शनिवार, 9 अप्रैल 2011

खौफनाक रक्तिम मंजर



टुटा निराशा का प्याला
ख्वाब की हाला छलक गयी
सोचा बटोर लूँ ख्वाबों को
तो काँच सा कुछ चुभ गया
रक्त बहा और
आँसू भी टपक पड़े
ख्वाब, निराशा, रक्त,आँसू
सब मिलके एक हुए
कुछ और नहीं अब कमरे में
बस यही मंजर बचा है
रक्तरंजित निराशा पर
बहता मेरा ख्वाब
और मेरे
खून में लथपथ से अश्क
जाने कब ओझल होगा
आँखों से
ये खौफनाक
रक्तिम मंजर

9 टिप्‍पणियां:

  1. ओह्….……बेहद गहन वेदना का चित्रण किया है।

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  2. सुन्दर नये प्रतीकों वाली सुन्दर रचना । बधाई ।

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  3. आलोकित जी ख्वाब का टूटना तो बहुत ही दुखदायी होता है..
    मगर टूटे सपने के लिए कब तक रो सकतें है...
    अपने कविता के सुरुवाती दिनों में एक कविता लिखी थी सपने की पीड़ा..शायद इसी भाव और मनःस्थिति में..
    सुन्दर रचना के लिए बधाई ..

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  4. acha likha hai... sach ki disha me achi rachna hai,,, but dukh and vyakulta ke sath kuch kar dene ki shakti bhi najar ati to aur acha lagta.... mana ki haaar ke baad turant jeet ki or chalna mushkil hai... par khwab ka pura na hona haqiqat hai and naye khwab bunna vastavikta.... nice efforts...

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  5. बहुत अच्छी पोस्ट, शुभकामना, मैं सभी धर्मो को सम्मान देता हूँ, जिस तरह मुसलमान अपने धर्म के प्रति समर्पित है, उसी तरह हिन्दू भी समर्पित है. यदि समाज में प्रेम,आपसी सौहार्द और समरसता लानी है तो सभी के भावनाओ का सम्मान करना होगा.
    यहाँ भी आये. और अपने विचार अवश्य व्यक्त करें ताकि धार्मिक विवादों पर अंकुश लगाया जा सके., हो सके तो फालोवर बनकर हमारा हौसला भी बढ़ाएं.
    मुस्लिम ब्लोगर यह बताएं क्या यह पोस्ट हिन्दुओ के भावनाओ पर कुठाराघात नहीं करती.

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