सोमवार, 15 नवंबर 2010

'''''''''''''वसंत से पतझड़'''''''''''''''

देखो बागों का या यौवन आज खिल रहा
तभी तो मधुमास उसका आलिंगन कर रहा
नव पुष्पों से बागों का श्रृंगार हो रहा
तभी तो बसंत का दिल धड़क रहा
सुन्दर सुन्दर पुष्प आज खिल रहे
भँवरे आकर मधुर गुंजन कर रहे
पुष्प सुगंध चहु दिशा में फैला रहे
तभी तो तितलियों के झुण्ड दौड़े आ रहे
रूप रंग गंध सब का मज़ा  लेने को
मनोरम दृश्य को स्मृति में भर लेने को
मानव भी दौड़ा चला आया
बागों का रूप देखकर ललचाया
कल बागों में जब यौवन न होगा
मधुमास का तब आलिंगन न होगा
पुष्पों का श्रृंगार जब टूट जायेगा
वसंत बागों से तब रूठ जायेगा
सारे पुष्प जब मुरझा जायेंगे
भौंरे कहीं न नजर आयेंगे
पुष्पों में जब सुगंध न होगा
आसपास तब तितलियों का झुण्ड न होगा
मानव भी फूलों को रौंद चला जायेगा
उन बेचारों की तरफ उसका ध्यान न जायेगा
बागों में भयानक सूनापन तब छाएगा
पतझड़ का मौसम उसके समीप जब आएगा
                                               आलोकिता .....

2 टिप्‍पणियां:

  1. इस शानदार रचना पर बधाई ....जैसे मैंने पहले भी कहा है आप अहसासों का बहुत अच्छा संयोजन है ॰॰॰॰॰॰ दिल को छूती हैं पंक्तियां ॰॰॰॰ आपकी रचना की तारीफ को शब्दों के धागों में पिरोना मेरे लिये संभव नहीं

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