मंगलवार, 12 जून 2012

जलने और जलने में हीं कितना अंतर आ जाता है



















जलने और जलने में हीं कितना अंतर आ जाता है 

शमा भी जलती चिता भी जलती 
जलती अगन दोनों में है 
औरों को रौशनी देने को शमा जलती,
कतरा-कतरा पिघलती है 
भष्म करके कई खुशियों अरमानो को हीं 
चिता कि लपटों को शान्ति मिलती है 
ज्योत शमा की चमक लाती नयनो में 
चिता की दाह अश्रुपूर्ण कर जाती है

जलने और जलने में हीं कितना अंतर आ जाता है 

उसी आग से जलता चूल्हा 
उसी से जलती भट्टी शराब की 
एक चूल्हे का जलना 
कई दिलों में ख़ुशी होठों पे हंसीं लाता है 
जलती जब एक शराब की भट्टी 
कितनो का घर लुट जाता है 
चूल्हे का जलना छुधा को तृप्ति पहुँचाता 
भट्टी स्वयं कितनी जिंदगियां, कितने रिश्तों को पी जाती है 

जलने और जलने में हीं कितना अंतर आ जाता है 

जितनी पावन सात फेरों की अग्नि 
उतनी हीं पापिन दहेज़ की अग्नि 
जन्म-जन्मान्तर के रिश्ते में बांधती 
बनती सात वचनों की साक्षी फेरों की अग्नि 
रिश्ते हीं नहीं शर्मशार करती मानवता को भी 
बहुओं को जिन्दा जलाती दहेज़ की अग्नि 
इक गढ़ती नित नव रिश्ते
दूजी फूंकती प्रेम की डोरी 

जलने और जलने में हीं कितना अंतर आ जाता है 

बीड़ी-सिगरेट के सिरे पर जलती छोटी लाल सी चिंगारी 
और जलती पूजा घर के धुप में भी 
दम घोंटता बीड़ी-सिगरेट का धुआँ 
मौत का दूत बन जाता है 
सुवासित करता धुप चहु दिशाओं को 
मानसिक सुकून भी पहुँचाता है 
इक कदम दर कदम मौत की तरफ ले जाता 
दूसरा आस्था का प्रतीक बन टिमटिमाता है 

जलने और जलने में हीं कितना अंतर आ जाता है 

प्रेम की अग्नि जलती दिलों में 
विरहाग्नि दिलों को जलाती है 
मिलन भी उतपत करता जिस्मो-ओ-जिगर को 
विरह की ऊष्मा भी जलाती है 
हो इकतरफा भी लगी अगन तो
ताप दूजे तक भी जाती है 
जलना ये भी कहलाता है 
जलना वो भी तो होता है 

जलने और जलने में हीं कितना अंतर आ जाता है

.....................................................आलोकिता गुप्ता