बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

विभावरी की गोद में निमग्न सोया है
सब चिंताएं छोड़ मधुस्वप्न में खोया है
ख्वाबों में हीं देखकर मुझे मचलता है
हाथ बढ़ा कर पा लेने को तड़पता है
ख्वाबों से निकल देख मैं यथार्थ में हूँ
द्वार पर खड़ी कब से तुझे पुकारती हूँ
जिसकी तुझे तलाश थी मैं सुअवसर हूँ वही
आज खड़ी तेरे द्वार पर तुझे ज्ञात  हीं  नहीं
अरे ओ द्वार तो खोल तुझसे हीं कहती हूँ
चल उठ मैं तुझे मंजिल तक ले चलती हूँ


मैं जाती हूँ गर मुझसे प्यारी है नींद तुझे
प्रातः जब नींद  खुलेगी मत  ढूँढना  मुझे
देखकर  मुझे  किसी  और  के  साथ
अपनी मंजिल देख किसी और के हाथ 
मत रोना भाग्य पर मत कोसना मुझे
कोसना आलस्य को उठने न दिया तुझे 

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सार्थक और भावपूर्ण प्रस्तुति..हम स्वप्नों के संसार में जिसे ढूँढते रहते हैं, उसको पाने की यथार्थ में कोई कोशिश नहीं करते और दोष देते हैं भाग्य को. बहुत सुन्दर

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  2. कर्म ही प्रारब्ध है। अच्छी रचना के लिये बधाई।

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  3. बहुत सुन्दर पंक्तिया
    उम्दा शब्द संयोजन

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  4. .

    अगर यही 'अवसर' जयशंकर प्रसाद जी की लेखनी से खटखटाता तो कुछ यूँ स्वर आते :
    "शिशिर कणों से लदी हुई कमली के भीगे हैं सब तार.
    चलता है पच्छिम का मारुत लेकर शीतलता का भार.
    भींज रहा है रजनी का वह कोमल सुन्दर कबरी भार.
    अरुण किरण सम कर से छू लो, खोलो प्रियतम खोलो द्वार.

    .

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  5. .

    आपने अवसर को गँवाने का सही कारण बताया.
    .
    .
    .
    .
    यदि यही अवसर दिनकर जी की लेखनी से द्वार खटखटाता तो कुछ यूँ स्वर आते :
    ओ बदनसीब अंधों, कमज़ोर अभागो !
    अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो.
    वह अघी, बाहुबल का जो अपलापी है.
    जिसकी ज्वाला बुझ गयी वही पापी है.
    ____________
    अघ मतलब पाप और 'अघी' मतलब पापी

    .

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  6. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!

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