रविवार, 2 जनवरी 2011

चाँद



ऐ चाँद, जाकर छिप जा
बादलों कि चुनर में
तुझे देख  कर ये
आँखें भर आती हैं
सालों पहले तू
कितना प्यारा था
परियों का देश
चंदा मामा था
तुझे निहारते हुए
कई सपने देखे थे
हर सपने कि लाश
सा नजर आता है तू
तेरी चाँदनी में
बैठ हम खेलें थे
चाँदनी अब यादों कि
चिताग्नि सी लगती है
तेरी रौशनी पसंद नहीं
अँधेरा हीं अब भाता है
खिड़की खोलते तू
क्यूँ सामने आ जाता है ?
जाकर छिप जा तू
क्यूँ मुझको रुलाता है ?
थिरक कर ये चाँदनी
क्यूँ मुझको जलाती है ?
तुझमे परियों कि रानी नहीं
 भयावह दैत्य नजर आता है
ऐ चाँद छिप जा तू
तुझे देख दिल दहल जाता है

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर रचना!

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुंदर !
    कविता को एक नए अंदाज़ में परिभाषित किया है आप ने !

    जवाब देंहटाएं
  3. चांद से नये अन्दाज़ में इल्तिज़ा बहुत ही ज्यादा भा गयी ...
    बधाई ..

    जवाब देंहटाएं
  4. its really wonderful.......... great. no words to express.......... made me a great fan of urs.......

    जवाब देंहटाएं