गुरुवार, 15 सितंबर 2011

बेटी हूँ


















सुन लो हे श्रेष्ठ जनों 
एक विनती लेकर आई हूँ 
बेटी हूँ इस समाज की 
बेटी सी हीं जिद्द करने आई हूँ 
बंधी हुई संस्कारों में थी 
संकोचों ने मुझे घेरा था 
तोड़ के संकोचों को आज 
तुम्हे जगाने आई हूँ 
बेटी हूँ 
और अपना हक जताने आई हूँ 
नवरात्रि में देवी के पूजन होंगे 
हमेशा की तरह 
फिर से कुवांरी कन्याओं के 
पद वंदन होंगे 
सदियों से प्रथा चली आई 
तुम भी यही करते आये हो 
पर क्या कभी भी 
मुझसे पूछा ?
बेटी तू क्या चाहती है ?
चाहत नहीं 
शैलपुत्री, चंद्रघंटा बनूँ 
ब्रम्ह्चारिणी या दुर्गा हीं कहलाऊं 
चाहत नहीं कि देवी सी पूजी जाऊं 
कुछ हवन पूजन, कुछ जगराते 
और फिर .....
उसी हवन के आग से 
दहेज़ की भट्टी में जल जाऊं 
उन्ही फल मेवों कि तरह 
किसी के भोग विलास  को अर्पित हो जाऊं
चार दिनों की चांदनी सी चमकूँ
और फिर विसर्जीत  कर दी जाऊं
नहीं चाहती
पूजा घर के इक कोने में  सजा दी जाऊं 
असल जिन्दगी कि राहों पर 
मुझको कदम रखने दो 
क्षमताएं हैं मुझमें 
मुझे भी आगे बढ़ने दो 
मत बनाओ इतना सहनशील की 
हर जुल्म चूप करके सह जाऊं 
मत भरो ऐसे संस्कार की 
अहिल्या सी जड़ हो जाऊं 
देवी को पूजो बेशक तुम 
मुझको बेटी रहने दो 
तुम्हारी थाली का 
नेह  निवाला कहीं बेहतर है
आडम्बर के उन फल मेवों से 
कहीं श्रेयष्कर है 
तुम्हारा प्यार, आशीर्वाद 
झूठ मुठ के उस पद वंदन से  

14 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत गहन अभिव्यक्ति| धन्यवाद|

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  2. मासूम बेटी का क्रंदन ... बहुत ही मार्मिक रचना ... सोचने को विवश करती है ...

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  3. अच्छा सन्देश देती हुई सुन्दर सार्थक अभिव्यक्ति....

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  4. बहुत बहुत बधाई ... 100 फ़ोलोवर्स का आंकड़ा पार करने पर

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  5. अलोकिता
    100 फ़ोलोवर्स होने की आपको ढेर सारी शुभकामनाये....!

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  6. बहुत बढ़िया रचना और सार्थक भी |

    मेरे ब्लॉग में भी पधारें |
    मेरी कविता


    काव्य का संसार

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  7. alokita ji,

    जल्दी ही हमारे ब्लॉग की रचनाओं का एक संकलन प्रकाशित हो रहा है.

    आपको सादर आमंत्रण, कि आप अपनी कोई एक रचना जिसे आप प्रकाशन योग्य मानते हों हमें भेजें ताकि लोग हमारे इस प्रकाशन के द्वारा आपकी किसी एक सर्वश्रेष्ट रचना को हमेशा के लिए संजो कर रख सकें और सदैव लाभान्वित हो सकें.
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    अपनी टिपण्णी से हमारा मार्गदर्शन कीजिये.

    जन सुनवाई jansunwai@in.com

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  8. आग कहते हैं, औरत को,
    भट्टी में बच्चा पका लो,
    चाहे तो रोटियाँ पकवा लो,
    चाहे तो अपने को जला लो,

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  9. सुन्दर सार्थक अभिव्यक्ति .....उम्दा पंक्तियाँ .सदियों से प्रथा चली आई
    तुम भी यही करते आये हो
    पर क्या कभी भी
    मुझसे पूछा ?
    बेटी तू क्या चाहती है ?

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