने जा रही हूँ | अभी कपडे धोने भी बाकी हैं | उधर शर्मा जी गिल साहब के दफ्तर पहुँच गए | यँहा बहू के मायके से पैसे ऐंठने न, मिलने पर बहू को रश्ते से हटाने के सारे गुर बताये जाते थे | हत्या को आत्महत्या सिद्ध करने के लिए सुसाइड नोट के सैम्पल  भी मिलते थे और सबसे बड़ी बात प्राइवेसी  मेन्टेन  किया जाता था | आज तो यँहा आकर सोचा बहुत अच्चा  दिन है लकी ड्रा निकाला जा रहा था | जितने वाले को ५० % डिस्काउंट मिलने वाला था ऊपर से गिल साहब से मुलाकात, जो सारा रिस्क लेने को तैयार थे | ४० साल का अनुभव था भाई | इन ४० सालों के अपने वकालती करियर में कितनो को हीं दोष मुक्त कराया है उन्होंने | कानून का तोड़ मरोड़ सब जानते हैं वे | लकी ड्रा के लिए शर्मा जी ने अपना नाम भी दिया |रिजल्ट आया तो उनका दिल टूट गया | गिल साहब आज सिर्फ प्रथम स्थान वाले से मिलेंगे बाकी लोगों से कल सुनकर शर्मा जी झुंझला गए | इधर उधर से पता चला किसी कृष्णकांत को प्रथम स्थान मिला है पर शायद यह काल्पनिक नाम है | घर जाकर बहू से बोले कल सवेरे ७ बजे तक मुझे निकल जाना है जरुरी काम है | अगले दिन सुबह ६:५५ पर उनके मोबाइल पर फोन आया उनका दामाद रो रहा था, बाबूजी अल्पा छत से गिर गयी लाख कोशिशों के बाद भी हम उसे बचा न सके | शर्मा जी सन्न थे | कृष्णकांत ................. प्रथम स्थान ................ कृष्ण कान्त शर्मा ................. अल्पा के ससुर | अभी उन्होंने किसी से कुछ कहा नहीं था बस स्तब्ध थे | तभी मुस्कुराती हुई कमला बोली बाबूजी ७ बज गए आपको कहीं जाना था न और ये लीजिये लंच कल तो शाम में आये थे दोपहर में कुछ खाया नहीं होगा आज जब मौका मिले खा लीजियेगा | बाबूजी लीजिये न और जाइये बहुत जरुरी काम था न |शर्मा जी कुछ सुन नहीं रहे थे बस देख रहे थे मुस्कुराती कमला में खिलखिलाती हुई अपनी नन्ही अल्पा को और फिर अचानक खून में लथपथ एक लाश ..............जिसे पहचानना नामुमकिन था अल्पा है या कमला .........