सोमवार, 30 दिसंबर 2013

जी करता है . . .

तेरे प्यार पर जां निशार करने को जी करता है
तेरी हर बात पर ऐतबार करने को जी करता है

बेपनाह हों दूरियाँ , भले तेरे-मेरे दरमियाँ
क़यामत तक तेरा इंतज़ार करने को जी करता है

हाथों में हाथ हो, तू मेरे अगर जो साथ हो
दुनिया के हर डर से इनकार करने को जी करता है

तेरे दामन की खुशियाँ भले हमें मिले न मिले
तेरा हर अश्क़ खुद स्वीकार करने को जी करता है 

खामोश हो जाते हैं लब तेरे सामने जाने क्यूँ 
हर रोज़ मगर प्यार का इज़हार करने को जी करता है 


शनिवार, 14 दिसंबर 2013

अच्छा लगता है


ख़ामोश तन्हाइयों से निकल, किसी भीड़ में खो जाना
अच्छा लगता है कभी-कभी भीड़ का हिस्सा हो जाना

भूल कर अपने आज को, बीती गलियों में मंडराना
अच्छा लगता है कभी-कभी पुरानी यादों में खो जाना

शब्दों में बयां किए बगैर, दिल के एहसासों को जताना
अच्छा लगता है कभी-कभी मुस्कुरा के खामोश हो जाना

बेमतलब बेईरादतन बार-बार यूँ हीं मुस्कुराना
अच्छा लगता है कभी-कभी अंजाने ख्यालों में खो जाना

दुनिया के कायदों, अपने उसूलों को तार-तार करना
अच्छा लगता है कभी-कभी बन्धनों से आज़ाद हो जाना


                                                      






........आलोकिता 

शनिवार, 7 दिसंबर 2013

तुम . . .


बेधड़क गूँजता अट्टहास नहीं
हया से बंधी अधरों की अधूरी मुस्कान हो तुम

जिस्म की बेशर्म नुमाइश नहीं
घूँघट की आड़ से झांकते चेहरे की कशिश हो तुम

उठी हुयी पलकों का सादापन नहीं
झुकी झुकी सी पलकों का स्नेहिल आकर्षण हो तुम

भूली-बिसरी कोई गीत नहीं
हर वक्त ज़ेहन में मचलती अधूरी कविता हो तुम

साधारण सी कोई बात नहीं
इक अलग सा कुछ खास हीं एहसास हो तुम


लब पे आ सके वो नाम नहीं

दिल के कोने में बसा अंजाना जज़्बात हो तुम



                                         






...आलोकिता

मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

मेरी वो चीज ढूंढ के ला दो

सुनिए ज़रा .....

अरे हाँ भई आप ही से बात कर रही हूँ, एक छोटी सी मदद चाहिए थी. कुछ खो गया है मेरा ढूंढने में मेरी मदद कर देंगे? हाँ हाँ बहुत ज़रुरी चीज़ है, कोई अहम चीज़ न होती तो नाहक हीं क्यूँ परेशान करती आपको? उसकी अहमियत? मेरे दिल से पूछिए तो मेरी आज़ादी, मेरा स्वावलंबन, मेरा स्वाभिमान सब कुछ तो है वो और आपके समझने वाली किताबी भाषा में बोलूँ तो मेरा “मौलिक अधिकार”. क्या कहा आपने, मुझे पहले खुद प्रयास करनी चाहिए थी? मैंने बहुत प्रयास किया, कसम से हर जगह ढूंढा पर कहीं नहीं मिला.

हाँ सच कहती हूँ मैं स्कूल गयी मैं कॉलेज भी गयी अपने बराबरी का अधिकार, अपनी शिक्षा का अधिकार ढूंढने पर . . . क्या बताऊँ मुख्य द्वार पर हीं रोक दिया गया. नहीं नहीं किसी ने खुद आकर नहीं रोका पर वहाँ केवल सीढियाँ हीं सीढियाँ थीं कोई रैम्प नहीं जिससे मैं या मेरे जैसे और भी व्हील्चेयर इस्तेमाल करने वाले लोग, कैलिपर, बैसाखियों वाले या फिर दृष्टि बाधित लोग जा सकें. हाँ एक कॉलेज में रैम्प जैसा कुछ देख के आशा जगी कि शायद यहाँ मिल जाए मेरे अधिकार लेकिन वह भी ऐसा रैम्प था कि चढ़ने का प्रयास करते हीं व्हीलचेयर के साथ लुढक कर सड़क पर गीर गयी. फिर भी मैं वापस नहीं लौटी, एक राहगीर से मदद ले कर अंदर गयी . . . क्या आप विश्वाश करेंगे अंदर एक भी कमरा जी हाँ एक भी कमरा ऐसा नहीं था जिसमें मेरे जैसे विकलांग छात्र-छात्राएं जा सकें और जब हमारे पढ़ने के लिए कक्षाएं हीं नहीं तो शौचालय ढूँढना तो बेवकूफी हीं है. मन में एक बात आई ‘क्या ये शिक्षण संस्थान ये मान कर बनाये जाते हैं कि हमारे देश में विकलांग छात्र है हीं नहीं? क्या ऐसा सोच कर वो हमारे मौलिक अधिकारों का हनन नहीं कर रहे?’
 

