झूठी हो हाथों की हर लकीर तो क्या करें
बेवफ़ा हो अपनी हीं तकदीर तो क्या करें
मंजिलें भले मालुम हों रास्ते भी हों खुले
अपने हीं पैरो में हो ज़ंजीर तो क्या करें
ज़ख्म की गहराई हमने दिखा तो दी
उन्हें मालूम नहीं दर्द की तासीर तो क्या करें
हँसते रहने की आदत यूँ तो बना ली है
कलम से उतर हीं आये दिल का पीर तो क्या करें
...................................................................आलोकिता