रविवार, 14 नवंबर 2010

बालदिवस की वो यादें..........................

आज १४ नवम्बर है ना, चाचा नेहरु का जन्मदिन यानि की बालदिवस | आज मुझे अपने स्कूल की बहुत याद आ रही है, बहुत अधिक |यही तो वह दिन था जिस दिन बच्चा होना बुरा नहीं लगता था| बाकी साल के ३६४ दिन तो यही सोचा करते थे की हम बच्चे क्यूँ हैं ? काश की हम बड़े होते कितना अच्छा  होता | अरे यार अब तो हमारी हालत और ख़राब हो गयी है| ना बच्चों की तरह हमारी गलतियां ही माफ़ होती हैं ना बड़ो की तरह हम आज़ाद हीं हैं | खैर बचपन की बात करते हैं | कितना अच्छा लगता था वह बाल दिवस समारोह वो नाच गाना, भाषण बाजी, टॉफी चॉकलेट, वो चन्दन का टीका, वो गुलाब का फूल और सबसे अच्छा तो लगता था सालभर अपने इशारों पर नाचने वाले टीचर्स को ठुमका लगाते देखना | कई कारणों से मैं बहुत से स्कूलों में पढ़ी हूँ इसलिए मेरे पास तरह तरह की यादें हैं इस दिन की | हर जगह अलग अलग तरह से मनाया जाता था बालदिवस |बचपन में बच्चा होना तो बुरा लगता हीं था पर उससे भी बुरा लगता था बड़ों का ये मानना की बच्चों की जिन्दगी में कोई टेंशन नहीं होता | अजी हमारे पास भी तरह तरह के टेंशन हुआ करते थे | जब मैं ६ क्लास में पढ़ती थी मम्मी की इसी बात से मुझे गुस्सा आया था की बच्चों को टेंशन हीं नहीं होता | अब मैं कैसे कहती की हमारे सबसे बड़े टेंशन तो आप बड़े लोग हीं हो | मैं बड़े शालीन बच्चे की तरह चुपचाप वहाँ से चली गयी पर मैंने सोच लिया था की मुझे बच्चों को इन्साफ दिलाना है और इन लोगो की ग़लतफ़हमी को दूर करना है मैंने एक कविता लिखी और सचमुच उस दिन माँ मानगयी की बच्चों के पास भी टेंशन होता है| हाँ मैंने बड़ों के टेंशन होने वाली बात का जिक्र नहीं किया इतनी बेवकूफ थोड़े न थी मैं | दोस्तों का रूठना, पेंसिल का टूटना, गेम में हारना, क्लास में मार खाना ये सब तो मम्मी की नजर में टेंशन था नहीं सो मैंने सिर्फ पढाई की टेंशन के बारे में
लिखा | बताऊँ वह कौन सी कविता थी
बस्ते के बोझ से दबा बचपन 
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उफ़ यह इतना भारी भरकम बस्ता 
बचों की हालत को किया इसने पस्ता
हालत पस्त हुआ इसे उठाते उठाते 
घर से स्कूल, स्कूल से घर लाते लाते 
इसे लेकर थके हुए से जब बच्चे स्कूल पहुचे 
आप ही बताएँ पढाई में भला उनका जी कैसे लगे ?
शाम को थके हरे बच्चे जब घर आते 
जल्दी से होमवर्क करने  में जुट जाते 
रात को सोते हैं इसी टेंशन में 
उठनाहै जल्दी हीं कल सुबह में 
अरे हाय! यह क्या हो गया 
बस्ते के बोझ में बचपन कहीं खो गया 
दूरस्थ शिक्षा लेने के कारण अब मेरे पास बस्ते का बोझ तो नहीं रहा ( ई- बुक्स से ही काम चल जाता है ) ना हीं होमवर्क का टेंशन पर बचपन तो खो ही गया न | वक्त को बढ़ने से कौन रोक सकता है ??? पर इसमें एक सकारात्मक बात भी है की मेरे बचपन का सपना जो अभी अधुरा है वह पूरा जरूर होगा | कौन सा सपना ? अरे वही बड़ा होने वाला सपना |
एक दिन हम बड़े बनेंगे एक दिन
मन में है विश्वास पूरा है विश्वास
 हम बड़े बनेंगे एक दिन

1 टिप्पणी:

  1. मासूमियत है आपकी इस कविता में। आपने मुझे उन दिनों कि याद दिला दी जब मैं ट्यूशन पढ़ाया करता था और मेरे स्टूडेंट्स के मनोभाव भी कुछ इसी तरह के होते थे। शायद आप अभी तक बड़ी नहीं हुई हैं। बाद में आपको भी अच्छा लगेगा कि आपने बचपन में ऐसी कविता लिखी और तब आप भी वैसी ही कविता लिखेंगे जैसी मैंने लिखी है: बचपन बरबस याद आता है

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