सोमवार, 27 दिसंबर 2010



न चाहो किसी को इतना ,
चाहत एक मजाक बन जाय |

न महत्त्व दो किसी को इतना ,
तुम्हारा अस्तित्व मिट जाए |

न पूजो किसी को इतना ,
वह पत्थर बन जाए |

न हाथ थामो किसी का ऐसे ,
सहारे कि आदत पड़ जाए |

न साँसों में बसाओ किसी को ऐसे ,
उसके जाते हीं धड़कन रुक जाए |

बनाओ खुद को कुछ ऐसा ,
हजारों चाहने वाले मिल जाए |

महत्त्व खुद का बढाओ इतना ,
लाखों सर इज्जत से झुक जाए |

9 टिप्‍पणियां:

  1. गहरी बात कह दी आपने। नज़र आती हुये पर भी यकीं नहीं आता।

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  2. बहुत ही प्रेरक रचना..किसी सहारे का इन्तेज़ार करना भी नहीं चाहिए. सुन्दर प्रस्तुति

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  3. हम इंडियन हो गए है ॥
    शायद इसिलए ऐसा हो रहा है
    शानदार पोस्ट /
    नए साल की बधाई

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  4. जिस दर पर सर न झुके वो दर नहीं !
    जो सर हर दर पर झुके, वो सर नहीं !
    ----------------सुन्दर रचना !

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  5. ये अलग बात कह दी आलोकित जी
    भावों का अतिरेक कुछ और कहता हैं और रचना कुछ और
    'न' की आव्रति कई बार 'हाँ' सी लगती हैं
    बड़ी बात हैं फिर भी खुद को मुकाबिल रखने का असर और
    स्वयं को आदर्श रूप मैं रखने का हौसला भी हैं आपमें
    बधाई ,

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