बुधवार, 19 जनवरी 2011

निराश हो चुकी मेरी जिन्दगी में 
एक नूर बनकर तुम आये 
बेजान सी मेरी काव्य पंक्तियों में 
अर्थ बनकर तुम समाय
खुद में हीं उलझती, टूटती लता सी 
मैं धरा पर पड़ी थी 
दुनिया की विकृत नजरों से 
मैं खुद को देख रही थी 
मेरी हीं नजरों से तुमने मुझे हीं 
देखना सिखाया 
थम चुकी एक नदी को फिर से 
बहना सिखाया 
इस दुनिया से परे एक दुनिया
तुमने दिखाया 
हर रिश्ते से परे एक प्यारा 
रिश्ता बनाया 
कभी एक पथ प्रदर्शक बन 
उचित राह दिखाया 
कभी एक प्यारा दोस्त बन 
तुमने मुझे हँसाया 
अंधेरों से अब मुझे डर नहीं लगता 
जीवन अब दुखों का घर नहीं लगता 
एक आश है अब मुझमे भी 
एक विश्वास है खुद पर भी 
(एक छोटी सी कोशिश अपने गुरु के लिए ............. वैसे कहा भी गया है की गुरु का बखान करना बहुत मुश्किल कार्य है जो मुझे यह रचना लिखते वक़्त समझ में आ गयी | )

9 टिप्‍पणियां:

  1. गुरु वंदना तो ईश वंदना ही है ..
    मूकं करोति वाचालं पंगु लंघयते गिरिम ..
    गूगे को वाचाल बना दे और लंगड़े को पहाड़ पर चढ़ा दे
    सच्चा गुरु ऐसा ही है !

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  2. सच्चा गुरु ऐसा ही है !
    बहुत सशक्त अभिव्यक्ति
    शुभकामनाएं

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  3. वाह जी क्या बात है , बहुत ही उम्दा रचना लगी , गरु जी को मेरा भी प्रणाम जिन्होनें आप जैसे हीरे को तराशा ।

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  4. lovely... I am amazed...
    sachmuch.. ek ek word amazing laga.. :)
    you rock sweetheart!

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  5. बहुत सुन्दर और भावपूर्ण..सच्चे गुरु वास्तव में ऐसे ही होते हैं..

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  6. ्तुम्हारी गुरुभक्ति को नमन्………।बहुत सुन्दर भाव हैं।

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  7. गुरु को समर्पित यह कविता बहुत अच्छी लगी।

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  8. अलोकिता जी
    रचनात्मक दृष्टि से आपकी कविता मनोभावोका सुन्दर प्रस्तुतिकरण हैं बधाई पुनः इस स्विकिरोक्ति पर
    तम की सघनता नेराश्य का परिचायक हैं और प्रकाश उस नैराश्य को विचारों के प्रवाह मैं बदल देता हैं विचार मष्तिष्क की उर्जा हैं और चलायमान मष्तिष्क मनुष्य की सोच को एक नई दिशा देता हैं उसे ही हम अंधकार से प्रकाश की तरफ आना कहते हैं ये सब कुछ तो मनुष्य के अन्दर ही निहित हैं तुमने स्वयं की क्षमता को विस्तृत किया होगा तभी कोई तुम्हे उस अंधकार से लौटा लाने मैं सहायक रहा होगा क्योंकि बिना चेतना के गुरुतर प्रयास भी सफल नहीं ही होते हैं
    और तुम्हारा तो नाम ही आलोकिता हैं फिर तुम्हे आलोकित होने से कौन रोक सकता हैं

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