क्या? पत्राचार से घर बैठे डिग्री ले लेने के बाद मेरी लाइफ सेट है? सरकारी नौकरी की बात कर रहे हैं? हा हा हा हा ... माफ कीजियेगा, आप पर नहीं हँस रही, बस हँसी आ गयी वो कहते हैं न ‘ज़न्नत की हकीकत हमें भी मालुम है ग़ालिब, दिल बहलाने को ये ख़याल अच्छा है’. पहले सबकी बातें सुन सुन कर मैं भी कुछ ऐसा हीं सोचती थी और मैंने तो एक नौकरी के लिए फॉर्म भरा भी था. सचमुच विकलांगो के लिए एक अलग सेंटर दिया था उन लोगों ने, और पता है उस सेंटर की खासियत क्या थी? खासियत ये थी कि एक भी कमरा निचली मंजिल पर नहीं था, सभी को सीढियाँ से उपरी मंजिलों तक जाना था. कोई गोद से जा रहा था तो कोई ज़मीन पर घिसटते हुए. जब आगाज़ ये था तो अंजाम की कल्पना तो की हीं जा सकती है. विश्वाश नहीं हो रहा? अरे कोई बात नहीं मेरा विश्वाश ना कीजिये सरकारी दफ्तरों के एक चक्कर लगा के देख लीजिए खुद नज़र आ जायेगा कि उन दफ्तरों की संरचना कितनी सुगम है. कोई भी बैंक, ए०टी०एम, पोस्ट ऑफिस कहीं भी जा कर देख लीजिए कि विकलांगो चाहे वो कर्मचारी हो या कोई और किसी के लिए भी आने जाने का रास्ता बना है कहीं? अगर बराबरी का अधिकार है तो कहाँ है? नज़र क्यूँ नहीं आता?

जी क्या बोला आपने? मेरा दिमाग गरम हो गया है? थोड़ी ठंढी हवा खा लूँ? हाँ ठीक है पँखा चला लेती हूँ पर ठंढी हवा से याद आया सभी कहते हैं प्राकृतिक हवा स्वास्थ के लिए बहुत लाभकारी होती है और यही सोच कर मैं भी और लोगों की तरह पार्क गयी थी लेकिन देखिये ना इतने सारे पार्क सब के लिए 3-3, 4-4 गेट बने हुए हैं पर उसमें से एक भी गेट विकलांगो की सुगमता के लिए नहीं.

विकलांगो को और लोगों से बढ़ कर सुविधा दी जाती है? करोड़ों रूपए खर्च होतें है? आप भी न, नेताओं वाली भाषा बोलने लगे. हाँ बाबा जानती हूँ निशक्तता पेंशन अलग अलग राज्यों में अलग अलग योजनाओं के तहत बांटे जाते हैं. पिछले साल मुझे भी मिले थे (इस बार वाले का कुछ पता नहीं) पर तीन सौ रूपए महीने में कौन कौन सा खर्च निकल जाएगा? मैं ये बिलकुल नहीं कह रही कि इस राशि को बढ़ाया जाय मैं क्या कोई भी नहीं कहता. कहना तो ये है कि बंद हो जाए ये पैसे लेकिन बदले में हमें हमारे मौलिक अधिकार मिले. स्कूल, कॉलेज, दफ्तर सभी सार्वजनिक स्थल ऐसे हों कि हम अपनी मर्ज़ी से स्वाभिमान के साथ कहीं भी जाएँ, अपनी प्रतिभा, अपने हुनर से अपनी जीविका के लिए खुद कमा सकें. किसी एक अंग के कमज़ोर या न होने के कारण हम ‘निशक्त’ हैं यह एक ग़लतफ़हमी है.

कहने के लिए तो ट्रेन में सफर करने के लिए किराए में छूट दी जाती है पर इस छूट का क्या फायेदा जब ट्रेन के डब्बे ऐसे हों जिनमें हम खुद जा हीं न सके, जिसका शौचालय हमारे उपयोग के लायक हो हीं नहीं? ट्रेन में सफर करने के लिए भी बाकी लोगों के टिकट तो घर बैठे ऑनलाइन बनाये जा सकते हैं पर विकलांगो का टिकट तो काउंटर पर जा कर ही बनेगा. मेधा छात्रवृति की बात हो तो भी बाकी छात्र तो अपने अपने कॉलेज में हीं फॉर्म भर लेते हैं लेकिन विकलांग छात्रों को एक दूसरी जगह से फॉर्म मिलता है वो भी जमा करने खुद जाना होता है. क्या इसी को बराबरी का अधिकार कहते हैं? कहने को तो अभी बहुत कुछ है पर कहूँगी सिर्फ इतना कि मेरे सारे मौलिक अधिकार ढूंढ के ला दीजिए. हर जगह देख लिया नहीं मिला लेकिन अब रहा नहीं जाता कहीं से भी मुझे मेरे अधिकार चाहिए.   

...आलोकिता